अठारहवीं
शताब्दी के उत्तरार्ध व उन्नीसवी शताब्दी के प्रथम दो दशकों में तैलंग महाराज काशी में इतने
प्रसिद्ध थे कि काशी व तेलंग महाराज जी एक दूसरे के पर्याय स्वरूप जाने जाते थे, जैसे कि आदिकाल से ही काशी नगरी व बाबा विश्वनाथ एक दूसरे के
पर्याय हैं।
सच
है- जानत तुम्हहि , तुम्हहि होइ जाई।
कहते
हैं कि तैलंग महाराज छः फुट से भी ज्यादा कद के, तीन कुंतल से भी ज्यादा वज़न वाले
लम्बे-चौड़े भीमकाय शरीर के थे। वे काशी में ज्यादातर दसाश्वमेध घाट के आस-पास, और
विश्वनाथ मंदिर की गलियों में प्रायः शांत,गंभीर, ध्यानस्थ से गज की चाल से चलते दिख
जाते,किंतु वे न तो किसी की और देखते, न बात करते यहाँ तक कि रास्ते में जो लोग
उन्हे प्रणाम भी करते तो उसपर ध्यान न देते और अपने परिवेश की हर घटना व व्यक्ति
के प्रति उपेक्षित भाव लिये अपने में ही ध्यानमग्न रहते ।
रामकृष्ण परमहंस जी उनके प्रिय शिष्य व सखा थे, वे जब भी काशी आते ,दोनों साथ
रहते, समाधिस्थ हो जाते।उनकी साथ-साथ कई दिनों तक लम्बी समाधि व ध्यान-योग क्रिया चलती।
काशी
की परंपरा के मुताबिक तड़के भोर गंगा जी में दसाश्वमेध घाट पर डुबकी लगाने लोग पहुँचते तो तैलंग
महाराज गंगा की जलधारा के ऊपर पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे दिखते। सुनने में तो यह
आश्चर्यजनक लगता है पर प्रतिदिन ऐसे चमत्कार को सामने रोज घटते देख लोग इसके
अभ्यस्त से थे और उन्हे इसमें कोई आश्चर्य न दिखता और वे इसे सामान्य रुप से ही देखते ।
जैसे
ही प्रभात का उजाला बढ़ जाता और घाट पर स्नान करने वालों की संख्या बढ़ती और चहल-पहल
हो जाती, वे खामोशी से अपनी समाधि तोड़ जल के ऊपर
ही चलते नदी से बाहर निकल घाट की ओर बाहर आ जाते और घाट की सीढ़ियों पर एक किनारे , आवागमन
के रास्ते से किनारे , शांत व ध्यानस्थ बैठ जाते ।
उनके
निय़मित भक्त टोकरों-परातों में फल,बाल्टी भर दही, अन्य खाद्य सामग्री उनके पैरों
के समीप भेंट कर, उनके ध्यान में कोई बाधा किये, खामोशी से प्रणाम करते निकल जाते।
वे जब अपनी ध्यान निद्रा से जगते, वही घाट की सीढ़ी पर ही बैठे-बैठे भक्तों के
द्वारा लाये गये फल के टोकरों,दही की बाल्टी, या अन्य जो भी खाद्य पदार्थ वहाँ रखा
रहता, सब एक-एक कर उदरस्थ कर जाते।
फिर
लम्बी डकार और अँगड़ाई लेते वहाँ से उठते, आस-पास के परिवेश से पूर्णतया निर्लिप्त,
बिना किसी पर कोई दृष्टिपात किये , अपनी गज सी निराली पर शांत चाल से विश्वनाथ
मंदिर की गलियों में कहाँ विलीन हो जाते, कि किसी को दिन भर आहट भी न देते। फिर तो
अगले दिन भोर व प्रभात बेला में ही उस महान विभूति का दर्शन होता। यह उनके व
काशी-वासियों के जीवन के नित्य कर्म व दिन-चर्या का नियमित अंग था।
तैलंग
महाराज अपने में ही ध्यानमग्न, न किसी से कुछ बोलते न किसी की ओर देखते।कोई समीप
आकर प्रणाम करने या उन्हे छूने का प्रयाश
करता तो उसे वे आग्नेय दृष्टि से देखते व झिड़क कर भगा देते, पर यदि कोई
दीन-दुखी-बीमार-असहाय अपनी तकलीफ का अनुरोघ विलाप करते उनके चरणों में लेट जाता, तो चुपचाप करुण भाव से उसे देखते, लगता
कि उसके विलाप को ध्यान से दीनबंधु की तरह सुन रहे हैं, यदि किसी का परम सौभाग्य होता
तो वे चुपचाप अपने आजानुबाहु को बढ़ा इस दीन व विलाप करते व्यक्ति के सिर को स्पर्श
मात्र कर देते। कहते है कि मात्र उनके स्पर्श से ही कई बार कितनों की गम्भीर व असाध्य
बीमारी, भारी दुख,संकट,पीडा
, विकलांगता चमत्कारिक रूप से ठीक हो जाती।
किंतु
जैसा प्रायः होता है कि साधु और सरल स्वभाव के व्यक्ति, जिनको लोग भगवान कि तरह
पूजते,उनमें आस्था व सम्मान रखते हैं, उनके अनेकों ईर्ष्यालु व डाही विरोधी व
शत्रु भी अनायाश हो जाते हैं। तो तैलंग महाराज में भी काशीवासियों की भगवान जैसी आस्था व
उनकी चरम प्रसिद्धि के साथ-साथ वहाँ उनके कई विराधी और शत्रु भी थे।
इसी
तरह के डाही व ईर्ष्यालु व्यक्तियों में वहाँ का एक सेठ भी था जो तैलंग महाराज के
विरोधी व शत्रु गुट के समूह से सम्बन्ध रखता है। उस सेठ ने तैलंग महाराज जी को
परेशान करने और उनके प्राण लेने की नीयत से एक कुचक्र रचा। उसे तैलंग महाराज के
भोलेपन व सरलता का पूरा अनुभव व आभास था कि उन्हे कुछ भी खाने को दे दो, यहाँ तक
कि जहर मिला भोजन या फल भी,तो वे उसे बस भोलेबाबा का प्रसाद समझ आँख मूँदे उदरस्थ
कर जायेंगे। यही विश्वासकर उसने तेलंग महाराज के साथ भयानक व जानलेवा शरारत करने
की योजना बनायी।
उस
सेठ ने एक बाल्टी भरा कली चूना , जो देखने में ताजी जमी सफेद दही की तरह लग रहा
था, घाट की सीढ़ियों पर ध्यानस्थ बैठे तेलंग महाराज जी के चरणों के समीप भेंट
स्वरूप रख दिया। उसे इस बात का पूरा भान व विश्वास था कि बाबा जैसे ही अपनी ध्यान
निद्रा से उठेंगे, वे अपने भुख्खड़ी स्वभाव के अनुरूप अपने पास रखे सभी खाद्य पदार्थों को उदरस्थ कर
जायेंगे।
इस
इंतजार में कि बाबा जैसे ही बाल्टी भरा कली चूना , जमी हुई ताजी दही समझ गटकें, व
फिर उस चूने की भयानक प्रतिक्रिया से, वे तड़पें, छटपटाये,उन्हे खून की उल्टियां
हों, उनकी प्राण पर बन जाये। वह इस दृश्य का आनंद उठाने के लिये कुछ दूरी पर लोगों
की निगाह बचाकर चुपचाप खड़ा होकर बेसब्री से बाबा के ध्यान-निद्रा से जगने की
प्रतीक्षा करने लगा।
आखिर
वही हुआ जो उस दुष्ट सेठ की योजना व अनुमान था। जैसे ही तेलंग महाराज अपनी
ध्यान-निद्रा से उठे, अपने स्वभाव के अनुरूप अपने आस-पास रखे भोजन को तेजी से
एक-एक कर उदरस्थ करना शुरू किये।फिर बारी आयी बाल्टी भरे कली चूने की, जो बिल्कुल
जमे ताजा दही की तरह प्रतीत हो रहा था,जिसे बाबा ने उठाया और बाल्टी मुँह में
लगाये एक साँस में ही हलक के नीचे उतारने लगे। सेठ की उत्सुकता का ठिकाना न था और
वह तो इंतजार ही कर कहा था कि कब इस कली चूने की इनके उदर में प्रतिक्रिया हो और
वे खून की उल्टियां करते हुये जमीन पर पड़े तड़पड़ना व छटपटाना शुरु कर दें।
पर
यह क्या हुआ, जहाँ एक और बाबा शांतचित्त एक साँस में बाल्टी भरा कली चूना पिये जा रहे य़े, वहीं अचानक सेठ के पेट में ऐसा अनुभव हुआ मानों उसके उदर
में आग लग गयी हो। और कुछ ही क्षणों में उसके पेट में भयंकर जलन व पीड़ा उठी जिससे
वह तड़पने , छटपटाने लगा, फिर उसे खून की
उल्टियाँ शुऱू हो गयीं। उसे कुछ न सूझता बस हाय बाबा जान बचाइये कहते चीखते हुये
जान बचाने की गुहार करने लगा। जहाँ आस-पास खड़े लोग ,उपस्थित बाबा के भक्तगण, आश्चर्य से यह दृश्य देख रहे
थे, वहीं तेलंग महाराज जी बाल्टी भर कली चूना उदरस्थ कर शांत भाव से व तृप्त व
आस-पास की हो रही इस घटना से निर्लिप्त से अपने स्थान पर ही बैठे थे।
सेठ
के लगातार चीखने-चिल्लाने और जान बचाने की गुहार पर उन्होने दृष्टि डाली। कुछ
विचार करते अपने हाथ को शांति मुद्रा में उपर उठाया। सेठ भी पेट की ज्वाला से राहत
महसूस करते वहीं मरणासन्न सा शांत होकर जमीन पर ढेर हो गया।बाबा संयत भाव से उठे
और वहाँ खड़े अपने श्रदधालुओं पर दृष्टिपात करते व यह कहते विश्वनाथ मंदिर की
गलियों की ओर प्रस्थान कर गये- अरे यह दुष्ट तो आज मेरा प्राण ही हर लिया होता यदि
में इस सृष्टि के कण-कण और अणु-अणु में परमपिता प्रभु की उपस्थिति का विज्ञान व
उसमें स्वयं को एकाकार व समाहित न कर लिया होता। इस नादान मूर्ख कपटी को मालूम ही
नहीं कि मेरे लिये तो मेरा स्वयं का शरीर अथवा उसका शरीर या कोई अन्य का शरीर सब एक
समान हैं,मैं और वह दोनों और सब का शरीर, सम्पूर्ण प्रकृति ही इस प्रभु में समाहित हैं, और प्रभु भी हम सबमें , हम सबके शरीर में, रोम-रोम में,
कण-कण में, अणु-अणु में समाहित हैं।