Thursday, September 8, 2011

...जब ओमा रहेन सँतोष, तो गदहा मारे नाहीं दोष।



कुछ वर्षों पूर्व जब मैं इलाहाबाद में रहता था तो किसी अवसर पर यह रोचक कहानी उच्चन्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय से उनके किसी आधिकारिक व्याख्यान के दौरान सुना था- 

एक गाँव में कुछ बच्चे एक बडे से खुले मैदान में इकट्ठा खेल रहे थे। अचानक वहाँ कहीं से एक गधा घास चरते-चरते पहुँच गया। गधे को देखकर बच्चों को शरारत सूझी,वे गधे को छोटे पत्थर-कंकण मारने लगे।खेल-खेल में ही कुछ लडकों ने बडे पत्थर से गधे पर प्रहार कर दिया, और गहरी चोट और सदमे से गधा मरकर वही ढेर हो गया।

अब बच्चे घबरा गये । उन्होने सुन रखा था कि गधे की हत्या से भारी पाप लगता है, गोहत्या की ही तरह। अब वे क्या करते, घर पर जाते तो भारी अनर्थ था ।बच्चे भागे-भागे गाँव के पुरोहित जी के पास पहुँचे, उन्हे दुर्घटनावश हुई यह गधा-हत्या की बात बताई ओर इसके पापनिवारण का उपाय बताने का अनुरोध करने लगे।

पुरोहित गाँव के धर्माधिकारी थे, और धर्म के मामले में दंडाधिकारी भी ।इन मामलात में पुरोहित जी की विवेचना व उनका निर्णय गाँव वालों के लिये अंतिम वाक्य था। पुरोहित जी ने बच्चों के हाथ हुई गधा-हत्या को भयंकर पाप व अनिष्ट कार्य बताया।पुरोहित जी ने कहा- चूँकि गधा देवी माँ शारदा का वाहन होता है और वह अति  मासूम प्राणी होता होता है, अत: गधा-हत्या भी गोहत्या के समकक्ष का पाप व अनिष्टकारी माना जाता है। अत: गधाहत्या का प्रायश्चित व पाप- निवारण भी गोहत्या पाप निवारण की तरह ही अति कठिन व विधिविधान पूर्वक  होता है।

बच्चे घबराये हुये मुँह फाडे पुरोहित जी की बात ध्यान से सुन रहे थे। पुरोहित जी ने बच्चों को गधा-हत्या पापनिवारण व प्रायश्चित का उपाय विस्तार-पूर्वक बताना शुरू किया- कम से कम ग्यारह तोला स्वर्ण की एक गर्दभ मूर्ति, इक्यावन मन अनाज, देवी शारदा के कोप-शांति हेतु एक जडाऊ हार और इक्यावन जोडी वस्त्र , इन सबका ब्राह्मण को दान करना होगा। स्वाभाविक रूप से गाँव में ब्राह्मण तो पुरोहित जी ही थे, अत: यह सारा दान तो पुरोहित जी को ही ग्रहण करना था।

बच्चों की तो जान ही सूख गयी कि यह सब कैसे संभव होगा। तबतक एक बडे बच्चे ने साहस जुटाते पुरोहित जी से कहा- पंडित जी, ओमा संतोष भी रहेन। ( पंडित जी गधा को मारने में संतोष भी थे।) पाठकों की जानकारी के लिये संतोष पुरोहित जी के इकलौते व लाडले सुपुत्र का नाम था। संतोष का नाम सुनकर पुरोहितजी चौंके,  पर सहज होने का भाव दिखाते अपनी विवेचना में निम्न संसोधन कर दिया- जब ओमा रहेन संतोष, तो गदहा मारे नाही दोष। ( यदि उसमें यानि गधा को मारने में संतोष भी सम्मिलित थे तो गधा-हत्या में कोई दोष नहीं।

क्या हम सभी और हमारा समाज अपने दैनिक जीवन में नियम कानून रीति-रिवाज, धर्म-आचार-विचार की विवेचना में पुरोहित जी की ही तरह अपने संतोष ( यानि अपनी सुविधा) का ध्यान नहीं रखते? क्या हम ऐसा नहीं करते कि जब किसी नियम या कानून का किसी और से उल्लंघन हो जाय तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं, और वही उल्लंघन स्वयं से हो तो उसे अपनी विवशता, मजबूरी या अपरिहार्यता का नाम देते हैं

6 comments:

  1. सच कहा आपने, अपनों और परायों के लिये नियम अलग अलग हो जाते हैं।

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  2. यह एक पुरानी प्रचलित कथा है। इसका समय समय पर पाठ व आत्मचिंतन मन शुद्धि के लिए आवश्यक है।

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  3. धन्यवाद प्रवीण जी व देवेन्द्र जी।

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  4. ओह...आनंद आ गया...

    क्या खूब दृष्टान्त दे समझाया है आपने...शत प्रतिशत सहमति है आपसे...

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  5. क्षमा कीजियेगा,बिना आपसे आज्ञां लिए इसे अपने कुछ परिचितों को अग्रेसित कर रही हूँ....

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