Sunday, June 17, 2012

सुख-सुविधाओं का उन्माद के हद तक अधिग्रहण की खतरनाक प्रवृत्ति....


विगत अप्रैल, एक लम्बे अंतराल के उपरांत मेरा गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ अपनी भांजी की शादी में शामिल होकर वापसी में वाराणसी ना हुआ, जहाँ मेरे मातापिता व छोटे-भाई का निवास है ।मैं अपनी पत्नी व सुपुत्री के साथ यात्रा में था और सौभाग्य से ट्रेन में रिजर्वेसन कन्फर्म था। किंतु हमारे देश में और विशेषकर जब आप उत्तरभारत की यात्रा पर हों तो आपका रिजर्वेसन और बर्थ कन्फर्म है , इसका कतई यह मतलब व इस बात की गारंटीसमझें कि इससे आपकी निश्चिंत और बाधारहित यात्रा सुनिश्चित है,बल्कि आपका रिजर्वेसन व कन्फर्म बर्थ को बावजूद कहीं भी और कोई भी अप्रत्यासित बाधा आ सकती है और आप उसका सामना करने को  किसी भी क्षण तैयार रहें।

जैसे ही ट्रेन प्लेटफॉर्म से प्रस्थान की व हम अपनी बर्थ और केबिन में स्वयं व अपने सामान-सूटकेस इत्यादि के साथ सुव्यवस्थित हो पाते कि एक युवा महिला-पुरुष का जोड़ा काफी सामान लगेज के साथ डिब्बे में घुसा ।चूँकि ट्रेन में उनका रिजर्वेसन नहीं था और दुर्भाग्य से हमारा पहला केबिन था, अत: वे अपने पूरे सामानलगेज के साथ हमारे केबिन में डेरा डाल दिये।अभी कुछ मिनट पहले तक ही जहाँ हमलोग और हमारा सामान इत्मिनान और आराम के साथ अपने स्थान सुव्यवस्थित बैठे थे, वहीं अब हमें अपनी जगह पर सिकुड़ और एड्जस्ट करके बैठना पड़ा था।

थोड़ी असुविधा के बावजूद मैंने टिकट कंडक्टर के आने का इंतजार किया।ट्रेन चलने के लगभग पंद्रह मिनट के उपरांत कंडक्टर महोदय प्रकट हुये,उन्होंने हमारा तो टिकट और रेलवे पास चेक किया,किंतु इन हमारे केबिन में अनघिकृत अधिकार जमाये महोदय से कंडक्टर द्वारा टिकट दिखाने की माँग पर  उन्होने बेधड़क बताया कि वे फलाँ रेलवे मजिस्ट्रेट के सुपुत्र हैं और साथ में उनकी पत्नी हैं।(गोया रेलवे मजिस्ट्रेट के परिवारजनों को न तो पास की जरूरत होती है न तो किसी टिकट की, रिजर्वेसन तो दूर की बात है । )  कंडक्टर भी अपनी स्वीकृति में सिर हिलाते आगे बढ़ गया ।मैं बड़े ही निराशाभाव से कंडक्टर को जाते देखता रहा।

पाठकों की जानकारी के लिये बता दूँ कि रेलवे मजिस्ट्रेट राज्यसरकार की निजली  व जिला अदालतों के जज होते हैं जो बिना टिकट यात्रा करने वाले अवैध यात्रियों को दंड व सजा सुनाने हेतु रेलवे विभाग की सेवा हेतु नियुक्त होते हैं व उनके ऊपर भारतीय रेल व उसके यात्रियों को न्याय व अधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी होती है । किंतु यह भी एक शुद्ध भारतीय विडंबना ही है कि  न्याय के लिये अधिकृत अधिकारी के घर के सदस्य होने के नाम पर ही रेल में इनके परिवारजन अनधिकृत यात्रा करते हैं।

केबिन में हालाँकि अधिकृत आरक्षण हमारा था और वे युगल अनधिकृत बैठे थे  किंतु वर्तमान स्थिति में उनके आधिपत्य जमा लेने व उनकी शारीरिक भाषा से तो यही लग रहा था कि बर्थ और केबिन पर असली अधिकार तो उनका ही है,बल्कि हम लोग ही वहाँ अवांछित बैठे हैं।उन्होंने अपने साथ लाये दर्जन भर से ज्यादा संख्या में बड़े व छोटे बैग व थैले कुछ तो सीट के नीचे और कई सीट पर रखे थे।उन्होने खाने के सामान के कई डिब्बे व पैकेट निकाले व उन्हें वहीं बर्थ पर रखकर खाने लगे। उन्हे इस बात की न तो कोई फिक्र थी न तो परवाह कि वे वहाँ अनधिकृत रूप से बैठे हैं और वैसे भी यात्रा के दौरान उन्हे सहयात्रियों की सुविधा का भी ध्यान रखना चाहिये। 

हमें असुविधा तो हो रही थी किंतु सभ्यता व सहयात्री की मर्यादा का ध्यान व संयम रखे खामोशी से बर्दास्त किये हुये थे।हद तो तब हो गयी जब उन महोदय ने बिना मुझसे इजाजत लिये अथवा कोई औपचारिकता निभाये चार्जिंग में लगा मेरा मोबाइल हटाकर मेरे ही चार्जर से अपना मोबाइल फोन चार्जिंग में लगा दिया। यह मुझे अति नागवार गुजरा और मेरे आपत्ति जताने पर उन्होंने बिना कोई शर्मिंदगी अथवा झेंप दिखाये उल्टा  मुझपर ही आरोप लगा दिया कि मैं काफी समय से मोबाइल चार्ज कर रहा हूँ।मेरे यह पूछने पर कि कम से कम मेरा चार्जर उपयोग में लाने हेतु आपको मुझसे औपचारिक अनुमति लेनी चाहिये,उन्होने कहा कि जब आप देख ही रहे हैं तो फिर पूछने की जरूरत क्या है।

अपनी लगभग 21 वर्ष की रेलसेवा में मुझे पहली बार इस तथ्य की निजी - अनुभूति हुई कि रेलवे की सेवा में राज्य-सरकार द्वारा नियुक्त जिम्मेदार न्यायाधिकारियों के परिवार के सदस्य बिना किसी अधिकृत पास या रेलटिकट के ट्रेन में छुट्टा साँड़ की तरह यात्रा करने व ट्रेन में यात्रा कर रहे वैध यात्रियों को सींग मारने का बिना किसी रोक-टोक के  स्वच्छंद व मनमानी अधिकार रखते हैं। जब मैंने कंडक्टर महोदय को वापस बुलाकर इन अनधिकृत यात्रियों के विरुद्ध अपनी आपत्ति जताई तो यह जानते हुये कि मैं भी एक रेल-अधिकारी हूँ, कंडक्टर ने उन महोदय को समझाने का प्रयास व उन्हे यात्रा में थोड़ा एडस्ट करके व शांति से बैठने का अनुरोध  किया तो वे महोदय उल्टा कंडक्टर पर अपने पिता के ओहदे की धौंस जमाते हुये उसे देख लेने की धमकी देने लगे।कंडक्टर भी असहाय भाव दिखाते व किसी पचड़े में न पड़ने का भाव दिखाते,उनपर बिना कोई कार्यवाही किये वहाँ से चुपचाप खिसक लिया।

जन सुविधाओं, विशेषकर जनपरिवहनों  के उपयोग के दौरान कुछ मनबढ़ व्यक्तियों द्वारा अपने सहयात्रियों के साथ इस तरह की असहिष्णुता,उद्दंडता, और उन्माद के हद तक सुविधाओं के अधिग्रहण की प्रवृत्ति प्रायः देखने को मिल जाती है, और दुर्भाग्य से हम सभी इसे बिना किसी तरह का प्रतिरोध जताये इसे अपनी नियति समझकर स्वीकार कर लेते हैं और बाद में इसे मात्र एक दुःस्वप्न की भाँति भूल जाने का प्रयास करते हैं। कई बार तो इसी सुविधाओं को बलात्कारपूर्ण अधिग्रहण की प्रवृत्ति व उन्माद में ऐसे राक्षस-प्रवृत्ति लोग दुःसाहस पूर्ण हरकत करते हुये मरने-मारने पर भी उतारू हो जाते हैं,और हमारी  सुरक्षा व अपराध नियंत्रण एजेंसियाँ भी ऐसी अवांछित हरकतों के  रोकथाम हेतु कोई प्रभावी कार्यवाही करने के बजाय  मात्र मूक-दर्शक बनी देखती रहती हैं। ऐसी घटनायें व हादसे प्रायः अख़बार में पढ़ने को मिलता है।

आवश्यकता है इस विडंबनापूर्ण व संवेदनहीन स्थिति को बदलने व एक सुरक्षित व आत्मविश्वास पूर्ण वातावरण सुनिश्चित करने की जिसमें जनसाधारण सुरक्षित, सम्मानित व सुविधाजनक रूप से जनसुविधाओं का बाधारहित उपयोग करने में समर्थ हों। 

7 comments:

  1. अभद्र और अशिष्ट व्यवहार से बहुत खेद होता है.
    हाल में अमेरिका यात्रा करके लौटा हूँ.

    वहाँ जो सबसे बड़ी सीखने वाली बात मिली वह
    वहाँ का डिसिप्लिन.हमे भी यह देर सबेर सीखना ही होगा,
    यदि हम अपना कुछ भी उत्थान करना चाहते हैं.

    आपकी प्रस्तुति से आपकी पीड़ा मैं समझ सकता हूँ.

    देवेन्द्र भाई,क्या आप मेरा ब्लोग बिलकुल ही भुला चुके हैं.

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  2. एक रेल अधिकारी का रेलगाडियों में होने वाले आम लोगों की तरह ही अभद्रता और अशिष्टता से दो चार होना रेल यात्रा के कष्टों से रूबरू कराता है. पता नहीं अनुशासन हम लोगों में कब आएगा यद्यपि पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कम क्षमता भी इसके लिये कुछ हद तक जिम्मेदार है.

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  3. आप स्वयं रेल अधिकारी होते हुए भी,अपने खुलकर विरोध क्यों नही किया,जब रेल के अधिकारी ही
    अपना कर्तव्य भूल जाए तो आम लोग किससे शिकायत करें,,,,,,,

    RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,

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  4. विडम्बना ही कही जायेगी कि लोग अपना अधिकार समझे बैठे हैं, नियमों को ताक पर रखकर..

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  5. मन को व्यथित करता है ऐसा व्यव्हार ..... नियम तक पर रखना तो जैसे शान समझते हैं हम .....

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  6. एक रेलअधिकारी को यह सब सहन करना पड़ा तो आमजन की क्या बिसात!
    दुखद घटना। उस टीटी की शिकायत का कोई तो प्राविधान होगा।(:

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  7. ताज्जुब है और खेद भी ...ऐसे लोगो की लिखित शिकायत करनी चाहिये ...!!

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