Monday, November 28, 2011

....जीवन- मरुस्थल में मेरे अमृत गंगाजल बहा दो ।


प्रात: किरण प्रहार से विचलित  तिमिर,
भृकुटिबल दे धमकियाँ संध्यागमन की।
दिवस को चिरंजीवी हो! वरदान देकर,
तम की आशंका कोई जो तुम उसे निर्मूल कर दो।1।

राग-भ्रम-माया विनिर्मित  तल अनेकों ,
है मेरा निवास ऊँचे विशाल इस  अट्टालिका में।
कम्पनमयी जो पापजीवन के प्रलय भूकम्प से,
आधार तुम  बन अब स्वयं निष्कम्प कर दो।2।

मूर्छित है मेरी चेतना जन्मातरों से,
कलुष मन, कलुषित हृदय तम से भरा।
जीवंत जागृत कर उसे संजीवनी दे,
चिरप्रकाशित ज्ञान तुम दीपक जला दो।3।

भीड़मय जीवनसफर में मैं अकेला,
चल रहा अनजान सा अव्यक्त पथ पर।
एक तुम ही पूर्व-परिचित पथ-प्रदर्शक,
कल्याण और शुभ राह का संकेत दे दो।4।

निर्पत्र हो निर्जीव हूँ मैं हिमशिशिर का ताप सहते,
झेलता आतंक मैं झोंके पवन के तेज बहते
श्रीहीन हूँ उजड़े हुये उपवन में अपने,
रितुराज बन तुम पुष्प अगनित रंग भर दो।5।

प्यास बढ़ती ही गयी जो मधु-सुरस पीता गया,
बढ़ता रहा मनताप भी जो मन यह उन्मादित रहा
अतृप्त है यह आत्मा,प्यासी रही है कल्प तक, 
जीवन- मरुस्थल में मेरे अमृत गंगाजल बहा दो ।6।

2 comments:

  1. अद्भुत...!
    हे देव बस इतनी अरज है हमारी
    जोड़ पाऊँ खुद को इस प्रार्थना से।

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  2. प्रवाह बड़ा तेज था, पर लहरें मन में शान्ति लेकर आयीं।

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