Saturday, September 24, 2011

लेखन एवं भाषा व शब्दों की मर्यादा

मेरे बचपन में हमारे घर एक बुजुर्ग रिश्तेदार पधारा करते थे, उनकी उम्र अस्सी वर्ष से ज्यादा थी पर बड़ी चपलता से साइकिल चलाते दो तीन महीने में एकाधबार हमारे घर अवश्य आते। ऊँचा कद, गौर वर्ण,दुबले पतले पर स्वस्थ, युवाओं की तरह फुर्तीले व सक्रिय, धवल खादी का कुर्ता व धोती व पैर में चमड़े का नागरी जूता , इस स्वच्छ व शालीन भेषभूषा एवं मुखमंडल पर झलकती विद्वत्ता की आभा के कारण उनका इस उम्र में भी सुदर्शन व्यक्तित्व था।


खादी की भेषभूषा के अतिरिक्त अपने बात,विचार व आचरण में भी वे पूरे गाँधीवादी थे।वे हमारे अति सम्मानित व पूजनीय रिश्तेदार थे, अतः आवभगत व उनकी सेवा व सुविधा का हमारे पूरे परिवार द्वारा विशेष खयाल रखा जाता, हालाँकि वे स्वयं अति स्वावलंबी और अपने निजी आवश्यकताये स्वयं ही मैनेज करना पसंद करते थे- जैसे स्नान के लिये कुयें से स्वयं ही पानी खींचना, अपने कपड़े स्वयं धुल लेना ( जबकि अन्य बड़े-बुजुर्ग आते तो उनकी इन सेवाओं का बोझ हम बच्चों को उठाना पड़ता।) । 

वे कई वर्षों पूर्व एक मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुये थे किंतु बच्चों की शिक्षा की प्रगति जानने में और इस हेतु बच्चों का प्रोत्साहित करते रहने में उनकी विशेष अभिरुचि थी। वे हमारी किताबें, नोट्स को ध्यान से देखते, और कोई भी मात्रा अशुद्धि होती तो उसपर हमारा ध्यान इंगित कराते। पर सबसे खास बात थी कि उनका अंदाज इतना मित्रतापूर्ण, सहज, व अपनत्व भरा होता था कि उनके द्वारा हमारी गलतियों की ओर  संकेत या टिप्पड़ी  हमारे मन में किसी भी तरह का संकोच या गलतियों के प्रति सुरक्षात्मक भाव, जोकि प्रायः हम अपनी गलतियों की किसी दूसरे के द्वारा आलोचना होने पर उनके प्रति अपना लेते हैं, उत्पन्न करने के बजाय हमें अपनी गलतियों से सीख व एक नये ज्ञान के प्रति प्रोत्साहन प्रदान करती थीं। इसीलिये हम सभी बच्चे उन बुजर्ग के साथ अति सहज अनुभव करते। 

वे हम सभी बच्चों को विभिन्न विषयों पर निबंध लिखने को देते।जिस बच्चे का निबंध सबसे उत्तम होता उसे पुरस्कार के तौर पर अपने खादी के साफसुथरे थैले में करीने से रखे किसमिस,अखरोट और सूखे मेवे खाने के देते। मुझे याद आता है कि कुछ सामाजिक समस्या आधारित विषय जैसे- दहेज प्रथा, जात-पात,छूआ-छूत,राजनीतिक भ्रष्टाचार , गरीबी व बेरोजगारी,जंगलों का सफाया व पर्यावरण का प्रदूषण इत्यादि, जिनपर कि भावावेश में हम अपने लेख में प्रायः अति प्रतिक्रियात्मक भाषा शब्दों का प्रयोग कर देते,  तो वे हमें इसके लिये बहुत सावधान करते हुये और नसीहत देते कहते- कभी भी लिखते समय,सदा यह ध्यान रखो कि तुम्हारे लेखन की भाषा व उसका भाव मर्यादित हों, लिखते समय  सही शब्दों का चयन बहुत आवश्यक है, और उनके भाव  मर्यादित व भद्रतापूर्ण हों ।

वे कहते – लिखने में जो शब्द इस्तेमाल करते हो और उनके जो भाव होते हैं, उनमें पढ़ने वाले को तुम्हारा व्यक्तित्व व संस्कार दर्शित होता है। तुम कितनी भी सत्य बात लिखों किंतु यदि तुम्हारे शब्द क्रूर व किसी व्यक्ति विशेष, या समूह या समुदाय पर सीधे आक्रामक आक्षेप या प्रहार करते हैं, जो किसी के मन को पीड़ा पहुंचाता हो या प्रतिष्ठा पर आघात करता हो, तो निश्चय ही तुम्हारे सारे लेखन की सार्थकता व शुभ उद्देश्य उपेक्षित हो जाता है, बजाय ऐसे लेखन से घृणा व झगड़े ही बढ़ते हैं।

वे इसी संदर्भ में हमें एक संस्कृत के श्लोक का स्मरण दिलाते-

सत्यं ब्रूयात्,प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, येष धर्मः सनातनः।

अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो, सत्य किंतु अति अप्रिय भी मत बोलो । इसी तरह प्रिय किंतु झूठ भी मत बोलो, यही सनातन धर्म है।

वे सावधान करते हुये कहते कि ध्यान रहे , तुम्हारी मौखिक कही बात तो लोग समय के साथ भूल भी जाते हैं, किंतु लिखी हुई बात तो समय के स्लेट पर अमिट लकीर की तरह होती है, लिखे शब्द बार-बार पढ़ने वाले को अपने भाव का स्मरण दिलाते रहते हैं।अतः लिखते समय तो उपरोक्त सिद्धांत और मर्यादा का पालन और महत्वपूर्ण हो जाता है। 

मैं जब भी कोई लेखन करता हूँ तो मेरे बुजुर्ग रिश्तेदार की वे कही बातें सायाश स्मरण हो आती हैं एवं लिखे शब्द और उसके भाव पर स्वभावतः ध्यान चला जाता है कि उनके अर्थों में कोई क्रूरता या प्रतिक्रियात्मक व हिंसात्मक भाव तो सन्निहित नहीं है।उनकी पुरानी नसीहत मेरे लेखन के दौरान किसी उत्तेजना या आवेशपूर्ण , आक्षेप या आहत करने वाले विचार-अभिव्यक्ति पर मर्यादा व नियंत्रण रखने में सहयोग करती है।

मैं फेसबुक या अन्य सोसल नेटवर्क जिनका मैं सदस्य हूँ,पर प्रायः देखता हूँ कि कुछ मित्रजन कुछ मुद्दों पर , जो निश्चय ही आज हमारे देश , समाज या संस्थानों के सामने गहरी चुनौती और संकट बन कर खड़े हैं, बड़ा ही उत्तेजनात्मक व प्रतिक्रियात्मक भाषा का इस्तेमाल करते हैं, ऐसे शब्द का प्रयोग करते हैं जिनमें किसी विशेष व्यक्ति,समुदाय या संस्थान के प्रति क्रूरता व हिंसा का भाव दर्शित होता है । तब मुझे उन बुजुर्ग की यह नसीहत व चेतावनी बरबस स्मरण आती हैं कि ऐसे लेखन से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा होने व कोई समाधान या सुधार होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक घृणा और वाद-विवाद और झगड़े ही बढ़ते हैं।


और तब मन इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ऐसा विचार जिससे घृणा और झगड़े-विवाद बढ़ें, उसे लिखने , अभिव्यक्त करने के बजाय तो मौन रहना ही ज्यादा श्रेयस्कर व कल्याणकारी है।

7 comments:

  1. Well written , last 4 para's i am 100% agree.

    Thanks for writing n sharing beautiful thoughts.

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  2. सत्यं ब्रूयात्,प्रियं ब्रूयात्

    आधा सीख लिया है, आधा सीखना है।

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  3. कुछ का तो शायद झगड़े-विवाद से ही कारोबार है.

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  4. सच कह रहे है देवेन्द्र जी लेखन किसी सार्थक उद्देश्य के लिये हो तो उत्तम होगा लेकिन ऐसी सीख सबके गले नहीं उतर पाती. बहुत सुंदर विचार रखे हैं आपने. बधाई. यूँ आपके संस्मरण बड़े सुंदर होते है.

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  5. प्रिय रचना जी, आपकी सुंदर और सार्थक टिप्पड़ी मुझे बेहतर व सार्थक लिखने के लिये सदैव प्रोत्साहित करती है। आपका हार्दिक आभार।

    तृप्ति,प्रवीण जी एवं राहुल जी टिप्पड़ी हेतु आपका हार्दिक आभार

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  6. आभार तो आपका है देवेद्र भाई कि इतनी सहजता
    और सरलता से आपने बहुत ही सुन्दर,सार्थक और
    बार बार मनन करने वाली अनुपम बातें हमे बताईं.

    काश ! हम सब आप की बातों से सीख ले ब्लॉग
    जगत को स्वस्थ वातावरण से ओत प्रोत कर पायें.

    पुनः,बहुत बहुत आभार आपका.

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  7. राकेश जी आपके प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार।

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