tag:blogger.com,1999:blog-57734335019634737172024-03-13T09:17:05.872+05:30चरैवेति-चरैवेति: Life is name of a perpetual journey देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.comBlogger309125tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-23193742457550598222023-02-14T19:30:00.001+05:302023-02-14T19:30:19.897+05:30भकूट - कूट-कूट कर भरा हुआ प्रेम..<div>सबको भकूट दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। आप सब भी हैरान हो रहे होंगे कि आज तो वैलेंटाइन डे है, हैप्पी वैलेंटाइन डे बोलना होता है, यह भकूट दिवस क्या और कैसा। तो भाई, जो भी हमारे सनातन रीति परंपरा में विश्वास रखता है और खास तौर पर जो विवाहित हैं अथवा विवाह के दहलीज पर हैं वह निश्चय ही 'भकूट' शब्द से वाकिफ होगे। फिर भी सबके सहूलियत के लिए बता देना उचित होगा - शादी के लिए लड़का लड़की की कुंडली और गुण मिलान के जो आठ मुख्य पैरामीटर होते हैं (वर्ण, वाष्य,तारा,योनि,ग्रह मैत्री,भकूट एवं नाड़ी) उनमें पारस्परिक प्रेम के आकलन का पैरामीटर होता है भकूट यानि यदि लड़का-लड़की का भकूट मैच कर रहा है तो उस जोड़े के वैवाहिक जीवन में प्यार की गंगा हमेशा भरी-लहलहाती बहेगी अन्यथा तो सब अपने अपने वैवाहिक जीवन के अनुभव से स्वयं ही जान समझ सकते हैं। व्यक्तिगत मुझसे पूछें तो मुझे तो प्रायः उलाहना मिलती है कि हमारा भकूट मैच नहीं है इसीलिए प्यार कम, तकरार ज्यादा है।इस उलाहना के सुनते सुनते अब तो मैं भकूट को लेकर ओवर-कासस हो गया हूं, जब भी किसी युगल - घर परिवार या नाते-रिश्तेदारों या मित्र सर्किल में, में परस्पर छलकता प्रेम देखता हूं (मेरा सोना-मेरा बेबी के लेवल वाला) फौरन मेरी जेहन में उनके ऊपर भकूट देव की विशेष कृपा का अहसास जग जाता है, थोड़ी उनसे ईर्ष्या भी होती है कि काश अपने ऊपर भी भकूट देव, थोड़े ही सही, मेहरबान होते।<br></div><div><br></div><div>बहरहाल जीवन में जो भी है जैसा है, भकूट देव अनुकूल हैं या प्रतिकूल यह तो नसीब ने दे ही दिया है, मगर दो व्यक्तियों के बीच सबसे बड़ा भकूट होता है आपसी विश्वास, पारस्परिक स्वीकृति और हमेशा हर हाल में एक दूजे के साथ खड़े रहना और एक दूसरे के लिए संबल बने रहना। एक दूसरे के प्रति यही समझ और धीरज असली भकूट-मिलान है। </div><div>पुनः सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। 💐💐💐</div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-43073633209176361522023-02-14T12:44:00.001+05:302023-02-14T12:54:03.576+05:30दुख एवं करुणा के आर्द्र स्वर - हमारे विवेक व चेतना के गज़र <div>विगत दो दिन से अधिकांश समय अस्पताल में ही गुजर रहा है, मेरी मां अस्वस्थ हैं, भर्ती हैं। चूंकि वह अभी आईसीयू में हैं इसलिये अधिकांश समय अस्पताल के रिसेप्शन एरिया में प्रतीक्षा बेंचों पर ही बैठे बीतता है। अस्पताल में लोगों(भर्ती मरीजों के परिजनों) के बीच होना एक विशेष गहरा भावनात्मक अनुभव होता है, किसी रंगमंच पर चल रहे बहुआयामी दृशयमंचन से कहीं कम नहीं-कुछ बदहवास से, कुछ गंभीर से, कुछ मसगूल से कुछ उदासीन से, कुछ उतावले में चलते, कुछ आहिस्ता सोच और चिंता में, विभिन्न भाव, विभिन्न रूप, विभिन्न दृश्य।</div><div>सामने, बरामदे के दूसरे किनारे की बेंच पर एक महिला करुणार्द व शांत भाव में बैठी हैं, चिंताग्रस्त बार बार आईसीयू की ओर जाने वाली रैम्प की ओर व्यग्रता से निहारती हुई। बीच बीच में दो युवा, शायद उनके बेटे या संबंधित, जब भी पास से हड़बड़ाहट में आ जाते,उनकी व्यग्र और उदास आंखें पूछती हुई उनसे कि क्या हाल है मरीज (शायद उनके पतिदेव) का, क्या कहते हैं डॉक्टर, कोई घबराने की बात तो नहीं। एक दो घंटे बाद एक करुण क्रंदन सुनाई दिया,उधर ध्यान गया तो देखा वही महिला फूट फूट कर रो रही है, अनहोनी जिसकी आशंका में वह घंटों से व्यग्र और चिंतित दिख रहीं थी वह घटित हो गई थी , पूरी रिसेप्शन प्रतीक्षा एरिया उस महिला के करुण क्रंदन से विह्वल हो रहा था, वो कहते हैं ना कि इतनी करुणा कि स्थिति कि वहां मौजूद किसी का भी गला रुंध जाये कलेजा फट जाये, मुझे अनुभव हुआ मैं स्वयं और मेरे आस पास सबकी आंखे नम हो आयीं थी उस महिला के करुण क्रंदन से। दोनों युवक उस महिला को ढांढ़स बधाने का प्रयास कर रहे थे परंतु वह महिला कैसे ढॉढ़स पाती!</div><div>पौराणिक ग्रंथों कथाओं में हम सबने ही पढ़ा है कि भगवान राम मां सीता का त्याग और उनके आदेश पर लक्ष्मण मां सीता को वन में छोड़ आते हैं, तो वन में अकेली मां सीता, वह भी गर्भावस्था की नाजुक अवस्था में, राम से वियोग के दुख में जो करुण क्रंदन करती हैं कि पूरा वन - पेड़ पौधे, घास - पत्ते, पशु-पक्षी, वन का कण-कण उनके करुण क्रदन से करुणार्द हो उठता है, वहां की धरती सिसकने लगती है। जब शकुंतला को महाराज दुष्यंत पहचानने से इंकार करते हैं और प्रहरी उसे अपमानित कर राजदरबार से बाहर निकाल देते हैं , तो गर्भवती शकुंतला वन में जो करुण क्रंदन करती है उससे पूरा वन रोने लगता है। </div><div><br></div><div>एक दुखी नारी का करुण क्रंदन से वहां उपस्थित किसकी आंखे आर्द्र नहीं कर देता! वहां भी सभी इसी अनुभव से गुजर रहे थे।</div><div>अस्पताल के यह दुख-करुणा के अनुभव कतई अनपेक्षित होते हैं, कोई भी नहीं चाहता ऐसे अनुभव बिना किसी विवशता के देखना और उससे गुजरना, मगर इसका दूसरा पक्ष देखें तो इन दृश्यों और अनुभवों में सच्चा जीवन दर्शन निहित होता है, इन अनुभवों से जीवन की सच्चाई हमें प्रतिबिंबित हो जाती है। हमारे दुख, हमारे जीवन में आने वाले वियोग, विछोह के यह अनुभव हमें हमारे जीवन में प्राप्त संबंधों, सहारों, प्रियजनों (जिनकी सामान्य परिस्थितियों में प्रायः हम अनदेखी और उपेक्षा कर देते हैं, और गाहे-बगाहे तिरस्कार एवं अनादर भी) की उपस्थिति का महत्व एवं मायने समझा देते हैं, यह हमारी सोयी, बेहोश पड़ी चेतना एवं विवेक को जाग्रत करने में सहायता करते हैं। </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-56974858723898574892023-02-12T16:04:00.001+05:302023-02-12T16:04:38.624+05:30भाषा और संस्कार की फूहड़ तहरी - न खुदा ही मिला न विसाले सनम! <div>हमारे देश में लंबी दूरी की ट्रेन यात्रा लंबे समय की होती है इसलिए सहयात्रियों के साथ समागम भी लम्बी अवधि का होता है, कुछ खट्टा कुछ मीठा, कुछ रोचक कुछ अनपेक्षित। अभी यात्रा में ही हूं, केबिन में सामने की सीट पर एक परिवार है, पति पत्नी चार साल का बेटा और साथ में कोई साथी/परिवार का सदस्य जो बर्थ तो कहीं अन्यत्र है मगर अधिकांश समय इनके साथ ही है। कहने के लिए दो जाने हैं मगर साथ में लगेज सामान बारह जने से कम का नहीं, केबिन में बर्थ के नीचे और जो भी खाली जगह है सामान ही सामान ठंसा है,अपनी बर्थ से उतर वाशरूम के लिए जाना किसी बाधा दौड़ से कमतर टास्क नहीं है। मां बच्चे के लिए चॉकलेट का केक घर से लायी है और बाकी के लिए थोक भर पूड़ी सब्जी और अचार, सारा केबिन अचार के गंध से भरा है, सांस लेने में ऐसी घुटन गोया आप खुद किसी अचार के बड़े मर्तबान में बैठा दिए गए हैं। मां (मम्मा) का बच्चे से चलता संवाद टोका टोकी भी रोचक (या कहें वितृष्णापूर्ण) है, अंश लेग डोन्ट नीचे हिलाओ, अंश केक ईट लो, अंश वाटर ड्रिंक कर लो, अंश तुम्हारी फिंगर में डर्टी लगा है, सैनिटाइजर से हैंड क्लीन करो, अंश रोटी भी ईट कर लो , अंश अपनी आइज को फिंगर से टच मत करो मिर्च का बर्निंग लगेगा, अंश ऊपर जाकर डैडू के साथ स्लीप करो अभी मम्मा टॉयलेट के लिए गो कर रही है, इस तरह का एक अंतहीन डॉयलॉगबाजी, करन जौहर जैसे शख्सियत को यह मिल जायें तो निश्चय ही वह अपने किसी फिल्म में पू टाइप रोल में फिट कर लें। <br></div><div>यह परम सत्य है कि बच्चे की प्रथम एवं प्रमुख गुरु मां ही होती है, बच्चे में संस्कार, आचरण, भाषा आचार विचार की बुनियाद और इनकी मूल संरचना मां द्वारा ही डाली गढ़ी जाती है । परंतु आज यह जो मां का चोला उतार फेंकी मम्माएं है (अपने आधुनिक और शहरी होने और दिखावा करने की ललक में) बच्चों को संस्कार, भाषा आचरण और आदतों के नाम जो यह फूहड़ तहरी परोस खिला रही है उससे बच्चे के अंदर उत्तम और मौलिक संस्कार, भाषा और आचरण स्थापित होने की संभावना और उम्मीद कैसे की जा सकती है। खास तौर पर यूपी और बिहार की मम्माएं अक्सर इस हीनभावना से ग्रस्त दिखती हैं, उनको अपने बच्चे के मुंह से खुद को मां का संबोधन पिछड़ा और गंवारपन लगता है इसलिए बच्चे से खुद को मम्मा कहलाकर मुग्ध होती हैं, हाथ के लिए लेग, उंगलियों के लिए फिंगर, आंख के लिए आइज कहकर उन्हें लगता है कि वह खुद और उनका बच्चा अंग्रेजदां हो गया है। अन्यथा मैंने हमारे अन्यभाषायी परिवारों - मराठी, कन्नड़, उड़िया, गुजराती, बंगाली इत्यादि में बच्चों द्वारा अपने माता-पिता और संबंधों को अपनी भाषा के मौलिक संबोधन - आई, बप्पा, मां, बापू, अप्पा का ही संबोधन करते देखा है, वह कितने ही उच्च शिक्षित एवं संभ्रांत हैं उनकी अपनी भाषा में बोलचाल खानपान व्यवहार संस्कार उनके मौलिक रूप में होता है, बजाय कि उसमें फूहड़ तरीके से अंग्रेजी के शब्दों को बेवजह ठूंसने का।मैं अंग्रेजी बोलने का कोई विरोध नहीं कर रहा, मेरा तो सिर्फ यह अभिप्राय है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि अंग्रेजी में ही बोलना बात करना आधुनिक होना है तो वह अवश्य करे मगर तो शुद्ध और सही तरीके से अंग्रेजी बोले और बच्चों को सिखाये बजाय कि भाषा के नाम पर एक फूहड़ तहरी पकाने के। वैसे मैं मानता हूँ कि अपनी भाषा अपना संस्कार अपनी संस्कृति अपनी मां की तरह ही होते हैं, उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता है, इसलिए अपनी भाषा अपने संस्कार और अपनी संस्कृति के प्रति सदैव हार्दिक प्रेम और आदर रखना चाहिए और बच्चे में यह भावना स्थापित करने की जिम्मेदारी उसकी मां के अलावा भला और कौन कर सकता है? रही बात अन्य भाषा अन्य संस्कृति अन्य तौर तरीकों के, जिन्हें सीखना जानना हमारी व्यावसायिक व्यावहारिक अथवा पारिस्थितिक आवश्यकता होती है, उन्हें भी सही तरीके से जानना समझना चाहिए (बजाय कि उनकी फूहड़ तहरी बनाकर उनकी भी ऐसी तैसी करने के) उनके प्रति भी वही आदर सम्मान रखना चाहिए जो हम दूसरे की मां के प्रति रखते हैं। हमारी सुंदरता हमारी मौलिकता में होती है, नकल और दिखावटीपना, चाहे कितना भी रंग-रोगन लगायें प्रायः फूहड़ और अभद्र ही होता दिखता है।</div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-77218510913106295172021-03-11T08:57:00.001+05:302021-03-11T08:57:43.842+05:30बहुरूपिया शब्द <div>बहुरूपिया शब्द</div><div><br></div><div>कभी अल्हड़, अलल-बछेरा,</div><div>कुलेलें करने वाला,</div><div>नाकंद घोड़े के बच्चे जैसा,</div><div>जिसे ना कोई क़रार ,</div><div>फक्त कर्राह,</div><div>खिलंदड़ एवं बेपरवाह</div><div><br></div><div>कभी डरा सहमा</div><div>घबराये गाय जैसा</div><div>जिसे अपना बछरू</div><div>बहुत समय से</div><div>न दिखता हो न आहट हो</div><div>आशंका और आकुलता में</div><div>व्याकुल आंखें उसकी</div><div><br></div><div>कभी लार टपकाते</div><div>श्वान के सदृश</div><div>इधर उधर सिर हिलाते</div><div>मतलब बेमतलब तलवे चाटते</div><div>स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करते</div><div>इशारे पर</div><div>बेवजह भौंकते गुर्राते</div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-41498814360787205092021-01-17T20:08:00.001+05:302021-01-17T20:08:39.830+05:30बिडंबना : अपनी जूती अपने ही सर। विडंबना यह है कि प्रायः हम खुद को ज्यादा इंटेलेक्चुअल दिखाने के लिए अपने देश, इसकी सामाजिक व्यवस्था, इसके रीति-रिवाज संस्कृति परंपरा, इसकी राजनीतिक तंत्र और सरकारी तंत्र एवं व्यवस्था, का हर छोटी-बड़ी बात पर मजाक और उपहास करते हैं।हममें अपने इस इस गहरी हीनभावना की वजह हमारे देश की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था, संस्थानों में बामपंथी विचारधारा की गहरी पैठ एवं इस पूरे सिस्टम पर उनके मजबूत चंगुल की वजह से रहा है। और दुर्भाग्य से यही हीनभावना का संस्कार हम अपने बच्चों में भी जाने-अनजाने में पालते-बढ़ाते हैं। हमें इस सच्चाई का अहसास किसी वक्त यदि हो भी जाता है तो तबतक बहुत देर हो चुकी होती है, बच्चों को उनकी सोच की गलती को बताया भी तो वह उल्टा पड़ता है और वह विद्रोह करते हैं। इसलिए समय पर ही हमें स्वयं के संस्कार, एवं अपने बच्चों के संस्कार में इस नकली और दिखावटी इंटेलेक्चुअलपने से विलग, अपने देश, समाज, भाषा, संस्कृति, आचार-विचार, राजनीतिक एवं संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रति जागरूक, सम्मानजनक एवं जिम्मेदारीपूर्ण बनाना सुनिश्चित करना चाहिए।देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-56826007877978619842021-01-17T07:09:00.001+05:302021-01-17T07:09:21.562+05:30ना खुदा के रहे ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे.....<div>बरखा दत्त, निधि राजदान, सोनिया (वर्मा) सिंह सिर्फ व्यक्ति नहीं हैं, यह एक मानसिकता हैं जो भारतीय परिवारों में जन्म लेने के बावजूद, हर भारतीय चीज - भारतीय लोग, भारतीय सोच, भारतीय दृष्टिकोण को वाहियात और हीन समझते हैं। यह तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवी परिवारों के उस क्लास का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह कहने में अपनी शान और खुद को ' डिफरेंट फ्रॉम कॉमन लॉट, इलीट एंड स्पेशल' समझते हैं कि उन्हें हिन्दी ठीक से बोलना नहीं आता। ऐसी मानसिकता के लोग और परिवार हमें भारतीय शहरों, विशेषकर उत्तर भारत, में अक्सर मिलते हैं। यह और बात है कि ऐसे लोग खुद को कितना भी बड़ा अंग्रेजीदां समझते हों, परंतु यह अंदर से ओछे के ओछे ही रह जाते हैं, जो अपनी मातृभाषा, अपने खुद के परंपरागत संस्कारों तौर-तरीकों को ठीक से नहीं जाना, समझा और उसके हृदय में इनके प्रति कोई आदर और सम्मान दूर की बात, हेयदृष्टि और उपेक्षा है, भला वह किसी गैर की भाषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीकों में कोई वास्तविक योग्यता कहां से डेवलप कर पाएगा। अंततः ऐसे लोग 'गंदे नाले में गिरे बेल' की तरह होते हैं, न खुद के ही बन पाते हैं और न ही खुदा के। यह परमसिद्धसत्य है कि उत्कृष्टता की उपलब्धता अपनी मौलिकता अपने रूट्स के आधार पर संभव होती है।<br></div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-2490305510668893722021-01-16T10:21:00.001+05:302021-01-16T12:10:36.490+05:30कांटो को कांटा कहने की साफगोई जरूरी है... <div>जैसे जैसे कोई समाज या देश आर्थिक एवं जीवन संबंधी अन्य सुख-सुविधाओं से संपन्न होता जाता है वैसे वैसे स्वयं को तथाकथित सभ्य, सुसंस्कृत एवं इलीट होने और दिखने के लिए एक प्रकार का बनावटीपन (शोअॉफ), फेक और हिपोक्रेटिक आचरण, संस्कार व व्यवहार अपनाने लगता है। यूरोपीयन समाज और देश, विशेषकर पश्चिमी यूरोप, में इस तरह की हिप्पोक्रेसी डेढ़ दो सौ सालों में, उनके औद्योगीकरण आर्थिक उन्नति और हाई स्टैंडर्ड अॉफ लिविंग के समानांतर, खूब पल्लवित पुष्पित हुई। इन्हें खुद को तो गुलाब की खूबसूरती के मजे लेने थे, यह तो वह अपना नैसर्गिक अधिकार समझते रहे, मगर अपनी हमदर्दी, ज्ञान और बखान कांटो की ही करते , खासकर यदि वह कांटे दूसरे की बागवानी में पनप और विकसित हो रहे हों, इन कांटों से तबाह और त्रस्त कोई इन्हें नष्ट करने जलाने साफ करने की कोशिश भी करता तो यही पश्चिमी यूरोप का इलीट इंटेलेक्चुअल तबका अपने कलम और जुबान के तलवार से बेचारे कांटों के सफाई करने वाले के खिलाफ ही जंग में उतर आते रहे और इन जहरीले खतरनाक कांटो के तरफदारी में उनके रक्षक बने खड़े होते रहे। चूंकि अमरीका का डीएनए भी कमोबेश पश्चिमी यूरोप की ही संरचना रहा है, वहां भी यही इलिट और इंटेलेक्चुअल क्लास जनित हिप्पोक्रेसी निरंतर विकसित और पल्लवित होती रही। अब यही कांटे जब पश्चिमी यूरोप के देशों और शहरों, क्या लंदन और क्या पेरिस, और काफी हद तक अमरीका भी, में फैल बिखर और दिन दूने रात चौगुने बढ़ने और मजबूत होने लगे हैं, और इनके खुद के पैरों में चुभने और लहूलुहान करने लगे हैं तो अब इन्हें धीरे धीरे समझ में आने लगा है कि फूल फूल होते हैं और कांटे कांटे, कांटों से आप फूल की नरमी और सलीके की उम्मीद नहीं कर सकते, कांटो का चरित्र और ईमान ही होता है दूसरों के पैर में अकारण चुभना, दूसरों को लहूलुहान करना, दर्द देना। लहू बहाना और दूसरों को दर्द देना कांटों का मुख्य इंटरटेनमेंट होता है।</div><div><br></div><div>चूंकि भारत का बैकग्राउंड पश्चिमी देशों की लम्बी अवधि तक कॉलोनी होने और उनकी गुलामी करने का रहा, देश के तथाकथित आजाद होने के बाद भी सत्ता ऐसे ही लोगों के हाथों में आयी जिनकी सारी शिक्षा दिक्षा और समझ यूरोप से ही उधार में मिली हुई थी, अतः स्वाभाविक रूप से यहां भी वही हिप्पोक्रेसी की मानसिकता पूरी तरह से, गहराई से, समाहित रही। जेएनयू, जामिया और जाधवपुर इसी हिप्पोक्रेसी के जीतेजागते उदाहरण व प्रयोगशालाएं रही हैं।</div><div><br></div><div>ट्रंप या उनके विचारधारा जैसे नेताओं के फूहड़ बात और व्यवहार की चाहे जितनी भी आलोचना की जाय मगर एक बात तो अकाट्य सत्य है कि ट्रंप जैसे नेता कम से कम इस घिनौने हिप्पोक्रेसी से मुक्त रहे हैं, वे बेबाकी से और बिना किसी लाग-लपेट के इन कांटों को कांटा कहने की साफगोई रखते हैं।</div><div><br></div><div>हमारे देश के लिए भी इस गहरे पैठी हिप्पोक्रेसी से निजात पाने और कांटों को कांटा कहने की बेबाकी और साफगोई की नितांत आवश्यक है, कम से कम इधर पांच छः सालों से तो थोड़ी बहुत बेबाकी साफगोई प्रवेश करती दिखाई देने लगी है, इसके सुरक्षित भविष्य के लिए अपरिहार्य है अन्यथा हिप्पोक्रेसी में जीने वाले देश और समाज का हस्र और नियति प्रायः 'टाइटैनिक' जैसा ही होता है।</div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-42491421990957690272021-01-15T17:17:00.001+05:302021-01-15T17:17:37.609+05:30दि कॉमन सेंस... <div>सर्वप्रथम सबको मकरसंक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं, प्रत्यक्ष एवं आदिदेव भगवान सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि का मंगल कल्याण एवं रक्षा करें यही सर्वमंगलकामना 🙏<br></div><div><br></div><div>यह तो नितांत साधारण सी बात है जो हम सभी को भलीभांति पता है कि जो अप्रिय बात व्यवहार हमारे खुद के साथ होने से हमें बुरा तकलीफ और पीड़ा होती है वह दूसरे के साथ करने से हमें परहेज करना चाहिए, मगर जाती जिंदगी में सबसे ज्यादा उपेक्षा हम इसी साधारण समझ की ही करते रहते हैं। जिस रास्ते, सड़क, ट्रैक पर हम रोज चलते टहलते हैं स्वाभाविक है हमें उसका साफ-सुथरा रहना अच्छा लगता और शकून देता है, मगर हम अपने पालतू कुत्ते को टहलाते उसके बीच रास्ते सड़क पर मल-मूत्र त्याग कराने, अच्छे खासे साफ-सुथरा पब्लिक स्थान को गंदा करने में हमें कोई संकोच कोई गुरेज नहीं होता।</div><div><br></div><div>हमें अच्छे से अनुभव रहता है कि हम अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों, सफलताओं, हमने जिंदगी में क्या तीर मारा, हमारे पास कितनी ऊंची-ऊंची डिग्रियाँ हैं, हम कितने ऊंचे ओहदेवाले और रसूखदार हैं, हमारे कितने शानदार फ्लैट बंगले हैं, हम कितना देश विदेश घूमे हैं, हम अपने क्रेडिट कॉर्ड कितने लाख शॉपिंग करने में खर्च करते हैं, अपने बारे में हम जो भी गाना गाते रहें, अपनी बखान करते रहें, किसी और को घंटा फर्क नहीं पड़ता, अलबत्ता हर शख्स खुद की गदह-पचीसी में इतना व्यस्त खोया रहता है कि उसने आपकी बात सुनी भी या नहीं इसमें भी संदेह ही है।</div><div><br></div><div>हमें अच्छे से समझ में आता है कि हमारी बेस्ट काबिलियत, हमारा बेस्ट टैलेंट और हमारी बेस्ट परफॉर्मेंस हमारी स्वाभाविकता और ओरिजिनलटी में होती है, मगर हम दूसरे की नकल और डुप्लीकेट बनने के चक्कर में खुद का लबड़धोधो बना डालते हैं, न ऊधौ के रहते हैं न माधव के। खुद को सही अंग्रेजी बोलने आती नहीं, बोलते भी हों फूहड़, गलत-सलत, मगर अपने बच्चे से अंग्रेजी में ही बात करेंगे, नतीजतन बच्चा अपनी मातृभाषा को ठीक से सीखने से वंचित रह ही जाता है, और मां-बाप के इस दिखावटीपने से बेचारा अंग्रेजी भी गलत-सलत और फूहड़ बोलता सीखता है। और फिर अपनी भाषा और संस्कार में अधकचरे और अनभिज्ञ हीनभावनाग्रस्त हम खुद और हमारे बच्चे कपिल शर्मा के कॉमेडी शो अथवा फूहड़ जोक्स के द्वारा अपनी भाषा के थोड़े क्लिष्ट या परिस्कृत शब्दों के भद्दे उपपटांग उच्चारण से मजाक लेते और उनपर ठहाके लगाते अपना मनोरंजन करते हैं।</div><div><br></div><div>वैसे यह सारी बातें भी बेमतलब की ही चकल्लस हैं, स्कूल और कॉलेज में ही यह जुमला हम सभी जानते सीख गये ही थे कि 'कॉमन सेंस इज दि मोस्ट अनकॉमन इन दि ह्यूमन्स'।</div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-46798820490744207912018-12-16T20:52:00.001+05:302018-12-16T20:52:55.467+05:30मन के अंदर चल रहा निरंतर संघर्ष कठिन यह मानव के ...<p dir="ltr">इच्छाओं के चक्रवात से निरंतर जूझ रहा यह मानव मन<br>
उड़ जाता है अशक्त आत्मबलरहित तिनके के माफिक। <br>
इधर उधर बेचैन कहीं भी, बिना छोर और बिना ठिकाना<br>
दरबदर भटकता व्यग्र बावला भटका राह हो राही एक। </p>
<p dir="ltr">मगर बंधा यह संस्कारों से, अंतर्चेतन के कुछ धागों से, <br>
जुड़ा हुआ यह इनसे जितना जाने या अनजाने में ही, <br>
चेताते यह इसको जब भी यह उड़ता, मनमानी करता<br>
समझाते हैं बतलाते हैं इसे सही क्या और गलत क्या। </p>
<p dir="ltr">राह कौन सी इसकी जाती सुख को और खुशहाली को, <br>
शांति और उन्नति का जो पथ सहज सुरक्षित हो सकता है <br>
और कौन सी राह इसे खड्डे में अवनति में ले जाएगी, <br>
कल बन सकती काल, विनाश और अनहोनी का कारण। </p>
<p dir="ltr">मन की मनमानी और अंतर्चेतन के बीच यह संघर्ष निरंतर जारी रहता है मानव मन के अंदर प्रतिपल प्रतिक्षण <br>
मानव का अंतर्चेतन है जब तक विजयी,है लगाम हाथ<br>
तब तक जीवन में सब शुभ होता सुख फलदायी होता है। </p>
<p dir="ltr">वरना मन जो है प्रचंड और चलती उसकी ही मनमानी<br>
अपने अंतर्चेतन ध्वनि की करते हुए अवहेलना उपेक्षा<br>
संतापों का होआमंत्रण अवसादों का होना अपरिहार्य <br>
फिर है विनाश का आमंत्रण, निश्चित अनिष्ट संभावित है।<br>
#देवेंद्र</p>
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देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-42378885110121678142017-07-02T17:18:00.001+05:302017-07-02T17:18:41.824+05:30कौन कर रहा है जीएसटी का विरोध? <p dir="ltr">जीएसटी का अधिकांश विरोध वही तबका कर रहा है जो टैक्स इवैडर है और टैक्स इवैसन को भारत में जन्म लेने के नाते इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है।<br>
(मैं यहाँ उन लोगों के विरोध की उपेक्षा कर रहा हूं जो मात्र राजनीतिक कारण या अपने बौद्धिक पूर्वाग्रहवश चूंकि मोदी से नफरत और विरोध करते हैं इसलिए जीएसटी का भी विरोध कर रहे हैं।) </p>
<p dir="ltr">जीएसटी भले ही सीधे तौर पर व्यक्ति के व्यवसाय और आमदनी पर ज्यादा फर्क नहीं डाले, मगर इसका सबसे तगड़ा फालआउट यह है कि सबको अपने व्यवसाय के पूरे आगत और निर्गत का डिटेल सबमिट करना होगा, और सारे डिटेल पैनकार्ड से लिंक्ड हैं. तो स्वाभाविक है कि किसी भी बिजनेस की पूरी इंकम भी अब सरकार और इंकम टैक्स विभाग की जानकारी में रहेगी, जो अब तक लोग चंटबुद्धि से छिपा लिया करते थे। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इससे सारी चोरी, सारा टैक्स इवैसन ओवरनाइट बंद हो जाएगा, बड़े बड़े इन्नोवेटिव लोग हैं कुछ न कुछ तिकड़म तो भिड़ायेंगे ही, लोग मगर सतर्क होंगे, काफी हद तक ट्रांसपेरेंसी अवश्य आयेगी।</p>
<p dir="ltr">कल रात मैं भारत के वित्त मंत्री, श्री अरुण जेटली का एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू सुना जो काफी स्पष्ट और बेबाक लगा | उनके अनुसार आज देश में औसतन सिर्फ 80 लाख लोग अपना टैक्स रिटर्न भरते हैं | मैं कहीं पढ़ रहा था, हो सकता है मेरी याददाश्त पूरी तरह से सही नहीं भी हो, कि देश में मात्र 16 लाख लोग अपनी आमदनी 10 लाख से ऊपर शो करते हैं | अब प्रश्न उठता है कि इस तरह के आंकड़े देश की क्या तस्वीर और लोगों का क्या चरित्र दिखाते हैं? जिस देश में पढ़ेलिखे लोग, डाक्टर, वकील, सीए, बिजनेस से बड़ी आमदनी बनाने वाले लोग भी नियमों का मैनिपुलेसन करके टैक्स इवेसन करते हो, और इस टैक्स की चोरी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों, वहां सरकार कड़े निर्णय लेकर यदि इन सभी टैक्स इवैडर्स को टैक्स नेट में लाना चाहती है तो कुछ लोगों को इतना बुरा क्यों लग रहा है, इतनी मिर्ची क्यों लग रही है, मेरी समझ में तो सरकार के यह कड़े निर्णय ईमानदार तबके के पक्ष में है |</p>
देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-29881581836716767312016-10-01T23:12:00.001+05:302016-10-01T23:12:58.007+05:30बापू तुम अमर बने रहो सदैव,
मेरे आत्मा, चिंतन, मन के विश्वासों में.... <p dir="ltr">बापू तुम अमर बने रहो सदैव, <br>
मेरे आत्मा, चिंतन, मन के विश्वासों में.... </p>
<p dir="ltr">तुम भारत के, <br>
और भारतीयता के थे वास्तव प्रतीक <br>
सरल, सादगीपूर्ण, <br>
धीरज और संयम से परिपूर्ण <br>
सौहार्द और सद्भावना के प्रतिमूर्ति, <br>
तेरे उछ्वासों में <br>
स्पंदित होती थी आत्मा भारत की<br>
तेरे विश्वासों में ही <br>
रचता, बसता सच्चे भारत का विश्वास <br>
बापू! <br>
तुम भारत के, <br>
और भारतीयता के थे सहज प्रतिबिंब ।</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://lh3.googleusercontent.com/-zLNnX2qDXyI/V-_1oO60i-I/AAAAAAAAVts/Yumapo6tb3U/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://lh3.googleusercontent.com/-zLNnX2qDXyI/V-_1oO60i-I/AAAAAAAAVts/Yumapo6tb3U/s640/images.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-57571674736606128532016-08-27T20:22:00.001+05:302016-08-27T21:25:30.194+05:30जीवन पथ पर चलते चलते....<p dir="ltr">जीवन पथ पर चलते चलते.... </p>
<p dir="ltr">(Translated from the English Poem - As I Walk Through Life by great English Poetess Emily Adams) </p>
<p dir="ltr">जीवन पथ पर चलते चलते <br>
मैंने यह सीखा और जाना, <br>
कि वर्तमान पल को जी लेते, <br>
जो आवश्यक और उचित वही करते <br>
बच जाते भावी दुखसंतापों से।१।<br>
I've learned- <br>
that you can do something in an instant <br>
that will give you heartache for life. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि अपनों से जब भी विदा लिए <br>
कर लेते साझा दो प्रेम बोल <br>
है कौन जानता पल कल को <br>
फिर मिलें कभी या नहीं मिलें<br>
हो मिलना यह अंतिम पता नहीं।२।<br>
I've learned- <br>
that you should always leave <br>
loved ones with loving words. <br>
It may be the last time you see them. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि चलते रहना ही जीवन है <br>
हों पांव थके, दम उठ आए<br>
हिम्मत भी साथ विदा लेती, <br>
फिर भी संकल्प लिए मन में <br>
चलते रहना, बढ़ते रहना है।३।<br>
I've learned- <br>
that you can keep going long after you can't. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि जीवन में जो भी कर्म किया <br>
उनकी जिम्मेदारी निज की है, <br>
चाहे हों कितनी असफलताएं<br>
चाहे कितने अवसाद मिले <br>
पर दोष और को क्यों दूं मैं? ४।<br>
I've learned- <br>
that we are responsible for what we do, <br>
no matter how we feel. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि निज मनोवृत्ति और आदत पर <br>
अनुशासन और नियंत्रण आवश्यक है <br>
काबू में रखना  उनकी लगाम <br>
वरना स्वच्छंद हुए यदि वे <br>
तो हो जायेंगे खुद उनके काबू में।५।<br>
I've learned- <br>
that either you control your <br>
attitude or it controls you. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि जीवन की उपलब्धि का मापदंड <br>
धनअर्जन मात्र नहीं होता<br>
आवश्यकता भर तो यह आवश्यक होता <br>
पर जीवन के मूल्यों और रिश्तों का<br>
केवल धन स्थान न ले सकता।६।<br>
I've learned- <br>
that money is a lousy way of keeping score. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि  जीवन के निधि अनमोल मित्र <br>
हों मसले कोई गंभीर, कठिन या फिर <br>
बातें बस हों हंसी ठिठोली की <br>
जो मित्र साथ में अपने हों तो <br>
पल कैसे बीते न यह पता चले।७।<br>
I've learned- <br>
that my best friend and I can do anything <br>
or nothing and have the best time. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि चाहे जो भी हालात बने <br>
भली बुरी बातों के पल में <br>
खुशी और नाराजगी लाजिमी है <br>
पर कितने भी क्रोधित आवेशित हों <br>
मन में मानवता, सहिष्णुता रहे कायम।८।<br>
I've learned- <br>
that sometimes when I'm angry <br>
I have the right to be <br>
angry, but that doesn't give me <br>
the right to be cruel. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि विश्वास प्रेम की थाती है<br>
हो सकता न अपेक्षित प्रेम मिले <br>
आवश्यक न सब मनमाफिक हों<br>
फिर भी आश्वस्त रहें मन कि<br>
अंतर्मन में सबके है प्रेमभाव ।९।<br>
I've learned- <br>
that just because someone doesn't love you the <br>
way you want them to doesn't mean they <br>
don't love you with all they have. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि अपनों से ही गहरी चोट मिले<br>
जीवन में यदि रिश्ते हैं,अपने हैं<br>
तो उनका टकराना स्वाभाविक है <br>
पर सबको सहेज, अपनाना है <br>
धीरज रखते और क्षमा किये।१०।<br>
I've learned- <br>
that no matter how good a friend is, <br>
they're going to hurt you every once <br>
in a while and you must forgive them for that. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि औरों से क्षमा आवश्यक है <br>
पर यह ही केवल पर्याप्त नहीं <br>
इससे भी महत्वपूर्ण और आवश्यक <br>
है यह कि औरों को हम भी <br>
कर सकें क्षमा सहृदयता से।११।<br>
I've learned- <br>
that it isn't always enough to <br>
be forgiven by others, <br>
Sometimes you have to learn <br>
to forgive yourself. </p>
<p dir="ltr">मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि रिश्ते कमजोर न बातों से <br>
दो जन हैं तो बातें होंगी ही, और <br>
स्वाभाविक खटपट और नोकझोंक<br>
बातों में चाहे कितना मतभेद रहे <br>
<u>पर</u> दिल का संगम बना रहे।१२।<br>
I've learned- <br>
that just because two people argue, it doesn't <br>
mean they don't love each other. </p>
<p dir="ltr">जीवन के पथ पर चलते चलते <br>
मैंने सीखा यह और जाना <br>
कि दृश्य एक पर दो जन में <br>
अंतर दृष्टिकोण का रहता है <br>
इस दृष्टिकोण के अंतर से भी <br>
आपसी सामंजस्य बनाये रहना है।१३। <br>
I've learned- <br>
that two people can look at <br>
the exact same thing <br>
and see something totally different.</p>
<p dir="ltr">जीवन के पथ पर चलते चलते <br>
मैंने यह सीखा है और जाना है।१४।</p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र</p>
देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-70055697836652388762016-08-16T10:36:00.001+05:302016-08-16T10:36:38.145+05:30Why India fails miserably to win any medals in Olympic? <p dir="ltr">In our childhood, we used to read a story-There was a king, who wanted to collect a large chunk of milk, to perform a big yagya ceremony. He ordered all his subjects to contribute their part of milk in a large and deep cemented well, and with due respect to and trust for his subjects, didn't appoint any authority to check or verify the contribution made from the individual citizens . The every individual thought to play them smart, to contribute only a mug of water, in place of milk, when there is nobody to crosscheck it. Thus eventually the well was full of only water, in place of any milk. </p>
<p dir="ltr">Same is the fate of our nation too in most of its the public aspects,whether it's the general cleanliness of the public places, the general traffic order on the roads, or the performance of our nation in any important international sport's event, like Olympic or World Championship, our fate is decided and sealed from the day one, that we are going to prove just a naught in general. </p>
<p dir="ltr">Although I know many of my friends may disagree with me to blame the public in general itself as a cause for our nation's poor performance in the sports event, as the soul blame goes to the government, and it poorly state of affairs . But it's not a question of blaming someone particular for all such failures and the bad state of the things , but it's just a general and bare reality check only. We have to understand that things, either good or bad, either success or a failure, don't happen just by a chance, but by the due plan and design only. Unfortunately any public cause, either it's concerned the management of the general cleanliness of our public places, and upkeeping and protection of our public and the natural assets or  the management of sports, the grooming, training and upbringing of talents in sports to the international level , as a glory and pride for the nation, is concerned, is always fated for a chaos and mismanagement, as they lack the appropriate planning and the design for their management, they are just left hapless to survive by chance and random only, and very often even inflicted upon of some bad and mischievous politics and misuse even . </p>
<p dir="ltr">I was watching a small video clip forwarded on WhatsApp by my a college friend, who lives in UK. It's about the turn around story of the sports in UK 🇬🇧for last two decades. UK, which used to be a sports giant till sixties , gradually declined and became almost a spent force in Sports a two decades back . In 1996 Atlanta Olympic, UK could hardly win 15 medals, including just a single Gold medal. It was a wakeup call for the UK government and the sports administrators, as well as the sports loving public of UK. Then was started a sincere effort, on each and every stakeholder, including the sports loving British people, to put the things in place and order there.</p>
<p dir="ltr">They did a critical SWOT analysis, understood their area of their strength, potential and the talent pool available in the respective fields, and made their the best endeavour to harness it positively and ascertain their success in international arena, as they had been dominating in the past. The UK government and the sports authorities invested significantly in coming years in upgrading and modernizing the sports infrastructure and facilities . Many innovative methods of fund raising were adopted, in which the corporate houses, as well as the public in general contributed encouragely. And the good results of these positive investments started to be noticed in coming few years, in coming Olympic games, the medal tally of UK improved significantly, by 2008 the Beijing Olympic, they it touched the figure of 47 with more than 20 Gold medals, and finally in 2012 the London Olympic, UK as a host nation, could very visibly be seen as a cognitive sports force, with its medal of 67, including more than 30 gold medals. In the ongoing Rio Olympic too, Britain is performing an excellent, it's medal tally already more than 40, with 16 gold medals placed well decent at number two, just next to USA, the topper in the Medal tally. </p>
<p dir="ltr">India needs to adopt only such a very pragmatic and prudent approach if it's really wants any good and positive outcome and success in important international sports events. It requires a thorough SWOT analysis, and the systematic longterm investment all along in its sports area. We have to realize and understand that the success in modern sports is not just an emotional affair, blended with love and pride for your nation only and just a wishful thinking only . The present international level of the sports is highly advanced and competitive,involves more a high tech and advanced skill, stamina and preparation, apart from the natural talent and passion to win for one's national pride. The case example is Hockey, our the national sports, in which the four five decades back India used to be a highly reckoned force. Whereas at present even in this game too, India looks now just a spent and depleted only . Although, and certainly there is no lack of any passion in the players, as well as no dearth of the talents in our nation , but unfortunately this only, the emotional quotient is not well enough and suffices to win in the international sports event like Olympic. It's more the concern of the availability of the world class sports infrastructure, the selection process and the long term and the sustaining world class training to groom the raw talent into the international class talent, not just one of the best, but the best in the game.</p>
<p dir="ltr">Similar to Hockey, India needs to work upon its other traditional sports talent and strength, to name a few - wrestling,weight lifting, archery, shooting etc . In certain other sports as well like Badminton, Lawn Tennis, the boxing also Indian players have performed well occasionally and have shown a great potential, hence it requires to work upon its such strength areas. </p>
<p dir="ltr">Somehow the Athletics has been not pretty strength area of India, specially when it matters for the international level , but no doubt in the past the women athletes have shown the tremendous potential, since the era and ages of PT Usha,  the last three decades back . Unfortunately we could never keep the momentum for the same,and our women athletes too were lost somewhere in the way.By planning , organizing , investing and managing rightly and appropriately, with due strategy, goal and mission, certainly the best outcomes can be achieved in the future ahead. </p>
<p dir="ltr">As we talked earlier, the success is always by the plan and design, not just by a chance. So applies for India and the Indian sports too. India, it's all the stake holders in sports, and nonetheless the Indian people, need to be awakened, and need to work hard and to the smartest most, on our strength to upcome to not just the world standard, but the best in world, only then we can ensure the success and medals in any Olympic. There is no place for just a wishful thinking only.</p>
देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-91583090752009855102016-05-09T07:29:00.001+05:302016-05-09T07:29:59.027+05:30जिंदगी... अपनी सी है या बेगानी ?<p dir="ltr">हमसाया बनती तुम<br>
मेरे पीछे पीछे चलती रहती हो<br>
बिना कहे कुछ ,रोक टोक बिन<br>
मेरे हर पग से तुम कदम मिलाती<br>
मेरे हर निशान पर अपनी मुहर लगाती<br>
खुशियों में जो मैं चहका तो<br>
बड़ी तरेरे आँख दिखाती<br>
दुश्वारी में जो मुँह बल गिरता<br>
ताली दे तुम खिलती हँसती<br>
साया हो या दुश्मन हो तुम<br>
तुझे खुशी जब मैं कितना गम <br>
मुझे पता तुम बड़ी चतुर हो<br>
ज्ञानी बहुत मगर निष्ठुर हो<br>
भूत जानती हो तुम मेरा<br>
और जानती कल भी मेरा<br>
रखती खबर तुम वर्तमान की<br>
फिर भी नहीं इसारे करती<br>
कि क्या था उचित और अनुचित क्या<br>
मूढ.मति मैं गिरता खाईं, फिर भी<br>
नहीं  कभी तुम बनी सहारा<br>
निर्लिप्त भाव से खड़ी किनारे<br>
रही देखती मेरी लाचारी<br>
कुछ तो रहम और मदद दिखाती<br>
पर है मालूम मुझे तुम निस्पृह<br>
दुख से मेरे सुख से मेरे<br>
क्या मैं उचित हूँ अनुचित करता<br>
कब क्या मोड़ कहाँ मिल जाता<br>
क्याँ हूँ तब मैं रस्ता  चुनता<br>
तुम ना कुछ लेती ना कुछ देती<br>
मैं वहीं काटता जो मैं बोता।<br>
क्योंकि ,<br>
निस्पृह सी, निष्ठुर सी<br>
परंतु सत्य न्याय की प्रतिमूर्ति, आराध्या सी, <br>
तुम मेरी हमसाया सी मेरी 'जिंदगी ' हो ।   <br>
©देवेंद्र</p>
देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-37294283229353963392015-11-01T20:30:00.001+05:302015-11-01T20:30:02.314+05:30जनाब मुनव्वर राणा साहब! अफसोस आप भी बेगाने, दोहरे मापदंडों वाले ही निकले.... <p dir="ltr">कल शाम एबीपी न्यूज चैनल पर जनाब मुनव्वर राणा जी की उनके द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाये जाने के बाबत प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी जिसकी एंकरिंग देवांग कर रहे थे। </p>
<p dir="ltr">आजकल चूंकि अधिकांश टीवी चैनल खुले तौर पर मोदी सरकार के विरुद्ध अभियान चलाये हुए हैं इसलिए यह कहना कठिन है कि टीवी चैनल की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस पुरस्कार लौटाने के बाद मुनव्वर राणा की बिगड़ती छवि को वापस सुधारने, उनको हीरो शायर के रूप में वापस स्थापित करने हेतु प्रायोजित थी अथवा यह एक सामान्य समीक्षा हेतु मात्र प्रेस कॉन्फ्रेंस ही थी, क्योंकि मुनव्वर राणा जी ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा भी बड़े प्रायोजित तरीके से ही कुछ दिन पहले इसी चैनल पर ही की थी। </p>
<p dir="ltr">पिछले हफ्ते भी इसी चैनल पर लेखक साहित्यकारों की एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित हुई थी जिसमें आर यस यस चिंतक राकेश सिन्हा जी सरकार और आर यस यस की ओर से पक्ष रख रहे थे जहां बामपंथी विचारधारा के साहित्यकारों का समूह उनको और सरकार /आर यस यस को घेरने और पिनडाउन करने की बराबर कोशिश कर रहा था।</p>
<p dir="ltr"> कई बार ऐसा अनुभव होता है कि हमारे देश में बुद्धिजीवी वर्ग, विशेषकर बामपंथी विचारधारा के चिंतक, साहित्यकार, राजनेता इतना बौद्धिक अहंकार में रहते हैं कि उन्हें बाकी सभी अन्य विचारधाराएं नीच, गौड़ और अछूत लगती हैं, अपने अलावा उन्हें बाकी अन्य सभी विचारधारायें, विशेषकर राष्ट्रीयता और हिन्दुत्व की बात करने वाले अन्य बुद्धिजीवी और साहित्यकार या आरएसएस से सहमत लोग, बौद्धिक रूप से दरिद्र,अयोग्य, तर्कहीन और तुच्छ लगते हैं और अपने इस बौद्धिक अहंकार में उन्हें राष्ट्रहित की जुड़ी बातें भी कूड़ेदान में फेंकने में कोई गुरेज नहीं रहता। </p>
<p dir="ltr">कह सकते हैं कि देश की आजादी के बाद बामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवी, साहित्यकार व राजनेता इस देश के नये ब्राह्मण बन गये जिनकी हर सोच हर विचारधारा उन्हें सर्वोपरि, यहां तक कि राष्ट्र हित से भी ऊपर लगती है । तभी तो कम्युनिस्ट पार्टी के अहंकारी नेताओं ने आजादी से पूर्व में ही कांग्रेस पार्टी से अपने मतभेद और असहमति के कारण भारत के बंटवारे और मुस्लिमवर्ग के लिए अलग देश पाकिस्तान बनाने के लीगी प्रस्ताव को अपना पूरा, नैतिक और सक्रिय, समर्थन दिया। और आजादी के बाद भी सन् 1962 में जब चीन भारत का मानमर्दन कर रहा था, उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक चिंतक ' दिल्ली दूर, पेकिंग नजदीक ' का जुमला उछाल रहे थे। इस प्रकार कम्युनिस्ट विचारधारा के लिए देश हित सदा गौण रहा है, उन्हें तो मात्र देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा पर वर्चस्व और नियंत्रण से ताल्लुक रहा है, भले ही उसके लिए देश में उन्हें कितनी अशांति पैदा करनी पड़े, मारकाट मचानी पड़े, देश अस्थिर हो, विखंडित हो। चूँकि कांग्रेस पार्टी जो सदैव सत्ता और इसकी दलाली के कार्य में ही लिप्त रही, उनका अपना कोई बौद्धिक चिंतन था ही नहीं और न ही कभी यह उनके प्राथमिकता में ही रहा, और आर यस यस से दूरी बनाकर रखना अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने की राजनीतिक विवशता और मजबूरी रही, अतः अपने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विचारधारा और चिंतन हेतु वे पूर्णरूपेण बामपंथियों की भिक्षा और बैसाखी पर निर्भर रहे। </p>
<p dir="ltr">जब हम इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ने आये तो हमारे कुछ नजदीकी सीनियर जो वामपंथी विचार धारा की छात्रयूनियन से जुड़े थे, उनसे प्रेरित होकर उनकी गतिविधियों में घूमते, पोस्टर चिपकाते, सेमिनार भाषणों में भाग लेते,वहां आजाद, बिस्मिल, भगत सिंह की जोश भरी बातें कोट की जाती थीं, मजदूरों, गरीबों, कमजोर लोगों की तकलीफ की बात की जाती, सिस्टम बदलने की बात की जाती, दुष्यंत कुमार, मुनव्वर राणा और तमाम अक्लियत की बात करने वाले शायरों लेखकों के जोश दिलाने वाले कथन, शेर, नज्म दोहराये जाते, सब कुछ बड़ा जज्बा बडा़ जोश देता, उस समय हमें यही लगता कि हमारे ताकतवर भारत, हमारे खुशहाल भारत की यही सोच होनी चाहिए, इसके लिए सड़े हुए और भ्रष्ट वर्तमान सिस्टम को पहले बदलना होगा जिसमें कोई मजहब नहीं, कोई जाति नहीं, केवल भारतीय होंगे, कोई गरीब नहीं होगा, कोई भूखा नहीं सोयेगा , सबके पास रोजगार होगा, काम होगा,उन्नत और गौरव मयी भारत, स्वाभिमान युक्त हमारी अपनी सोच वाला भारत होगा! </p>
<p dir="ltr">इन्हीं युवा सपनों को लेकर आगे इंजिनियरिंग कालेज गये, फिर सरकारी नौकरी में आये परंतु युनिवर्सिटी के शुरुआती दिनों में मन में पड़े भारतीयता के बीज सदा पोषित और समृद्ध होते रहे, हालांकि 1990 के मंडल आंदोलन, बनारस के सांप्रदायिक दंगों में कुछ अभिन्न मित्रों के वास्तविक सोच और स्वरूप को देखकर अपने जाति और धर्म से परे भारतीयता की व्यापक सोच और दृष्टिकोण रखने वाले मन को ठेस भी पहुंची, मन को नये सत्य, नयी वास्तविकताओं, नये आयामों से साक्षात्कार और परिचय हुआ परंतु व्यापक भारतीयता की यह सोच मन में कमोबेश स्थायित्व के साथ सदैव बनी रही, और आज भी उसी तरह कायम है ।</p>
<p dir="ltr">मन के इसी व्यापक भारतीयता के स्थायित्व के हिस्से मुनव्वर राणा साहब भी बने रहे। इसीलिए इलाहाबाद में मेरी पोस्टिंग के दौरान राजभाषा दिवस पर आयोजित कवि-सम्मेलन में जब मुनव्वर राणा साहब का व्यक्तिगत रूप से दर्शन का सौभाग्य मिला, उनको अपने सामने खुद उनके द्वारा ही वह शेर , जिन्हें कालेज में हम दुहराया करते थे, पढ़ते पाया, उन्हें सम्मान प्राप्त करते देखा तो खुशी का ठिकाना नहीं था। जिसे आप मन से सम्मान देते हों उसे सामने सम्मानित होते देखकर मन में वैसी ही अंतरंग खुशी अनुभव होती है जैसे स्वयं को ही पुरस्कार मिला हो! मुनव्वर राणा मन में उस शायर की छवि लेकर सदैव बने रहे जो मजहब से ऊपर उठकर एक मुसल्लम भारतीय है! </p>
<p dir="ltr">हमारे कई यार दोस्त जो आज देश विदेश में रहते हैं वे भी मेरी तरह मुनव्वर राणा जी के जबर्दस्त चाहने वाले रहे हैं, हम सब मुनव्वर राणा जी की तमाम नज्में, शेर अक्सर एक दूसरे से अपने व्हाट्सअप ग्रुप में साझा करते रहे हैं। शायद मुनव्वर राणा साहब को अहसास भी होगा कि नहीं कि उनके चाहने वालों की अधिकांश जमात उनके अपने मजहब से बाहर के, हम जैसे लोगों की ही होगी न कि सिर्फ उनके अपने मजहब से ताल्लुक रखने वाले लोगों की! <br>
एक राजनीतिक सोचे समझे एजेंडा के तहत कुछ साहित्यकारों, लेखकों, जिनकी आस्था और स्वामिभक्ति कुछ राजनीतिक दलों से जुड़ी हुई हैं, द्वारा शुरू किए गए मोदी और वर्तमान केंद्र सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार और शुरु हुये प्रोपोगंडा के अंतर्गत शुरू किए गए पुरस्कार लौटाने के तमाशे में जब मुनव्वर राणा साहब भी शामिल हो गए, वह भी एक टीवी चैनल के प्रायोजित प्रचार प्रसार के साथ तो अपने मन में उनके प्रति कायम आस्था को बड़ा झटका लगा, और मन में यही निराशा हुई कि अफसोस! यह जनाब भी औरों की ही तरह असल में दोहरे चेहरे, मापदंड और आवरण ओढ़े ही निकले, जिनकी शायरी में हमें सच्चाई, मुफलिसों की तकलीफ,जिसकी बातों और शायरी में अक्लियत की हलकानी शिद्दत से अनुभव होती थी, वह बस एक खाली डिब्बा मात्र निकला, जो उसे बजाने वाले उंगलियों के थाप के इशारे के मुताबिक बस बजता, आवाज करता है, उसकी निजी सोच, निजी अनुभूति कुछ भी नहीं है , वह तो बस औरों की ही तरह ही किसी मदारी के इशारे पर नाचने वाला मात्र जमूरा भर है! अभी तक जो व्यक्ति हमारे हृदय में दुष्यंत कुमार के साथ बैठा हुआ था, शिद्दत के सम्मान के सम्मान के साथ आसीन था, उसके वास्तविक चरित्र और रूप को आज अनुभव करके वह आज अपने हृदय और आस्था से कोसों दूर दिखता है, जिस व्यक्ति की आंखों में पंद्रह साल पहले सामने देखते भाईचारे, दोस्ताने और एक निर्भीक शेर कहने वाले शायर और सच्चे भारतीय की चमक दिखी थी, कल टीवी चैनल पर उसके द्वारा बोलते हुए, लोगों के सवालों के जवाब देते मीचमिचाती, लोगों की निगाहों से नजर चुराती, धूमिल, किसी एजेंडे, गुपचुप मकसद से भरी नजर आ रही थीं। </p>
<p dir="ltr">मुनव्वर राणा साहब! आपको शायद आभास भी नहीं होगा कि मेरे जैसे तमाम आपके चाहने वालों के विश्वास और उनकी आपके प्रति भारतीयता की आस्था को आपने किस तरह की चोट पहुंचाई है! आपके टीवी पर आयोजित बड़े प्रचार प्रसार के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने के किये गये तमाशे का मकसद,एजेंडा क्या है,और यह किसके इशारे पर आपने किया है, यह आप स्वयं ही बेहतर जानते और समझते होंगे परंतु इतना अवश्य कहना चाहता हूं कि मैं भी इस देश का ही नागरिक हूँ, इसी देश में ही रहता हूँ, मुझे तो ऐसा कहीं कोई अप्रत्याशित वातावरण नजर नहीं आता कि जिससे देश का अमन चैन धार्मिक सद्भावना बिगड़ रहा हो, या इस तरह के किसी खराब माहौल बनाने में केंद्र सरकार और मोदी जी का कोई योगदान हो रहा है। मन में विचार तो आ रहा है कि आपको ध्यान दिलाऊं कि हाल में जो देश में एक दो दुर्भाग्यपूर्ण घटनायें हुई है, जिनमें दादरी में अख्लाक की घटना सबसे संगीन और दुर्भाग्यपूर्ण है, उनके लिए स्थानीय प्रशासन और संबंधित राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं, जिनसे आप खुद बहुत नजदीकी ताल्लुकात रखते हैं , उनसे गाहे बगाहे सम्मान पुरस्कार लेते रहते हैं,उनके हाथों सम्मानित होते रहते हैं, न कि इन घटनाओं हेतु जिम्मेदार केंद्र सरकार और मोदी जी हैं ! </p>
<p dir="ltr">जनाब मुनव्वर राणा साहब! आपने अपनी शायरी में भारतीयता, धार्मिक सद्भावना की बात हमेशा की है और इसीलिए आप हमारे चहेते शायर रहे हैं, मगर दादरी के मसले पर आप जिस तरह अपना पुरस्कार लौटाकर टीवी पर प्रायोजित कार्यक्रमों में भावनात्मक प्रतिक्रिया भारत सरकार के विरुद्ध अभिव्यक्त कर रहे हैं, उसका एक अंश भी अगर आप 84 के सिख जिनोसाइड की जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी और उसके मुखिया राजीव गांधी और उनके परिवार के खिलाफ व्यक्त किये होते, 93 के आतंकवादियों के मुंबई ब्लास्ट में मारे गए निर्दोष नागरिकों की हत्या के लिए जिम्मेदार विदेश में बैठे डॉन महोदय, जिनके मजहब, नाम और काम से आप सर्वथा सुपरिचित हैं, के खिलाफ कभी कहे होते , या कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पंडित भाइयों की पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा जघन्य हत्याओं के खिलाफ अभिव्यक्त किये होते , उनके बहू बेटियों के सरेआम अगवा और बलात्कार के खिलाफ अपनी जुबान खोलते, इसी तरह की पीड़ा और दुख जताते तो मैं निश्चय ही मान लेता कि आप एक सच्चे इंसान, सच्चे शायर जो तकलीफजदा इंसानों के दर्द को समझते हैं और वही अपनी शायरी में सच्चाई से, बिना लागलपेट के कहते हैं, मैं आपके इस दुख और अभिव्यक्ति के क्षणों में साथ खड़ा होता, आपके इस पुरस्कार लौटाने के कदम की खुली प्रशंसा करता, बंगलौर से लखनऊ आकर आपको सादर प्रणाम करता, वरना तो हुजूर आपकी सारी शायरी, उसका सारा बयान फक्त एक लफ्फाजी मात्र लगती है। </p>
<p dir="ltr">जनाब! मैं जानता हूँ कि आपसे कोई सत्य, कोई तथ्य कहना सर्वथा निरर्थक है क्योंकि जिसे सच्चाई और परिस्थिति की जानकारी नहीं हो उसको कुछ कहा बताया जा सकता है, परंतु जो एक महान शायर हो, जो हर पहलू को गहराई से, शिद्दत से समझता हो परंतु सब कुछ जानते हुए भी सच्चाई की अनदेखी कर रहा हो, जिसके मन में किसी राजनीतिक पार्टी और विचारधारा से असहमति मात्र होने के कारण अपने मन के अहंकारवश उनके प्रति व्यक्तिगत दुराव हो , जिसकी अपने देश और समाज के प्रति भावना और जिम्मेदारी की प्राथमिकता के बनिस्बत उसकी व्यक्तिगत राजनीतिक और मजहबी पसंद नापसंद ज्यादा महत्व और मायने रखती हो, जो किसी और के राजनीतिक स्वार्थ और एजेंडे पर काम कर रहा हो,इस्तेमाल किया जा रहा हो, उससे कुछ कहना सुनना निष्प्रयोजन ही है, सिर्फ बेमानी ही है ।</p>
देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-45758505244438864522015-09-12T21:08:00.001+05:302015-09-12T21:40:28.431+05:30मालती लता <p dir="ltr">(स्केच नंबर १०)</p><p dir="ltr">हे मालती लता! <br>
तुम सुंदर यौवना सदृश, <br>
अपनी कटि को कुछ लचक दिये, <br>
अल्हणपन यौवन को लिए हुए <br>
तनी खड़ी हो थी , मतवाली बाला की जैसी! </p>
<p dir="ltr">तेरी सुंदरता के सम्मोहन से <br>
जो समीप मैं तेरे आऊं, और नजदीक से तुझे निहारूं, <br>
तो हूं पड़ता आश्चर्य बहुत मैं <br>
कि कौन सा जादू तेरी सुंदरता में ऐसा <br>
छिपा हुआ तुझे इतना बल देता <br>
जो तुम खड़ी, तनी अल्हड़ युवती सी <br>
जबकि तना तुम्हारा कोमल, कितना कृषतन! <br>
और डालियाँ तेरी कितनी लतर मुलायम! <br>
और ऊँचाई उनकी है अति लघु, <br>
ऊपर से तेरे मतवाले यौवन के खिलते <br>
फूलों के अति भार से भी यह लदी हुई हैं! </p>
<p dir="ltr">तेरा अपने आप इसकदर तनकर खड़ा यूं रहना, <br>
चमत्कार से यह क्या फिर कोई कम दिखता है? <br>
दरअसल जिस लकड़ी या तार या पेड़ के तने के सहारे <br>
हे मालती लता! तुम खड़ी हो दिखती, <br>
उसको अपने प्रेमपाश में कुछ इस तरह स्वयं के कोमल तन से, <br>
और लदकते अपने गुलाबी फूलों से आगोशित, इस कदर घेर लेती हो <br>
कि तेरा संबल दूर से नहीं अलग कहीं नजर है आता, <br>
दिखती हो सिर्फ तुम और तुम्हारा सौंदर्य, हे मालती लता ! <br>
और तेरा संबल तेरे सौंदर्य में ही आत्मसात, छिपा, खोया रहता है। </p>
<p dir="ltr">करता होगा कोई वृक्ष गुमान अपने मजबूत तने पर, <br>
और अपनी नैसर्गिक मजबूती, खड़े होने की ताकत देते अपने तने पर, <br>
शायद करता भी हो उपहास तुम्हारा<br>
कि तुम हो कितनी कमजोर, और तुम्हारे स्वयं खड़ा हो पाने की अक्षमता पर <br>
मगर हे मालती लता! तुममें और एक मजबूत वृक्ष में कुदरती फर्क है ! <br>
और यही फर्क ही मालती लता तुम्हारा अद्भुत सौंदर्य है । </p>
<p dir="ltr">लोग समझते होंगे, कहते होंगे कि तुम कितनी कमजोर और लुंजपुंज हो! <br>
अपने -आप इंच दो इंच भी न ऊपर उठ सकती हो! <br>
मगर सहारे को अपने तुम देकर पूरा मान स्नेह, <br>
उसको अपने तन मन को अर्पित कर, आगोशित कर,<br>
ऊपर चढ़ जाती हो, चढ़ती ही रहती हो, इठलाते तनते<br>
मगर तुम्हारा बलखाना, इठलाना यह <br>
नहीं कोई है दर्प तुम्हारे मन के अंदर, <br>
यह तो बस तेरी प्रेम भावना, है यह तो आभार प्रदर्शन <br>
जो तुम अपने संबल को अपनी कृतज्ञता से <br>
आजीवन, अपनी अंतिम सांसो पर चुकता करती हो |</p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र </p>
<p dir="ltr">फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-IfEpf0cu07A/VfRG1kV74cI/AAAAAAAAOdY/iMydnsLN4o0/s1600/FB_IMG_1442065442191.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-IfEpf0cu07A/VfRG1kV74cI/AAAAAAAAOdY/iMydnsLN4o0/s640/FB_IMG_1442065442191.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-12424963219702247472015-09-11T21:46:00.001+05:302015-09-11T22:17:10.755+05:30कच्चे अमरूद <p dir="ltr">(स्केच नंबर ९)</p><p dir="ltr">कच्चे ताजे अमरूद रहे हैं साथी अपने बचपन से,पसंद हम सबके, <br>
चाहे घर के बागीचे में मां के रोपे हुए पेड़ की टहनी पर वे हों लदके, <br>
या स्कूल के रास्ते में बुढ़िया दादी के घर के बागीचे में वे हों लटके, <br>
या स्कूल के प्रांगण में अपने रेसस के टाइम कच्चे अमरूदों को पेड़ों से हम तोड़ा करते, <br>
या फिर रेलवे के अपने बंगलें के बागीचे के पेड़ों पर कच्चे हरे सजीले दिखते। </p>
<p dir="ltr">उम्र हो गई, फिर भी जो देखें फुटपाथों पर ठेले पर सजे हुए इनको हरे हरे और ताजे, <br>
मुंह में पानी आ जाता, खुद को रोक न पाते, दो-चार छांटते खरीदते खाते, <br>
इनको फांकों में काट, लगाकर नमक मशाले, जो इनको खाते <br>
लाजबाब यह लगते, इनके स्वाद की तुलना क्या है कोई और कर पाते? </p>
<p dir="ltr">कच्चे यह अमरूद होते हैं बड़े कसैले, जो दांतों से काटें खायें, <br>
मगर चबाते बड़े रसीले लगते हैं जितने खट्टे उतने ही हैं मीठे होयें, <br>
मानो वह खुद के अंदर जीवन का दर्शन सारा हो लिये समेटे <br>
कि जीवनपथ पर ऊंचनीच के अनुभव, होते हैं प्रथम बहुत कड़वे और कसैले, <br>
मगर वही अनुभव कल बनते, आगे चलकर अपने सच्चे साथी, मीठे फल देने वाले, <br>
सही सबक हैं देते , विश्वास, आत्मबल, और जीवन में मनोबल बढ़ाने वाले। </p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र दत्त मिश्र <br>
फोटोग्राफ श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-SfWMvChWLsM/VfL_iwkSxUI/AAAAAAAAOb0/91V_Tutr_DQ/s1600/FB_IMG_1441988380463.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-SfWMvChWLsM/VfL_iwkSxUI/AAAAAAAAOb0/91V_Tutr_DQ/s640/FB_IMG_1441988380463.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-37964725843589835652015-09-10T23:19:00.001+05:302015-09-10T23:19:29.943+05:30परमवीर अब्दुल हमीद के शहीद दिवस पर उन्हें हार्दिक नमन.... <p dir="ltr">सननन गोली चले चले बम गनवा हो<br>
सुनि के करेजा धड़के ला परनवा हो </p>
<p dir="ltr">पाक नाहीं पाकी कइलस <br>
देश साथ घात कइलस <br>
चोरी चोरी बॉडर लंघलस<br>
घुसपैठी हमला कइलस <br>
डोंगराई क्षेत्र रहल बारिश क महीनवा हो <br>
सनसन... </p>
<p dir="ltr">अब्दुल हमीद जइसन देश क पहरेदार रहलन <br>
तन मन दिल से ऊ त भारतमां क लाल रहलन <br>
छाती में गोली लागत तब्बौ मोर्चा नाहीं छोड़लन <br>
हाथ हथगोला से ही पैटनटैंक उड़ाइ देहलन <br>
देशवा के शान खातिर देलेन आपन जनवा हो <br>
सननन.... </p>
<p dir="ltr">जय हो बहादुर अब्दुल तोहसे देशवा निहाल भइल<br>
तोहरे जनम लेहला से माटी गाजीपुर क तरि गइल<br>
अमर हउअ सबके दिल में बस देहियां शहीद भइल<br>
तोहरे बहादुरी क गाथा, हर भारतीय हरदम गाइल <br>
नाम तोहार रही अमर जब तक रही ई देशवा हो<br>
सननन.. .... </p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र दत्त मिश्र </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-llVspv9Pmh8/VfHCp6uizOI/AAAAAAAAOZY/L732_fgVqTI/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-llVspv9Pmh8/VfHCp6uizOI/AAAAAAAAOZY/L732_fgVqTI/s640/images.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-89126059661773762212015-09-10T22:25:00.001+05:302015-09-10T22:25:54.237+05:30शिक्षक!स्वयं सिद्ध और निर्भय करता! <p dir="ltr">(पटरी और चक्का - स्केच - 3)</p>
<p dir="ltr">कितने लुंजपुंज से सिमटे <br>
घोसले के तिनकों में दुबके <br>
मां जो चुन कुछ चारा लाती<br>
बस उस अवलंबन पर पलते। </p>
<p dir="ltr">कितने नाजुक रेशम रोमित, <br>
तेरे पंख अभी अविकसित <br>
जग से नभ से पूर्ण अपरिचित<br>
क्या उड़ान यह भान न किंचित । </p>
<p dir="ltr">एक सुबह,जब नहीं ठीक से <br>
थीं आंखे तेरी खुलीं नींद से <br>
मां ने तुमको चोंच उठाया, <br>
छोड़ दिया हवा में ऊंचे से। </p>
<p dir="ltr">तुम घिघियाते, चिंचीं करते, <br>
लगे बिलखने हवा में गिरते, <br>
भय से मन और प्राण सूखते, <br>
था नहीं पता कि कैसे उड़ते।</p>
<p dir="ltr">अंदेशा, गिरने की बारी, <br>
संघर्षों के पल थे भारी, <br>
नहीं जानते पंख फैलाना, <br>
फिर भी उड़ना थी लाचारी। </p>
<p dir="ltr">मगर अचानक चमत्कार यह, <br>
पंख कुशल गतिमय हो जाता, <br>
खामखाह डरता था कितना, <br>
वह पक्षी अब खुलकर उड़ता। </p>
<p dir="ltr">पक्षी तेरा वह शिक्षक अनुपम , <br>
जो डर के आगे विजय दिलाता, <br>
नभ में खुला धकेलकर तुमको, <br>
स्वयं सिद्ध और निर्भय करता! </p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र <br>
फोटोग्राफ - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-jnX7MuPa4lE/VfG2Fw831KI/AAAAAAAAOYw/GrVq4ntMDno/s1600/FB_IMG_1441904078708.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-jnX7MuPa4lE/VfG2Fw831KI/AAAAAAAAOYw/GrVq4ntMDno/s640/FB_IMG_1441904078708.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-88264850717180302162015-09-10T22:19:00.001+05:302015-09-10T22:19:55.081+05:30पत्र की ममता बनती
पुष्प के जीवन का कवच अलौकिक .. <p dir="ltr">(स्केच नंबर - 4)</p>
<p dir="ltr">हे नाजुक, कोमल पुष्प! <br>
मेरे अंकों में जब हुए प्रस्फुटित तुम जिस क्षण <br>
बनकर मेरे आत्मज, सार्थक हुई मेरी ममता, रोम-रोम हुआ आह्लादित, अंग का हर कण! <br>
तेरी कोमल पंखुड़ियों से करके स्पर्श <br>
मेरे शरीर का रोम रोम रोमांचित है हो उठता, <br>
तनिक पवन जो गुजरे भी मेरे अंकों से, <br>
तुम हिलते,कुछ सहमे से रोमांचित हो उठते <br>
मेरे अंकों में  लिपट चिपट हो जाते <br>
मैं भर तुमको अपने अंकों में, लेकर तेरी सभी बलायें <br>
करता तुमको आश्वस्त, तुम्हें मन ही मन देता यह दुआ सदा कि <br>
लगे तुम्हें यह उम्र मेरी यह, बढ़े, पले तू खूब, लाल तुम जुगजुग जीये <br>
जो भी कोई तेज धूप की किरणें दिखतीं तुमको छूते <br>
मैं राहों में छाया बनते तुम्हें बचाऊं कुम्हलाने से <br>
मगर हृदय में एक हूक यह भी उठ जाती यदाकदा <br>
डर जाता यह कि तुम कितने कोमल हो,  नाजुक हो कितने! <br>
समय ढल रहा, क्रमश:मेरे पांव और अंक थकते हैं, <br>
जब वे होंगे शक्तिहीन कैसे कर पाऊंगा मैं तेरा रक्षण<br>
लेते प्रतिपल तेरे सिर की सभी बलायें <br>
मन हो जाता कभी व्यग्र और हो अति व्याकुल <br>
प्रिय तेरी चिंता में, तेरे भविष्य की आशंका में <br>
मगर मेरी ममता,  स्नेह की शक्ति निहित मेरे अंतर्उर में तेरी खातिर <br>
बनकर मेरी शक्ति हृदय की मन को यह विश्वास सहज दे देती है <br>
कि जिस अमर शक्ति की परम कृपा से बनकर अमूल्य वरदान तुम हे लाल! मेरे जीवन में आये <br>
वही शक्ति देगी सदा कृपा और अपना संरक्षण <br>
तुमको चिरायु रखेगी देकर अपना पोषण <br>
यह अदृश्य उस परमशक्ति का विश्वास अटल ही <br>
मुझको तुममें निज भविष्य के संरक्षित होने का अचल आश्वासन है देता। </p>
<p dir="ltr">-देवेंद्र <br>
फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-ptq8R8Ws8w4/VfG0sJkLBYI/AAAAAAAAOYg/1bTeFX2vlMQ/s1600/FB_IMG_1441903411610.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-ptq8R8Ws8w4/VfG0sJkLBYI/AAAAAAAAOYg/1bTeFX2vlMQ/s640/FB_IMG_1441903411610.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-8610535738404962682015-09-10T21:55:00.001+05:302015-09-10T21:55:22.979+05:30चोट कहीं और दर्द कहीं..... <p dir="ltr">(स्केच नंबर १)</p>
<p dir="ltr">ऐ तेज हवाओं! <br>
माना तेरी तो यह फितरत ही है <br>
कि एक सूखे पत्ते को उड़ा देना और पटकना! <br>
मगर अपने इस खिलंदड़ेपन में <br>
बस इतनी सी इंसानियत और जज्बात <u>रखना</u> कि <br>
इस सूखे पत्ते के हालात को देखकर <br>
उस टहनी की आह और ऑसू तो न निकलें! <br>
जिसका यह कभी हिस्सा, लाडला और दुलारा हुआ करता था!</p>
<p dir="ltr">फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-iMJkI0wpvUk/VfGu8PU_BuI/AAAAAAAAOX4/KMH8S9sEy8I/s1600/FB_IMG_1441902106029.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-iMJkI0wpvUk/VfGu8PU_BuI/AAAAAAAAOX4/KMH8S9sEy8I/s640/FB_IMG_1441902106029.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-6481661059160513492015-09-10T21:48:00.001+05:302015-09-10T21:48:50.103+05:30चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की!<p dir="ltr">चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की! <br>
(स्केच न. २)</p>
<p dir="ltr">कितना उदास सा होता है, <br>
चांद का यह अकेला सफर! <br>
सब कुछ सोया हुआ, <br>
खामोश गुमनामी में खोया हुआ! <br>
क्या आसमान क्या धरती <br>
क्या पेड़ और क्या पक्षी <br>
क्या नदियां क्या पहाड़<br>
क्या मैदान और क्या बीहड़ <br>
मगर चांद जागता है, रात भर चलता है <br>
क्या ठंडी, क्या गर्मी यात्रा पूरी करता है <br>
चाहे अमावस का हो अंधेरा या पूनम का उजाला, <br>
मंदिर का सोया शिखर, या रास्ते में जागती मधुशाला <br>
कभी आहट से, कभी सरपट से <br>
चलता है, कभी इस क्षितिज से कभी उस क्षितिज से <br>
कभी सागर के इस पार, कभी उस पार <br>
रास्ते में क्या फूल और क्या खार<br>
कहता है अपनी खामोशी में, चलने का संकल्प है <br>
क्या फर्क यह कि निर्धारित यह यात्रा दीर्घ या अल्प है। <br>
-देवेंद्र </p>
<p dir="ltr">फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh द्वारा</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-gc-JBMbKbCY/VfGtZzujDWI/AAAAAAAAOXc/IX_F7exz0nU/s1600/FB_IMG_1441901765485.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-gc-JBMbKbCY/VfGtZzujDWI/AAAAAAAAOXc/IX_F7exz0nU/s640/FB_IMG_1441901765485.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-6421121850124143982015-09-10T20:29:00.001+05:302015-09-10T21:56:38.628+05:30आंवले का पेड़ <p dir="ltr">(स्केच नंबर ८)</p><p dir="ltr">बचपन में, यदा कदा दीवाली की लंबी छुट्टी में, </p><p dir="ltr">मैं मां के संग अपनी नानी के घर जब जाया करता, </p><p dir="ltr">तो दीवाली के कुछ दिनों बाद वह ले जाती थी हमको, </p><p dir="ltr">गांव के पास के आंवले के बगीचे में खाने पीने का सामान सजाकर, </p><p dir="ltr">यह कहते कि आज वही बगीचे में ही दिन का खाना खाना है । </p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">पैदल जाते रास्ते भर मैं कितने सवाल मां से, नानी से पूछा था करता, </p><p dir="ltr">कहां जा रहे, क्यों जा रहे,आज भला क्यों दिन का खाना</p><p dir="ltr">हम सब खाते हैं खुले बगीचे में बैठे, और आंवले के पेड़ो के नीचे?</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">नानी धीरज रखते मुझको बतलाया करती थी,</p><p dir="ltr">कि कार्तिक का यह आज शुक्ल पक्ष नवमी तिथि है,</p><p dir="ltr">पवित्र बड़ा यह दिन, इसे आंवला नवमी भी कहते हैं, </p><p dir="ltr">और आज आंवले के पेड़ों के नीचे भोजन करने से, </p><p dir="ltr">पुण्य बड़ा होता है,मिटते सब दुख दारिद्य,रोग व्याधि </p><p dir="ltr">और विद्या,बल, बुद्धि, स्वास्थ्य,धन सुख बढ़ता है।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">नानी बतलाती आज आंवले के वृक्षों में , </p><p dir="ltr">धन्वंतरि हैं प्रविष्ट स्वयं होते, इसके फलपत्तों से अमृत बांटते, </p><p dir="ltr">और देववैद्य अश्विनीकुमार हवा के संग बहते उपवन में </p><p dir="ltr">आंवले की छाया में दिनभर आज स्वास्थ्य बल देते।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">नानी की बातें कुछ पल्ले पड़तीं कुछ सिर से ऊपर जातीं, </p><p dir="ltr">मगर हमारे पग में जल्दी वहां पहुंचने की उमंग और गति मिल जाती।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">वहां बड़ा मेला सा रहता, बड़े, युवा और ढेर से बच्चे, </p><p dir="ltr">जगह जगह जलते थे चूल्हे, भोजन की तैयारी करते , </p><p dir="ltr">अलग अलग सब अपनेअपने जात-पात के झुंड बनाते </p><p dir="ltr">अलबत्ता बच्चे मिल खेले,नाम न जानें, ना जाति पूछते।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">लकड़ी के चूल्हे पर पकाती मां नानी संग चटपट खाना, </p><p dir="ltr">और हम बच्चे बड़े मजे से , चादर पर बैठे पंक्ति से </p><p dir="ltr">गरम गरम पूरी तरकारी, खाते छककर और मनमाना, </p><p dir="ltr">भोजन के अंत सभी चाभते खीर मिठाई दोना दोना।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">भोजन को निपटाकर मां नानी बर्तन और कपड़े समेटते, </p><p dir="ltr">ढलता दिन, और थकीं काम से, घर वापस की तैयारी करते, </p><p dir="ltr">तब हम बच्चे धमाचौकड़ी करते अपने खेल पुजाते,</p><p dir="ltr"> इधर दौड़ते, उधर दौड़ते, मुश्किल से वापस घर को कदम बढ़ाते।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">और लौटते रास्ते, बरबस मुड़ते तकते जो उपवन को , उन पेड़ों को, </p><p dir="ltr">ऐसा अनुभव होता कि वह दे रहे आशीष वचन हैं हमको, </p><p dir="ltr">कि बच्चे तुम चिरायु हो, खुश हो, स्वस्थ रहो, पढ़ो, बढ़ो, उन्नति हो तेरी, </p><p dir="ltr">इसी तरह तुम आते रहना, तेरे जीवन में सब शुभ हो, मिलती रहेगी ममता मेरी।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">आंवले के उपवन के इन आशीष वचन में </p><p dir="ltr">वही वात्सल्य, प्रेम, ममता अनुभव होती थी। </p><p dir="ltr">जो नानी के मेरे सिर पर हाथ फेरते हौले से, </p><p dir="ltr">उसकी आंखों में मुझको ममता दिखती थी।</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">-देवेंद्र दत्त मिश्र</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr">-फोटोग्राफ Shri Dinesh Kumar Singh द्वारा</p><p dir="ltr"><br></p><p dir="ltr"></p><p dir="ltr"><br></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-6HMhOwKSqKs/VfGkahdJUiI/AAAAAAAAOXE/AsjFuTN2zR4/s1600/FB_IMG_1441896872390.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-6HMhOwKSqKs/VfGkahdJUiI/AAAAAAAAOXE/AsjFuTN2zR4/s640/FB_IMG_1441896872390.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-19338500018334552962015-09-10T09:37:00.001+05:302015-09-10T09:37:05.902+05:30जो नीम नीम, वही है हकीम! <p dir="ltr">जो नीम नीम, वही है हकीम! </p>
<p dir="ltr">(स्केच नंबर ५) ७ सितंबर २०१५ </p>
<p dir="ltr">हरे भरे दिखते कितने तुम ,<br>
जो समीप वह छाया पाता। <br>
मस्त पवन संग मस्त झूमते ,<br>
सावन तुझको अंग लगाता। १।</p>
<p dir="ltr">सावन की बहती पुरवाई ,<br>
और ललनायें झूला झूलें।<br>
तेरी हर डाली मचल मचल,<br>
कजरी पचरा के गीत ढलें।२।</p>
<p dir="ltr">यूं दिखते हो सुंदर भावन ,<br>
जब लद जाते हैं पुष्प धवल।<br>
तव अंग अंग ऐसा सजता, कि <br>
मां दुर्गा का फैला हो आंचल ।३।</p>
<p dir="ltr">पर तेरी हरीतिमा सुंदरता ,<br>
है अंदर समेटे कड़वापन ।<br>
फिर निमकौली से सजते जब,<br>
तीक्ष्ण गंध असहज करती मन। ४।</p>
<p dir="ltr">मानव जीवन भी कुछ तेरे जैसा ,<br>
कितने कड़वेपन और सारे गम ।<br>
फिर भी हर अनुभव नयी सीख,<br>
जो नीम नीम, वही है हकीम ।५।</p>
<p dir="ltr">जो बाहर से मीठा लगता,<br>
वह अंदर से कड़वा होता ।<br>
जो देता ऊपर दर्द बहुत ,<br>
वह अंदर से है सुख दे जाता। ६।<br>
#Devendra Dutta Mishra </p>
<p dir="ltr">फोटोग्राफी - श्री Dinesh Kumar Singh द्वारा</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-yBS0hiIUNR8/VfEB59SaFJI/AAAAAAAAOWI/SwdAikMdP1Y/s1600/FB_IMG_1441645273694.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-yBS0hiIUNR8/VfEB59SaFJI/AAAAAAAAOWI/SwdAikMdP1Y/s640/FB_IMG_1441645273694.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773433501963473717.post-67858282644284736142015-09-10T09:32:00.001+05:302015-09-10T09:32:14.254+05:30कनेर के फूल..... <p dir="ltr">कनेर के फूल.... </p>
<p dir="ltr">(स्केच नंबर - ६)</p>
<p dir="ltr">याद आ गया आज अचानक, बचपन में <br>
गांव में घर के शिव मंदिर के पास, <br>
हमारे स्कूल के आने-जाने के रास्ते में <br>
खामोश खड़ा पीले कनेर फूलों का पेड़। </p>
<p dir="ltr">सुबह सजा, पीले पीले फूलों से वह लकदक था दिखता, <br>
और मंदिर में पूजा करने को शिवभक्त कई<br>
तोड़ रहे होते थे उन पीले फूलों को अति श्रद्धा से, <br>
फूलों को चुन रखते फूलों की पूजा डोलची में। <br>
वह कनेर का पेड़ दमकता दर्प लिए, मुख <br>
खिला, विहसता, खुशी-खुशी और कुछ गुमान से, सबको बांट रहा होता था पीले ताजे फूलों को,<br>
मानों मूल्यवान आभूषण राजा कोई दान दे रहा विप्रवरों को, <br>
क्यों न भला मन हो उसका अति उल्लासित, <br>
जब उसे पता कि उसके पीले पुष्प चढेंगे आदर से शिव के माथे पर। </p>
<p dir="ltr">दिन ढलते जब स्कूल से लौटते हम उसको तकते, <br>
तो अपने पीले फूलों से खाली, वह खड़ा वही दिखता कितना निस्पृह, खाली-खाली सा, <br>
मानों कोई नृप सारी निधि स्वयं लुटा बन गया हो संन्यासी और बैठा हो एकांत, शांत और ध्यानलीन सा। </p>
<p dir="ltr">मन उदास हो जाता था देख उसको मौन और गंभीर इस तरह, <br>
बोझिल मन, अपने नन्हे डग भरते हम गुजरते जब शिव मंदिर से , <br>
मन ही मन शिवजी से यही प्रार्थना करते कि —<br>
हे शिवजी! कनेर का पेड़ फिर हँस पाये , उसके पीले सुंदर फूल उसे वापस मिल जायें। <br>
सोते सोते यही सोचते होते क्या फिर से खुश हो पायेगा कनेर का पेड़ ,उसे वापस अपने पीले सुंदर फूल मिलेंगे? </p>
<p dir="ltr">और शिव जी बड़े दयालु, जैसे कि हैं जाने जाते, <br>
वास्तव जादू हो जाता , शिवजी हर रात दया कर देते थे, <br>
और सुबह हम जब स्कूल उसी रास्ते से जाते होते, <br>
वह कनेर का पेड़ पुनः ताजे पीले फूलों से लकदक था दिखता, <br>
और बांट रहा होता था फिर से उदारमन, उल्लासित चेहरे से <br>
अंजुलि भरभर अपने पीले फूल उन्हीं शिवभक्तों को । </p>
<p dir="ltr">ऐसा लगता वह हम बच्चों को विद्यालय आते जाते <br>
यही सीख देता था कि—<br>
जितना तुम बांटोगे औरों को अपनी निधियां, अपने धन<br>
उनसे कई गुना वापस पाओगे, वे वापस आयेंगी तेरी ही झोली में। <br>
जो स्वाभाविक गुण,सम्पदा तुमको मिलती हैं प्रकृतिदत्त, <br>
चमत्कार, जादू होता है उनको औरों को देने में, साझा करने में। <br>
Devendra Dutta Mishra</p>
<p dir="ltr">फोटो श्री Dinesh Kumar Singh द्वारा</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="http://lh3.googleusercontent.com/-X2mQjZ2g0JE/VfEAw9cAktI/AAAAAAAAOV8/WNSullYLm3c/s1600/FB_IMG_1441718151938.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="http://lh3.googleusercontent.com/-X2mQjZ2g0JE/VfEAw9cAktI/AAAAAAAAOV8/WNSullYLm3c/s640/FB_IMG_1441718151938.jpg"> </a> </div>देवेंद्रhttp://www.blogger.com/profile/13104592240962901742noreply@blogger.com0