Tuesday, February 14, 2023

भकूट - कूट-कूट कर भरा हुआ प्रेम..

सबको भकूट दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। आप सब भी हैरान हो रहे होंगे कि आज तो वैलेंटाइन डे है, हैप्पी वैलेंटाइन डे बोलना होता है, यह भकूट दिवस क्या और कैसा। तो भाई, जो भी हमारे सनातन रीति परंपरा में विश्वास रखता है और खास तौर पर जो विवाहित हैं अथवा विवाह के दहलीज पर हैं वह निश्चय ही 'भकूट' शब्द से वाकिफ होगे। फिर भी सबके सहूलियत के लिए बता देना उचित होगा - शादी के लिए लड़का लड़की की कुंडली और गुण मिलान के जो  आठ मुख्य पैरामीटर होते हैं (वर्ण, वाष्य,तारा,योनि,ग्रह मैत्री,भकूट एवं नाड़ी) उनमें पारस्परिक प्रेम के आकलन का पैरामीटर होता है भकूट यानि यदि लड़का-लड़की का भकूट मैच कर रहा है तो उस जोड़े के वैवाहिक जीवन में प्यार की गंगा हमेशा भरी-लहलहाती बहेगी अन्यथा तो सब अपने अपने वैवाहिक जीवन के अनुभव से स्वयं ही जान समझ सकते हैं। व्यक्तिगत मुझसे पूछें तो मुझे तो प्रायः उलाहना मिलती है कि हमारा भकूट मैच नहीं है इसीलिए प्यार कम, तकरार ज्यादा है।इस उलाहना के सुनते सुनते अब तो मैं भकूट को लेकर ओवर-कासस हो गया हूं, जब भी किसी युगल - घर परिवार या नाते-रिश्तेदारों या मित्र सर्किल में, में परस्पर छलकता प्रेम देखता हूं (मेरा सोना-मेरा बेबी के लेवल वाला) फौरन मेरी जेहन में उनके ऊपर भकूट देव की विशेष कृपा का अहसास जग जाता है, थोड़ी उनसे ईर्ष्या भी होती है कि काश अपने ऊपर भी भकूट देव, थोड़े ही सही, मेहरबान होते।

बहरहाल जीवन में जो भी है जैसा है, भकूट देव अनुकूल हैं या प्रतिकूल यह तो नसीब ने दे ही दिया है, मगर दो व्यक्तियों के बीच सबसे बड़ा भकूट होता है आपसी विश्वास, पारस्परिक स्वीकृति और हमेशा हर हाल में एक दूजे के साथ खड़े रहना और एक दूसरे के लिए संबल बने रहना। एक दूसरे के प्रति यही समझ और धीरज असली भकूट-मिलान है। 
पुनः सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। 💐💐💐

दुख एवं करुणा के आर्द्र स्वर - हमारे विवेक व चेतना के गज़र

विगत दो दिन से अधिकांश समय अस्पताल में ही गुजर रहा है, मेरी मां अस्वस्थ हैं, भर्ती हैं। चूंकि वह अभी आईसीयू में हैं इसलिये अधिकांश समय अस्पताल के रिसेप्शन एरिया में प्रतीक्षा बेंचों पर ही बैठे बीतता  है। अस्पताल में लोगों(भर्ती मरीजों के परिजनों) के बीच होना एक विशेष गहरा भावनात्मक अनुभव होता है, किसी रंगमंच पर चल रहे बहुआयामी दृशयमंचन से कहीं कम नहीं-कुछ बदहवास से, कुछ गंभीर से, कुछ मसगूल से कुछ उदासीन से, कुछ उतावले में चलते, कुछ आहिस्ता सोच और चिंता में, विभिन्न भाव, विभिन्न रूप, विभिन्न दृश्य।
सामने, बरामदे के दूसरे किनारे की बेंच पर एक महिला करुणार्द व शांत भाव में बैठी हैं, चिंताग्रस्त बार बार आईसीयू की ओर जाने वाली रैम्प की ओर व्यग्रता से निहारती हुई। बीच बीच में दो युवा, शायद उनके बेटे या संबंधित, जब भी पास से हड़बड़ाहट में आ जाते,उनकी व्यग्र और उदास आंखें पूछती हुई उनसे कि क्या हाल है मरीज (शायद उनके पतिदेव) का, क्या कहते हैं डॉक्टर, कोई घबराने की बात तो नहीं। एक दो घंटे बाद एक करुण क्रंदन सुनाई दिया,उधर ध्यान गया तो देखा वही महिला फूट फूट कर रो रही है, अनहोनी जिसकी आशंका में वह घंटों से व्यग्र और चिंतित दिख रहीं थी वह घटित हो गई थी , पूरी रिसेप्शन प्रतीक्षा एरिया उस महिला के करुण क्रंदन से विह्वल हो रहा था, वो कहते हैं ना कि इतनी करुणा कि स्थिति कि वहां मौजूद किसी का भी गला रुंध जाये कलेजा फट जाये, मुझे अनुभव हुआ मैं स्वयं और मेरे आस पास सबकी आंखे नम हो आयीं थी उस महिला के करुण क्रंदन से। दोनों युवक उस महिला को ढांढ़स बधाने का प्रयास कर रहे थे परंतु वह महिला कैसे ढॉढ़स पाती!
पौराणिक ग्रंथों कथाओं में हम सबने ही पढ़ा है कि भगवान राम मां सीता का त्याग और उनके आदेश पर लक्ष्मण मां सीता को वन में छोड़ आते हैं, तो वन में अकेली मां सीता, वह भी गर्भावस्था की नाजुक अवस्था में, राम से वियोग के दुख में जो करुण क्रंदन करती हैं कि पूरा वन - पेड़ पौधे, घास - पत्ते, पशु-पक्षी, वन का कण-कण उनके करुण क्रदन से करुणार्द हो उठता है, वहां की धरती सिसकने लगती है। जब शकुंतला को महाराज दुष्यंत पहचानने से इंकार करते हैं और प्रहरी उसे अपमानित कर राजदरबार से बाहर निकाल देते हैं , तो गर्भवती शकुंतला वन में जो करुण क्रंदन करती है उससे पूरा वन रोने लगता है। 

एक दुखी नारी का करुण क्रंदन से वहां उपस्थित किसकी आंखे आर्द्र नहीं कर देता! वहां भी सभी इसी अनुभव से गुजर रहे थे।
अस्पताल के यह दुख-करुणा के अनुभव कतई अनपेक्षित होते हैं, कोई भी नहीं चाहता ऐसे अनुभव बिना किसी विवशता के देखना और  उससे गुजरना, मगर इसका दूसरा पक्ष देखें तो इन दृश्यों और अनुभवों में सच्चा जीवन दर्शन निहित होता है, इन अनुभवों से जीवन की सच्चाई हमें प्रतिबिंबित हो जाती है। हमारे दुख, हमारे जीवन में आने वाले वियोग, विछोह के यह अनुभव हमें हमारे जीवन में प्राप्त संबंधों, सहारों, प्रियजनों (जिनकी सामान्य परिस्थितियों में प्रायः हम अनदेखी और उपेक्षा कर देते हैं, और गाहे-बगाहे तिरस्कार एवं अनादर भी) की उपस्थिति का महत्व एवं मायने समझा देते हैं, यह हमारी सोयी, बेहोश पड़ी चेतना एवं विवेक को जाग्रत करने में सहायता करते हैं। 

Sunday, February 12, 2023

भाषा और संस्कार की फूहड़ तहरी - न खुदा ही मिला न विसाले सनम!

हमारे देश में लंबी दूरी की ट्रेन यात्रा लंबे समय की होती है इसलिए सहयात्रियों के साथ समागम भी लम्बी अवधि का होता है, कुछ खट्टा कुछ मीठा, कुछ रोचक कुछ अनपेक्षित। अभी यात्रा में ही हूं, केबिन में सामने की सीट पर एक परिवार है, पति पत्नी चार साल का बेटा और साथ में कोई साथी/परिवार का सदस्य जो बर्थ तो कहीं अन्यत्र है मगर अधिकांश समय इनके साथ ही है। कहने के लिए दो जाने हैं मगर साथ में लगेज सामान बारह जने से कम का नहीं, केबिन में बर्थ के नीचे और जो भी खाली जगह है सामान ही सामान ठंसा है,अपनी बर्थ से उतर वाशरूम के लिए जाना किसी बाधा दौड़ से कमतर टास्क नहीं है। मां बच्चे के लिए चॉकलेट का केक घर से लायी है और बाकी के लिए थोक भर पूड़ी सब्जी और अचार, सारा केबिन अचार के गंध से भरा है, सांस लेने में ऐसी घुटन गोया आप खुद किसी अचार के बड़े मर्तबान में बैठा दिए गए हैं। मां (मम्मा) का बच्चे से चलता संवाद टोका टोकी भी रोचक (या कहें वितृष्णापूर्ण) है, अंश लेग डोन्ट नीचे हिलाओ, अंश केक ईट लो, अंश वाटर ड्रिंक कर लो, अंश तुम्हारी फिंगर में डर्टी लगा है, सैनिटाइजर से हैंड क्लीन करो, अंश रोटी भी ईट कर लो , अंश अपनी आइज को फिंगर से टच मत करो मिर्च का बर्निंग लगेगा, अंश ऊपर जाकर डैडू के साथ स्लीप करो अभी मम्मा टॉयलेट के लिए गो कर रही है, इस तरह का एक अंतहीन डॉयलॉगबाजी, करन जौहर जैसे शख्सियत को यह मिल जायें तो निश्चय ही वह अपने किसी फिल्म में पू टाइप रोल में फिट कर लें। 
यह परम सत्य है कि बच्चे की प्रथम एवं प्रमुख गुरु मां ही होती है, बच्चे में संस्कार, आचरण, भाषा आचार विचार की बुनियाद और इनकी मूल संरचना मां द्वारा ही डाली गढ़ी जाती है । परंतु आज यह जो मां का चोला उतार फेंकी मम्माएं है (अपने आधुनिक और शहरी होने और दिखावा करने की ललक में)  बच्चों को संस्कार, भाषा आचरण और आदतों के नाम जो यह फूहड़ तहरी परोस खिला रही है उससे बच्चे के अंदर उत्तम और मौलिक संस्कार, भाषा और आचरण स्थापित होने की संभावना और उम्मीद कैसे की जा सकती है। खास तौर पर यूपी और बिहार की मम्माएं अक्सर इस हीनभावना से ग्रस्त दिखती हैं, उनको अपने बच्चे के मुंह से खुद को मां का संबोधन पिछड़ा और गंवारपन लगता है इसलिए बच्चे से खुद को मम्मा कहलाकर मुग्ध होती हैं, हाथ के लिए लेग, उंगलियों के लिए फिंगर, आंख के लिए आइज कहकर उन्हें लगता है कि वह खुद और उनका बच्चा अंग्रेजदां हो गया है। अन्यथा मैंने हमारे अन्यभाषायी परिवारों - मराठी, कन्नड़, उड़िया, गुजराती, बंगाली इत्यादि में बच्चों द्वारा अपने माता-पिता और संबंधों को अपनी भाषा के मौलिक संबोधन - आई, बप्पा, मां, बापू, अप्पा का ही संबोधन करते देखा है, वह कितने ही उच्च शिक्षित एवं संभ्रांत हैं उनकी अपनी भाषा में बोलचाल खानपान व्यवहार संस्कार उनके मौलिक रूप में होता है, बजाय कि उसमें फूहड़ तरीके से अंग्रेजी के शब्दों को बेवजह ठूंसने का।मैं अंग्रेजी बोलने का कोई विरोध नहीं कर रहा, मेरा तो सिर्फ यह अभिप्राय है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि अंग्रेजी में ही बोलना बात करना आधुनिक होना है तो वह अवश्य करे मगर तो शुद्ध और सही तरीके से अंग्रेजी बोले और बच्चों को सिखाये बजाय कि भाषा के नाम पर एक फूहड़ तहरी पकाने के। वैसे मैं मानता हूँ कि अपनी भाषा अपना संस्कार अपनी संस्कृति अपनी मां की तरह ही होते हैं, उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता है, इसलिए अपनी भाषा अपने संस्कार और अपनी संस्कृति के प्रति सदैव हार्दिक प्रेम और आदर रखना चाहिए और बच्चे में यह भावना स्थापित करने की जिम्मेदारी उसकी मां के अलावा भला और कौन कर सकता है? रही बात अन्य भाषा अन्य संस्कृति अन्य तौर तरीकों के, जिन्हें सीखना जानना हमारी व्यावसायिक व्यावहारिक अथवा पारिस्थितिक आवश्यकता होती है, उन्हें भी सही तरीके से जानना समझना चाहिए (बजाय कि उनकी फूहड़ तहरी बनाकर उनकी भी ऐसी तैसी करने के) उनके प्रति भी वही आदर सम्मान रखना चाहिए जो हम दूसरे की मां के प्रति रखते हैं। हमारी सुंदरता हमारी मौलिकता में होती है, नकल और दिखावटीपना, चाहे कितना भी रंग-रोगन लगायें प्रायः फूहड़ और अभद्र ही होता दिखता है।

Thursday, March 11, 2021

बहुरूपिया शब्द

बहुरूपिया शब्द

कभी अल्हड़, अलल-बछेरा,
कुलेलें करने वाला,
नाकंद घोड़े के बच्चे जैसा,
जिसे ना कोई क़रार ,
फक्त कर्राह,
खिलंदड़ एवं बेपरवाह

कभी डरा सहमा
घबराये गाय जैसा
जिसे अपना बछरू
बहुत समय से
न दिखता हो न आहट हो
आशंका और आकुलता में
व्याकुल आंखें उसकी

कभी लार टपकाते
श्वान के सदृश
इधर उधर सिर हिलाते
मतलब बेमतलब तलवे चाटते
स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करते
इशारे पर
बेवजह भौंकते गुर्राते

Sunday, January 17, 2021

बिडंबना : अपनी जूती अपने ही सर।

विडंबना यह है कि प्रायः हम खुद को ज्यादा इंटेलेक्चुअल दिखाने के लिए अपने देश, इसकी सामाजिक व्यवस्था, इसके रीति-रिवाज संस्कृति परंपरा, इसकी राजनीतिक तंत्र और सरकारी तंत्र एवं व्यवस्था, का हर छोटी-बड़ी बात पर मजाक और उपहास करते हैं।हममें अपने इस इस गहरी हीनभावना की वजह  हमारे देश की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था, संस्थानों में बामपंथी विचारधारा की गहरी पैठ एवं इस पूरे सिस्टम पर उनके मजबूत चंगुल की वजह से रहा है। और दुर्भाग्य से यही हीनभावना का संस्कार हम अपने बच्चों में भी जाने-अनजाने में पालते-बढ़ाते हैं।  हमें इस सच्चाई का अहसास किसी वक्त यदि हो भी जाता है तो तबतक बहुत देर हो चुकी होती है, बच्चों को उनकी सोच की गलती को बताया भी तो वह उल्टा पड़ता है और वह विद्रोह करते हैं। इसलिए समय पर ही हमें स्वयं के संस्कार, एवं अपने बच्चों के संस्कार में इस नकली और दिखावटी इंटेलेक्चुअलपने से विलग, अपने देश, समाज, भाषा, संस्कृति, आचार-विचार, राजनीतिक एवं संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रति जागरूक, सम्मानजनक एवं जिम्मेदारीपूर्ण बनाना सुनिश्चित करना चाहिए।

ना खुदा के रहे ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे.....

बरखा दत्त, निधि राजदान, सोनिया (वर्मा) सिंह सिर्फ व्यक्ति नहीं हैं, यह एक मानसिकता हैं जो भारतीय परिवारों में जन्म लेने के बावजूद, हर भारतीय चीज - भारतीय लोग, भारतीय सोच, भारतीय दृष्टिकोण को वाहियात और हीन समझते हैं। यह तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवी परिवारों के उस क्लास का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह कहने में अपनी शान और खुद को ' डिफरेंट फ्रॉम कॉमन लॉट, इलीट एंड स्पेशल' समझते हैं कि उन्हें हिन्दी ठीक से बोलना नहीं आता। ऐसी मानसिकता के लोग और परिवार हमें भारतीय शहरों, विशेषकर उत्तर भारत, में अक्सर मिलते हैं। यह और बात है कि ऐसे लोग खुद को कितना भी बड़ा अंग्रेजीदां समझते हों, परंतु यह अंदर से ओछे के ओछे ही रह जाते हैं, जो अपनी मातृभाषा, अपने खुद के परंपरागत संस्कारों तौर-तरीकों को ठीक से नहीं जाना, समझा और उसके हृदय में इनके प्रति कोई आदर और सम्मान दूर की बात, हेयदृष्टि और उपेक्षा है, भला वह किसी गैर की भाषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीकों में कोई वास्तविक योग्यता कहां से डेवलप कर पाएगा। अंततः ऐसे लोग 'गंदे नाले में गिरे बेल' की तरह होते हैं, न खुद के ही बन पाते हैं और न ही खुदा के। यह परमसिद्धसत्य है कि उत्कृष्टता की उपलब्धता अपनी मौलिकता अपने रूट्स के आधार पर संभव होती है।

Saturday, January 16, 2021

कांटो को कांटा कहने की साफगोई जरूरी है...

जैसे जैसे कोई समाज या देश आर्थिक एवं जीवन संबंधी अन्य सुख-सुविधाओं से संपन्न होता जाता है वैसे वैसे स्वयं को तथाकथित सभ्य, सुसंस्कृत एवं इलीट होने और दिखने के लिए एक प्रकार का बनावटीपन (शोअॉफ), फेक और हिपोक्रेटिक आचरण, संस्कार व व्यवहार अपनाने लगता है। यूरोपीयन समाज और देश, विशेषकर पश्चिमी यूरोप, में इस तरह की हिप्पोक्रेसी डेढ़ दो सौ सालों में, उनके औद्योगीकरण आर्थिक उन्नति और  हाई स्टैंडर्ड अॉफ लिविंग के समानांतर, खूब पल्लवित पुष्पित हुई। इन्हें खुद को तो गुलाब की खूबसूरती के मजे  लेने थे, यह तो वह अपना नैसर्गिक अधिकार समझते रहे, मगर अपनी हमदर्दी, ज्ञान और बखान कांटो की ही करते , खासकर यदि वह कांटे दूसरे की बागवानी में पनप और विकसित हो रहे हों, इन कांटों से तबाह और त्रस्त कोई इन्हें नष्ट करने जलाने साफ करने की कोशिश भी करता तो यही पश्चिमी यूरोप का इलीट इंटेलेक्चुअल तबका अपने कलम और जुबान के तलवार से बेचारे कांटों के सफाई करने वाले के खिलाफ ही जंग में उतर आते रहे और इन जहरीले खतरनाक कांटो के तरफदारी में उनके रक्षक बने खड़े होते रहे। चूंकि अमरीका का डीएनए भी कमोबेश पश्चिमी यूरोप की ही संरचना रहा है, वहां भी यही इलिट और इंटेलेक्चुअल क्लास जनित हिप्पोक्रेसी निरंतर विकसित और पल्लवित होती रही। अब यही कांटे जब पश्चिमी यूरोप के देशों और शहरों, क्या लंदन और क्या पेरिस, और काफी हद तक अमरीका भी, में फैल बिखर और दिन दूने रात चौगुने बढ़ने और मजबूत होने लगे हैं, और इनके खुद के पैरों में चुभने और लहूलुहान करने लगे हैं तो अब इन्हें धीरे धीरे समझ में आने लगा है कि फूल फूल होते हैं और कांटे कांटे, कांटों से आप फूल की नरमी और सलीके की उम्मीद नहीं कर सकते, कांटो का चरित्र और ईमान ही होता है दूसरों के पैर में अकारण चुभना, दूसरों को लहूलुहान करना, दर्द देना। लहू बहाना और दूसरों को दर्द  देना कांटों का मुख्य इंटरटेनमेंट होता है।

चूंकि भारत का बैकग्राउंड पश्चिमी देशों की लम्बी अवधि तक कॉलोनी होने और उनकी गुलामी करने का रहा, देश के तथाकथित आजाद होने के बाद भी सत्ता ऐसे ही लोगों के हाथों में आयी जिनकी सारी शिक्षा दिक्षा और समझ यूरोप से ही उधार में मिली हुई थी, अतः स्वाभाविक रूप से यहां भी वही हिप्पोक्रेसी की मानसिकता पूरी तरह से, गहराई से, समाहित रही। जेएनयू, जामिया और जाधवपुर इसी हिप्पोक्रेसी के जीतेजागते उदाहरण व प्रयोगशालाएं रही हैं।

ट्रंप या उनके विचारधारा जैसे नेताओं के फूहड़ बात और व्यवहार की चाहे जितनी भी आलोचना की जाय मगर एक बात तो अकाट्य सत्य है कि ट्रंप जैसे  नेता कम से कम इस घिनौने हिप्पोक्रेसी से मुक्त रहे हैं, वे बेबाकी से और बिना किसी लाग-लपेट के इन कांटों को कांटा कहने की साफगोई रखते हैं।

हमारे देश के लिए भी इस गहरे पैठी हिप्पोक्रेसी से निजात पाने और कांटों को कांटा कहने की बेबाकी और साफगोई की नितांत आवश्यक है, कम से कम इधर पांच छः सालों से तो थोड़ी बहुत बेबाकी साफगोई प्रवेश करती दिखाई देने लगी है, इसके सुरक्षित भविष्य के लिए अपरिहार्य है अन्यथा  हिप्पोक्रेसी में जीने  वाले देश और समाज का हस्र और नियति प्रायः 'टाइटैनिक' जैसा ही होता है।