Saturday, September 10, 2011

......साँस की डोर व नियति का खेल


जब आप एक ऐसे देश में रहते हों जहाँ आपके साथ किसी क्षण कोई दुर्घटना घट सकती है- आप यात्रा कर रहे हों, आपके विमान,ट्रेन या वाहन कि कभी भी दुर्घटना हो सकती है, कार्यालय,बाजार,कोर्ट-कचहरी , रेलवे-मेट्रो-बस स्टेशन,शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, सिनेमा हाल इत्यादि जैसी दैनंदिन के आवश्यक स्थान जहाँ जाना आपके दिनचर्या का अपरिहार्य हिस्सा व मजबूरी है, में कभी भी बम-विस्फोट हो सकता है और यह कोई भी हादसा आप में से किसी दुर्भाग्यशाली के जीवन का अंतिम दिन सिद्ध हो सकता है, वहां आप कितने ही बड़े आधुनिक,तार्किक व वैज्ञानिक विचारधारा वालें क्यों न हों,  भला आप नियति में विश्वास किये बिना कैसे रह सकते हैं?

इसीलिये आप यदि इसे अन्यथा न लें तो मैं यह स्वीकार करना चाहूँगा कि मैं भी नियति में आम देशवासियों की ही तरह सहज विस्वास करता हूँ। यदि शाम तक सब कुछ ठीक-ठाक निकल गया- बच्चे स्कूल से सकुशल घर वापस आ गये, देर शाम खुद भी सकुशल ( और हाँ इसमें अन्य कुशलताओं के अतिरिक्त बॉस की झाड़ से बच जाना भी शामिल है। ), बिना किसी दुर्घटना के वापस  घर पहुँच गये, और रेलवे अधिकारी होने के नाते यदि हमारी ट्रेनें बिना किसी दुर्घटना व देरी के सही सलामत वापस लौट आयीं, तो एक राहत की साँस लेते अपने भाग्य (नियति) पर प्रसन्न हो लेते हैं, अन्यथा जिनके साथ कुछ हो जाता है तो इसे उनका दुर्भाग्य या नियति का खेल समझकर स्वीकार कर लेते हैं।

इसी नियति के खेल  पर एक लघुकथा बहुत पहले मैंने एक हिंदी पत्रिका में पढ़ी थी, जो मैं आपसे यहाँ साझा करता हूँ-
एक बार जंगल के सभी जानवरों व पक्षियों ने मिलकर एक वृहत् अखिल विश्व गोष्ठी का आयोजन किया। इस गोष्ठी के मुख्य कर्ता-धर्ता गरुण जी थे। गरुण जी ने गोष्ठी की अध्यक्षता हेतु स्वयं धर्मराज यमदेव को आमंत्रित किया ।गोष्ठी समय पर शुरू हुई और ज्ञानी वक्ता-गण अपना व्याख्यान देना प्रारंभ किये। मंच पर ऊँचे अध्यक्ष आसन पर अपनी गंभीर व विकराल मुद्रा में आसीन यमराज अपनी बड़ी व भयानक आंखों से सम्पूर्ण सभा को निहार रहे थे। शुक पक्षी ,जो मंच के समीप बैठा था, को आभाष हुआ कि यमराज अपनी भयानक दृष्टि से उसे एकटक देख रहे हैं। यह आभाष होते ही शुक के शरीर में भय की सिहरन दौड़ गयी।

जहाँ दूसरे जानवर व पक्षी गोष्ठी की कार्यवाही में मशगूल थे, वहीं शुक अज्ञात डर व आशंका से भयभीत व बेचैन हो उठा था । अंततः मौका पाकर वह गरुण जी के पास गया व उनसे अपने मन का भय व आशंका व्यक्त किया- महाराज, यमराज मुझे एक-टक अपनी भयानक दृष्टि से घूर रहे हैं, मुझे बहुत भय व आशंका हो रही है। आप ही समर्थवान हैं जो मुझे यमराज की कोपदृष्टि से दूर कर सकते हैं। कृपया मुझे शीघ्र ऐसे सुदूर स्थान पर ले जाने का उपक्रम करें जो यमराज की दृष्टि से परे व सुरक्षित हो ।

गरुणजी शुक के अनपेक्षित भय व आशंका पर हल्का परिहास करते बोले- शुक, यमदेव हमारे निमंत्रित अतिथि हैं, वे आज यहाँ हम सभी की शुभकामना व कल्याण हेतु हमारी सभा के अध्यक्ष के रुप में पधारे हैं, भला उनसे किसी भी प्रकार की हानि या अशुभ की आशंका का इस अवसर पर क्या प्रयोजन है। तुम स्वयं पक्षियों में श्रेष्ठ ज्ञानी व वक्ता हो, आज तो इस विशाल समारोह में तुम्हारी प्रतिभा के प्रदर्शन व यशप्राप्ति का श्रेष्ठ अवसर है। तुम निर्भय व प्रसन्नचित्त होकर इस गोष्ठी की कार्यवाही में भाग लेकर पक्षीकुल की शोभा बनो। कितु गरुण जी के उतने शुभवचन भी शुक के मन में  छाये अनहोनी के प्रति भय व आशंका के बादल को न छाँट सके।

अंततः शुक की अति  व्यग्रता व अधीरता देख गरुण जी ने शुक की मदद करने व तुरंत उसे सुदूर द्वीप शुक के निवास स्थान पहुँचा देने का निर्णय लिया। मन से अधिक वेग से उड़ने वाले गरुणजी ने कुछ पलों में ही शुक को यथास्थान उसके निवासवृक्ष तक पहुँचा दिया।

इधर यमराज भी गरुण की सभास्थल पर कुछ पलों की अनुपस्थिति के प्रति सजग थे। जैसे ही गरुण जी शुक को छोड़कर वापस सभास्थल पर पहुँचे, यमराज ने उनसे तुरंत उनकी सभास्थल से एकाएक अनुपस्थिति के बारे पूछा। गरुण जी क्या करते, उन्होंने शुक का सारा वृतांत यमराज से कह सुनाया।उन्होने यमराज को यह बता दिया कि किस तरह शुक यमराज के दृष्टिपात से अत्यंत भयभीत था और वह शीघ्र सभास्थल व यमराज की दृष्टि से दूर व ओझल होना चाहता था।

यमराज गरुणजी से सारा प्रकरण जानते हुये बड़े शांतभाव से बोले- गरुण जी आपने शुक को उसके यथास्थान पर पहुँचाकर मेरे लिये अति उत्तम कार्य किया और मैं इसका आपके प्रति आभारी हूँ अन्यथा अकारण ही मुझे इस समारोह के शुभ-अवसर पर  मुझे अनपेक्षित रुप से एक जीव का स्वयं वध करना पड़ता।

गरुणजी चौंक उठे और बोले- क्या कहते हैं महाराज,आप किसका और क्यों वध करते, आप तो यहाँ  हमारे निमंत्रित अतिथि हैं, भला आप ऐसा कैसे कर सकते हैं। यमराज अनावेशित भाव लिये बोले- गरुण जी, उस शुक की मृत्यु अभी के कुछ क्षणों में सुदूर द्वीप के उसके निवासवृक्ष पर ही पहले से निर्धारित है, किंतु शुक यहाँ पर उपस्थित था, अतः मुझे व्यग्रता हो रही थी कि आखिर उसकी नियति द्वारा पूर्व ही निर्धारित मृत्यु कैसे सम्पन्न हो पायेगी, जब शुक मृत्यु के नियत स्थान से सुदूर यहाँ पर उपस्थित है, अन्यथा चूँकि मृत्यु तो अटल है, मुझे नियत समय पर उसका यहीं पर प्राण हरना पड़ता और इस शुभ समारोह में एक अशुभ कार्य करने व विघ्न उत्पन्न करने का अनावश्यक रूप से कलंक का मुझे भागी बनना पड़ता। गरुणजी इस तथ्य व रहस्य को जान भौचक्के रह गये।

सात सितंबर को एक वकील छात्र अमनप्रीत सिंह कोहली की दिल्ली के हाईकोर्ट बमविस्फोट में हुई अकाल व दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु इसी तरह के नियति का खेल मान सकते हैं। यदि अमन घर से अपने वकील वाले चोंगे को पहनकर कोर्ट आना न भूला होता, और इस कारण उसे आम प्रवेश की लाइन में न लगना पड़ता तो वह विस्फोट के पूर्व ही कोर्ट के अंदर सुरक्षित पहुँच गया होता और आज वह अन्य भाग्यशालियों की तरह जीवित बच जाता।

मैं स्वयं के एक-दो अनुभवों को , जिनको याद कर आज भी शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है,इसी तरह से भाग्य का ही खेल समझता हूं कि कुछ क्षणों व स्थान  का अंतर से बाल-बाल बचे, अन्यथा जीवन अध्याय समाप्त भी हो सकता था। मेरा मानना है कि हममें से अधिकांश लोग अपने जीवन में इस तरह के एक दो अनुभव से, कि अगर भाग्य ने साथ न दिया होता ते कुछ का कुछ हो सकता था,अवश्य ही गुजरे होंगे।

इसतरह, सारी विचारशीलता , बुद्धिमत्ता , तर्कसंगता व जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने के उपरांत भी इन अनहोनी की घटनाओं व हादसों को देखकर व जानकर इन्हे बस एक नियति का खेल समझकर स्वीकार करना पड़ता है ( और इससे सरकार का काम भी आसान व सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ने की उसे सहूलियत मिल जाती है।) और तुलसीदास जी की निम्न पंक्तियाँ मन में सायास स्मरण हो जाती हैं-

सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलख कहेयु मुनिनाथ।
हानि ळाभ जीवन मरण , जस,अपयश विधि हाथ।।


14 comments:

  1. सरकार चाहे तो अपने प्रयासों से बहुत से हादसों को टाल सकती है।

    ReplyDelete
  2. @Zeal Your are right Divya, If things cud be done and managed in planned and safe manner, why we had to leave the things and our life in hand of invisible fate and do accept our and the nation's destiny in hands of God.Only we can hope for something better,otehrwise what to say more.

    ReplyDelete
  3. देवेन्‍द्र जी,आपने बात तो बहुत पते की कही। पर आप भी एक सरकारी अधिकारी हैं। और मैं समझता हूं कि जिम्‍मेदार अधिकारी हैं। अगर आप लोग अपनी जिम्‍मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे होते तो शायद रोज रेल दुर्घटनाएं होतीं। दुर्घटनाएं होती हैं। लेकिन हमें इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि इतने बड़े तंत्र को संभालना अपने आप में एक चुनौती है। मेरे पिताजी भी रेल्‍वे में थे। वे चीफकंट्रोलर होकर रिटायर हुए। उनसे मैं तमाम किस्‍से सुनते रहता था, किस किस तरह दुर्घटनाएं रोकी गईं। अब भी रोकी जाती हैं। लेकिन जैसे ही कोई दुर्घटना होती है, हम सब मिलकर सरकार को कोसना शुरू कर देते हैं। कोई खुद की तरफ नहीं देखता। वह आखिर क्‍या कर रहा है। वह अपने नागरिक कर्तव्‍य निभा भी रहा है या नहीं।
    *
    आपने नियति की बात की। एक सुंदर लघुकथा भी प्रस्‍तुत की। अगर नियति को मानते हैं तो फिर किस बात का रोना। और अगर नहीं मानते हैं तो होने वाली दुर्घटना के कारण भी खोजे ही जाते हैं।
    *

    ReplyDelete
  4. राजेश जी, इतनी विचारपूर्ण प्रतिक्रिया के लिये आभार। एक सरकारी अधिकारी हूँ इसीलिये तो अपने विचार रख पाया हूँ कि हम लोग कोशिश तो पूरी करते हैं कि सब कुछ समय से व सकुशल हो जाये किंतु जिन परिस्थितियों व दिये गये संसाधनों में हम काम करते हैं, उसमें सब सही सलामत पूरा होने के लिये भाग्य का हमारे साथ होना आवश्यक है। इसे हमारी विवशता ही समझ लें।

    ReplyDelete
  5. हानि ळाभ जीवन मरण , जस,अपयश विधि हाथ।।

    किसका वश चला है इन पर।

    ReplyDelete
  6. देवेन्द्र जी आप जो लघु कथाएं अपने आलेखों में प्रसंगवश लातें हैं एकदम सटीक बैठती हैं. प्रस्तुत आलेख में भी यही हुआ.

    लेकिन राजेश जी के वक्तव्य से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. हम या हमारे कोई भी तंत्र हों सुरक्षा को लेकर बहुत कम जागरुक है और यदि हैं भी तो प्रायारिटी में सुरक्षा बहुत पीछे होती है.

    आपने सच कहा है कि हम आज भी यही मानते है:

    "हानि ळाभ जीवन मरण , जस,अपयश विधि हाथ।।"

    बधाई सुंदर विचारोत्तेजक लेख के लिए.

    ReplyDelete
  7. घटना विशेष का दुःख और क्षोभ किसी तर्क से कम नहीं किया जा सकता....

    इससे इतर , अपनी जगह पर यह भी ध्रुव सत्य है कि काल पर किसी का वश नहीं चलता...

    ReplyDelete
  8. प्रिय रचनाजी व रंजनाजी, आपका हार्दिक आभार।

    ReplyDelete
  9. काल अपना काम करता है पर मनुष्य का स्वय़ं का भी कोई कर्तव्य तो होता ही है.

    रामराम.

    ReplyDelete
  10. जी रामपुरिया जी, कर्तव्य करना तो परम आवश्यक है। जब हम कर्तव्य से चूकते हैं या उससे मुँह चुराते हैं तो फिर हमें मात्र भाग्यभरोषे व नियति के सहारे ही तो जीना पड़ता है।

    ReplyDelete