Tuesday, September 13, 2011

बूँद-बूँद से घट भरे.....




कुछ छोटी बातें हैं,जिनपर हमारा सहज ध्यान भी नहीं जाता,और जब ध्यान जाता है तो एक आश्चर्य सा होता है कि क्या यह अकस्मात हो गया या अरे, यह कब और कैसे हो गया।जैसे नल के नीचे रखी शाम को खाली बाल्टी,सुबह देखा तो ळबालब भरी है,जब कि नल तो बंद था।ध्यान से देखा तो नल में मामूली रिसाव है और कुछ अंतराल पर टिप से एक बूँद गिरती है। यह छोटी बूँद जिसपर सहज ध्यान भी नही जाता, पर आश्चर्य कि मात्र रात्रि भर की अवधि में नियमित अंतराल से गिरने वाली मामूली सी बूँद एक पंद्रह-बीस लीटर क्षमता की बडी बाल्टी को भरने में सक्षम है।इसी तरह तो हमारे स्वयं के जीवन में आदतों व संस्कारों की रिक्त बाल्टियाँ हमारी दिनचर्या में शामिल छोटे-छोटे क्रियाकलापों की छोटी किंतु नियमित जलबूँदों से कब भर जाती है, हमें पता ही नहीं चलता।

अपनी मामूली सी तात्कालिक सुविधाओं को पाने  हेतु या छोटीछोटी गलतियों पर परदा डालने अथवा उनसे होने वाले संभावित दंड से बचने हेतु हमारा छोटे-मोटे बहाना या झूठ बोलना कब हमारी आदतों और फिर संस्कार में शामिल हो जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता।

इसी तरह हमारी स्वस्थ दिनचर्या, जैसे – प्रातःकाल उठकर भ्रमण,योगासन अथवा व्यायाम,सोने से पूर्व अपने अभिरुचि के किसी विषय की पुस्तक के कुछ अंश अवश्य पढना,देखते देखते हमारे शरीर सौष्ठव,स्वास्थ्य और ज्ञानविकास में अद्भुत योगदान करते हैं। 

थोडा ही सही किंतु धन का निरंतर व लम्बी अवधि का संचय, कोई भी योजना हो, चाहे एफ.डी. या रिकरिंग डिपॉजिट या शेयर में निवेश, एक दिन बढकर एक इतनी बडी धनराशि बन सकता है कि हम धनवानों की श्रेणी में गिने जाने लगें। 

अगर हम महत्त्वपूर्ण उद्योग संस्थानों व बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जीवनकाल व इतिहास का अध्ययन  करें तो शायद यहीं निष्कर्ष निकलेगा कि सौ-सवा सौ साल पहले उनकी कुछ हजार डॉलर की एक मामूली सी शुरुआत आज कई सौ खरब डॉलर के भारी व्यवसाय में बदल चुकी हैं।इसी तरह संसार के बडे-बडे विश्वविद्यालय,शिक्षा-केंद्र,पुस्तकालय जो कभी एक छोटी सी शुरुआत थे,  आज विश्व के मुख्य ज्ञान केंद्र के रूप में बदल गये हैं।

इस तरह किसी भी क्षेत्र में हम अपनी दृष्टि डालें,हमारे निरंतर व लम्बी अवधि का श्रम,उद्योग,ज्ञानार्जन अथवा धन-निवेश तत्काल देखने में कितना ही लघु क्यों न हो, एक लम्बे अंतराल के उपरांत अति विशाल बन जाता है।

यदि मनुष्य के व्यक्तित्व विकाश में धर्म-ग्रंथों व आचार-संहिताओं की भूमिका की बात करें तो हमें यही मूल दर्शन दृष्टिगत होता है कि इन धार्मिक पद्धतियों व आचार-विचारों को अपनी दिनचर्या में पूर्ण अनुशासन से समाहित कर लेने से ये आचार-विचार अंततः हमारे अंदर सद्गुण व संस्कार बनकर स्थाई रूप से स्थापित हो जाते हैं।

चाहे सनातन धर्म की दिन-रात्रि के संक्रमण काल में संध्यावंदन का विधान हो, या इस्लाम में दिन में पाँच बार नमाज अदा करने का विधान हो,या ईसाई धर्म में सुबह चर्च में सामूहिक प्रार्थना का विधान हो, इनका उद्देश्य हमारी दिनचर्या में इनको शामिल कर, इनके नियमित बूँद-बूँद से हमारे अंदर ऐसे संस्कार का घट भरना है जो हमें  एक अच्छा,आचारशील व सद्गुण युक्त सहिष्णु मनुष्य बनाये।

8 comments:

  1. बहुत ही जानकारी भरा लेख है।

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  2. हमने तो न जाने कितने नल खुले छोड़ दिये हैं। अब बाल्टी लगाते हैं।

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  3. प्रवीण पाण्डे जी तो नित्य तरण ताल में ही ध्यानस्थ होते हैं.
    हाँ,हम जरूर प्रयास करेंगें बूंद बूंद से सागर भरने का.

    आपकी सुन्दर सार्थक प्रस्तुति संग्रहणीय है.
    आभार.

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार है.

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  4. सच बात -"अरे, यह कब और कैसे हो गया।" कल ही जब अपने बनाए पॉडकास्ट देखने लगी तो महसूस हुआ था....

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  5. @संदीप पवाँर जी, @प्रवीण जी, @राकेश जी, @अर्चना जी और @संजय जी, आप सब का हार्दिक आभार।

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  6. इन धार्मिक पद्धतियों व आचार-विचारों को अपनी दिनचर्या में पूर्ण अनुशासन से समाहित कर लेने से ये आचार-विचार अंततः हमारे अंदर सद्गुण व संस्कार बनकर स्थाई रूप से स्थापित हो जाते हैं।

    बहुत सटीक बात कही आपने.

    रामराम

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  7. धन्यवाद रामपुरिया जी ।

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