Friday, September 28, 2012

आत्मार्पण स्तुति

आत्मार्पणस्तुति के रचइता स्वामी अप्पय दिक्षितेंद्र अपनी एक महत्वपूर्ण कृति
की पांडुलिपि अपने सुपुत्र नीलकांत को सुपुर्द करते हुये(चित्र www.speakingtree.in के सौजन्य से)


विगत दिनों में  शिवआराधना के कुछ महत्वपूर्ण सूक्तों, स्तोत्रों व मंत्रों से परिचय होने का मुझे सौभाग्य मिला व उनके बारे  में स्वल्प संभव जानकारी प्राप्त कर पाया हूँ। इसी क्रम में मेरा परिचय प्रसिद्ध अद्वैत वेदांत प्रतिप्रादक अप्पय दिक्षितेन्द्र कृत आत्मार्पण स्तुति स्तोत्र से हुआ व इसे पढ़ना व इसके शास्त्रीय सस्वर गायन को सुनना बड़ा ही आनंदमयी अनुभव रहा।

अप्पय दिक्षितेंद्र जी का जन्म 1580-95 0 के आसपास वर्तमान तमिलनाडु राज्य के अंतर्गत कांची मंडल के आडपल्यम् स्थान पर एक आंध्र ब्राह्मण परिवार में हुआ था।वे आदिशंकराचार्य के समर्थक व वेदांत-दर्शन के परम विद्वान थे।वे शंकर प्रतिपादित अद्वैतसिद्धांत के परम समर्थक व शैव-वैष्णव मतभेद के विरुद्ध थे,क्योंकि उनके विचार से शिव व विष्णु दोनों ही परमब्रह्म के ही एक स्वरूप मात्र हैं।उनका प्रयास सदैव शैव-वैष्णव मतभेदों को दूर करने में रहा। सन् 1626 0 में वे शैवों व वैष्णवों के बीच उत्पन्न हुये भारी हिंसक झगड़े को निपटाने हेतु वे पांड्य देश गये थे।

स्वामी अप्पय दिक्षितेंद्र जी द्वारा रचित विभिन्न 104 कृतियाँ उपलब्ध हैं । आदि शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत के समर्थन में उन्होने अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन करने के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र के शैवभाष्य पर श्री शिव की मणिदीपिका नामक टीका इनकी प्रधान कृतियाँ हैं।

अद्वैतमतानुयायी होने के उपरांत भी उनकी भगवान शिव व शैवमत के प्रति विशेष आस्था व भक्ति थी।उनकी शिव के प्रति गहरी भक्ति व प्रेम के कारण ही अप्पय दिक्षितेंद्र जी के श्रीमुख से आत्मार्पण स्तुति जैसे अद्भुत स्तोत्र की व्युत्पत्ति हुई।कहते हैं कि भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति का स्वयं परीक्षण करने हेतु अप्पय दिक्षितेंद्र जी ने धतूरा खाकर उन्मत्त अवस्था में चले गये व अपने शिष्यों को निर्देश दिया था कि अपनी उन्मत्त अवस्था में वे जो भी भाव व विचार व्यक्त करें,वे उनको यथावत लिपिबद्ध कर लें,जिससे उनको स्वयं की पराचेतनावस्था में मन में बचे किसी भी प्रकार के वैचारिक विकार का परिज्ञान हो सके ।इस प्रकार अप्पय दिक्षितेंद्र जी ने धतूरे की नशे की उन्मत्त परावस्था में शिव की स्तुति में जो विचार व्यक्त किये वही आत्मार्पण स्तोत्र के नाम से जानते हैं।इस स्तोत्र को उन्मत्तस्तुति भी कहते हैं।

आत्मार्पणस्तुति स्तोत्र भगवान शिव के भक्तों व आराधकों में परमप्रिय है।इस स्तोत्र में कुल 50 श्लोक हैं।इसका प्रत्येक श्लोक एक प्रदिप्त ज्ञानमणि है,व  भगवान शिव की परमब्रह्म स्वरूप उपासना स्तोत्रों में अद्वितीय है।

इस स्तुति के प्रारंभ , प्रथम श्लोक, में उस परमब्रह्म शिव के अनंतस्वरूप व उसके प्रति अनन्य भक्ति की विनम्रता के सहज मार्ग द्वारा ही उसकी प्राप्ति की महिमा वर्णित है -

कस्ते बोद्धुं प्रभवति परं देवदेव प्रभावं
यस्मादित्थं विविधरचना सृष्टिरेषा बभूव।
भक्तिग्राह्यस्तवमिह तदपि त्वमहं भक्तिमात्रात्
स्तोतुं वाञ्छाम्यतिमहदिदं साहसं मे सहस्व।

अर्थात्- हे परमेश्वर,आपकी महिमा को कौन जान पाया है!आप, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की व्युत्पत्ति के कारण व माध्यम हैं, को प्राप्त करने का एकमात्र  माध्यम केवल आपके प्रति पूर्ण भक्ति व समर्पण है,हे प्रभु मेरी इस अज्ञानपूर्ण  स्तुति को अपने क्षमाशीलता के स्वभाव से स्वीकार करें।

इस स्तुति में परमपिता परमेश्वर के ही आदिस्वरूप होने व इसे ही सभी व्युत्पत्तियों का कारण,इससृष्टि,पृथ्वी चराचर जगत की उत्पत्ति का मुख्य श्रोत बताया है-
 
क्षित्यादीनामवयववतां निश्चितं जन्म तावत्
        तन्नास्त्येव क्वचन कलितं कर्त्रधिष्टानहीनम् ।
नाधिष्टातुं प्रभवति जडो नाप्यनीशश्चभाव-
        स्तस्मादाद्यत्वमसि जगतां नाथ जाने विधाता ॥ २ ॥
 
अर्थात्- इस पृथ्वी,चराचर जगत की व्युत्पत्ति का निश्चय ही एक आदि श्रोत है,जिसकी स्वयं की व्युत्पत्ति भी किसी परमकर्ता के कारण ही संभव है,जो निश्चय ही परमब्रह्म व ज्ञान स्वरुप, हे प्रभु ! आप स्वयं ही हैं। 

स्तोत्र का समापन भगवान शिव के प्रति पूर्ण समर्पण व शरणागत होने की उनके प्रति याचना से इस प्रकार होती है-

आत्मार्पणस्तुतिरियं भगवन्निबद्धा
यद्यप्यनन्यमनसा न मयि तथापि
वाचापि केवलमयं शरणं वृणीते
दीनो वराक इति रक्ष कृपानिधे माम् ।

अर्थात् हे प्रभु,यद्यपि मैं आपकी स्तुति  पूर्ण स्थिर चित्त से नहीं कर पाया हूँ किंतु हे दयानिधान मुझे असहाय,दीन समझकर मेरी इस क्षुद्र स्तुति समर्पण को स्वीकार करें।

आपकी सुविधा हेतु मैं इस स्तोत्र की आडियो फाइल, जो मैंने www.shaivam.org से डाउनलोड किया है और यह सुब्बलक्ष्मी कृष्णामूर्ति की आवाज में है, का लिंक नीचे संलग्न किया है। समय यदि अनुमति दे तो इसे अवश्य सुनें।    


Wednesday, September 26, 2012

घर नाहीं मेरे श्याम


पंडिता श्रीमती आरती अंकलेकर-टिकेकर

जी हाँ, अद्भुत आवाज है आरती अंकलीकर-टिकेकर जी की।सच पूछें तो शास्त्रीय गायन व इसकी विधाओं के बारे में न तो मेरी कोई जानकारी ही है और न तो कुछ लिख सकने की योग्यता ही,सिवाय इसके कि इस अद्भुत गायकी विधा के महान गायकों की आवाज में भजन,संस्कृत स्तोत्र व खयाल गायन को सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है, इससे मेरे मन व मस्तिष्क को अति सुकून मिलता है, फिर भी यह ऐसा सुखद अनुभव था कि आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

दो दिन पूर्व जब मैंने नोकिया म्यूजिक से डाउनलोड किये कुछ कृष्ण भजन व स्तुति के अलबम, जो विभिन्न जाने-माने गायकों- जैसे सुरेश वाडेकर,साधना सरगम व यशुदास की आवाज में हैं, अपने मोबाइल फोन पर सुन रहा था, तो एक मीरा भजन – मुरलिया बाजे यमुना तीर एक अलग तरह की अनुनादमयी मधुर , जादूई व दैवीय आवाज सुनकर मन एक अलग प्रकार की शांति का अनुभव किया।यह आवाज मैंने पहली बार सुनी थी व उत्सुकता हुई कि आखिर किसकी जादूई व दैवीय आवाज है यह , तो  इस Mp3 फाइल की टाइटिल चेक किया तो ज्ञात हुआ इसकी गायिका आरती अंकलीकर जी हैं।हालाँकि इस प्रसिद्ध मीरा भजन के बोल तो पूर्वपरिचित थे व इसे कितने ही प्रसिद्ध गायकों की आवाज में सुना होगा, किंतु आरती जी की आवाज में इस भजन को सुनना तो एक अलौकिक ही अनुभव था।

मन का सारा ध्यान तो इस गीत को सुनने में ही था किंतु इस विलक्षण आवाज की मल्लिका गायिका के बारे में जानने की उत्सुकता भी प्रबल हो रही थी । फिर गूगल सर्च की सहायता से विकीपिडिया पर आरती अंकलीकर जी के बारे में जो जानकारी मिली वह इस प्रकार थी-
आरती अंकलीकर नयी पीढ़ी के भारतीय शास्त्रीय संगीत गायकों में अग्रगण्य मानी जाती हैं।विभिन्न प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों, जैसे स्वर्गीय पंडित वसंतराव कुलकर्णी(आगरा-ग्वालियर घराना),श्रीमती किशोरी अमोनकर(जयपुर-अतरौली घराना) व उनके वर्तमान गुरु पंडित दिनकर कैकिनी की शागिर्दी में खयाल गायकी सीखने के कारण उनके गायकी का अंदाज विभिन्न घरानों की गायकी के अंदाज का अनूठा मिश्रण है।उसपर उनकी अद्भुत अनुनादमयी मधुर आवाज उनकी गायकी को इस प्रकार अलौकिक बनाती है मानो स्वयं माँ सरस्वती गा रहीं हैं। आरती अंकलीकर जी के अनेकों संगीत अलबम प्रकाशित हो चुके हैं और वे कई प्रसिद्ध मराठी,कोकणी व हिंदी फिल्मों में प्लेबैक गायक भी रहीं हैं।

वे देश व विदेश में अनेक प्रसिद्ध संगीत समारोहों व कंसर्टों, जैसे सवाई गंधर्व महोत्सव(पुणे),मल्हार उत्सव(दिल्ली),पं. मल्लिकार्जुन मंसुर प्रणाम(भोपाल),डोवर लेन उत्सव(कोलकाता),आई टी सी संगीत सम्मेलन(चेन्नई), कंसर्ट टूर्स (यू यस ए व कनाडा) इत्यादि। को सुसोभित व अपनी गायकी से उन्हें महिमामंडित कर चुकी हैं।

एक अति योग्य शिष्य होने के साथ ही साथ वे स्वयं भी एक अति योग्य शिक्षक सिद्ध हो रही हैं जबकि उनकी संगीत शिक्षण अकादमी से नयी पीढ़ी के अनेकों अति योग्य शास्त्रीय गायक शिक्षण प्राप्त कर शास्त्रीय संगीत विधा की यशवृद्दि कर रहे हैं।

सरदारी बेगम,सावली,दे धक्का,दिल दोस्ती व धूसर जैसी हिंदी फिल्मों में कई प्रसिद्ध गाने इनकी अति सुंदर आवाज में हैं।मुझे यह तो जानकारी थी कि सरदारी बेगम श्याम बेनेगल जी की एक प्रसिद्ध फिल्म है जो नब्बे के दसक में आयी थी, किंतु इस फिल्म को किसी कारणवश कभी देखने अथवा इसके गीतों को सुनने का अवसर मिला हो याद नहीं आता।हालाँकि मैं स्वयं को श्याम बेनेगल जी की फिल्मों का गहरा प्रसंशक समझता हूँ,किंतु उनकी इतनी प्रसिद्ध फिल्म व इसके गानों को निभाने वाली इतनी अद्भुत गायिका के बारे में मेरी अनभिज्ञता के अहसास से मन को भारी संकोच व झिझक सी हुई की आखिर जीवन में हम स्वयं के बारे में कितनी गलत धारणायें रखते हैं,घोर अज्ञान में जीते हुये भी हम स्वयं को प्रायः महान ज्ञानी समझते रहते हैं।

गूगल पर मिल रही इस जानकारी के बीच ही मेरे मोबाइल फोन पर आरती जी की ही आवाज में दूसरा कृष्ण भजन – मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई बज रहा था। वाह, इसे सुनना तो पिछले भजन के सुनने से ज्यादा अलौकिक अनुभव था।यकीन मानें पिछले दो दिनों से इन दोनों भजनों को न जाने कितनी बार सुन चुका किंतु उन्हे पुनः सुनने की मन की लालसा घटती ही नहीं।

आरती जी के गाये गानों व भजनों के बारे में जानने व सुनने की उत्कंठा में ही आज YouTube पर उनके गाये अद्भुत गानों में कुछ जैसे- मीरा के भजन , सरदारी बेगम फिल्म के गानों  की वीडियो क्लिप्स प्राप्त हुईं ।इनको डाउनलोड कर व ऑडियोफाइल में कन्वर्ट कर अपने मोबाइल में संकलित कर लिया है। आज शाम को कार्यालय से घर वापस की यात्रा में इन गानों को सुनने का अवसर मिला और मन धन्य हो गया।सरदारी बेगम फिल्म में गाये उनके भजन व ठुमरी बेजोड़ हैं । चली पी के नगर जो कबीर दास का निर्गुण है, हुजूर इतना अगर हमपरकरम करते तो अच्छा था जावेद अख्तर की एक लाजबाब गजल है, सांवरिया देख जरा इस ओर एक मीठी सी ठुमरी है ।सबसे सुंदर अनुभव है दादरा में उनका गाया घर नाहीं हमरे श्याम को सुनना ।

सच में आरती अंकलीकर जी को सुनना एक अद्भुत अनुभव है।मन की लालसा और बढ़ गयी है,काश इस महान व विलक्षण गायिका का कभी साक्षात्कार व साक्षात गाते सुनने का सौभाग्य मिले। 

Friday, September 21, 2012

ॐ गं गणपतये नमः

सार्वभौमिक व सकलमंगलदायी कोटिकोटि नाम्नी भगवान गणेश
मेरा आवास कार्यालय से थोड़ा दूर होने के कारण शाम को ऑफिस से घर-वापसी की लगभग एक घंटे की शहर के बीच से गुजर कर यात्रा में भीड़-भाड़ वाली सड़कें,गाड़ियों की रेलम-पेल व ट्रैफिक सिगनल पर थका देने वाला इंतजार एक तनावपूर्ण पक्ष लिये अवश्य होते है, किंतु इसका सार्थक पक्ष यह भी हो जाता है कि दिनभर की व्यस्त दिनचर्या के बीच मेरा यह मेरा अपना समय होता है,जिसमें मैं अपने पसंद के गाने सुनने अथवा मन के चिंतन के अनुरूप लेखन कर पाने का अवसर लाभ उठा सकता हूँ, अथवा तो रात की रोशनी व चकाचौंध में नहाये शहर व इसकी भागम-भाग को निहारने का अवसरलाभ ही उठाता हूँ।

विगत दो-तीन दिन से गणेशचतुर्थी की पूजा में पूरा शहर, विशेषकर रास्ते में आने वाले अनेकों मंदिर प्रांगण, सुंदर रोशनी व सजावट से भरा हुआ और बड़ा ही मनोरम हो गया है।मंदिरों के प्रांगण में सजी स्थापित गणपति बप्पा की दिव्य व सुंदर मूर्ति और पूरे प्रांगण व इसके आस-पास के क्षेत्र की सुंदर रोशनी से सजावट मन को बरबस अपनी और खींचती हैं।एक तरह से पूरा शहर ही विगत दो-तीन दिन से विनायक-मय हो गया है।

वैसे तो भगवान गणेश पूरे भारत में ही हिंदुओं के प्रधानतम् आराध्य देव है, किंतु दक्षिण व दक्षिणमध्य भारत विशेषकर महाराष्ट्र,गोवा,कर्नाटक,आंध्रप्रदेश,तमिलमाडु,छत्तीसगढ़ राज्यों में गणेशपूजा व गणेशचतुर्थी के अवसर पर गणेशोत्सव व विशेष-पूजा का बहुत खास महत्व है, ठीक उसी प्रकार जैसे बंगाल प्रांत में दुर्गापूजा का विशेष महत्व है।

भगवान गणपति विघ्नविनायक गणेश की आराधना वैदिककाल से ही सनातन धर्म में प्रधान रही है। हर यज्ञ व पूजा में श्री गणेश का प्रथम देव के रूप में आराधना का विधान रहा है, और ऐसी मान्यता है कि किसी भी कार्य व यज्ञ की विघ्नरहित संपन्नता हेतु श्री गणेश की कृपा व प्रसन्नता परमावश्यक है। इसीलिये इनको विघ्नेश्वर भी कहते हैं।किंतु वर्तमान सामूहिक गणेशोत्सव का स्वरूप दक्षिण व दक्षिणभारत में मराठा शासन के प्रभुत्वकाल, विशेषकर वीर शिवाजी व उनके उत्तराधिकारी ब्राह्मण शासक पेशवा, जिनके कुलदेवता भी गणपति देव थे, के शासन काल में विकसित हुई। हालाँकि मराठा शासन के पतन के उपरांत व राजकीय सहायता की अनुपस्थिति में सामूहिक वृहत् गणेशोत्सव की परंपरा भी बिखर सी गयी व इसका स्थान अपने घर में सामान्य पूजा तक ही सीमित हो गयी किंतु उन्नीसवीं शताब्दी के अंत व बीसवीं शताब्दी के प्रारंभकाल में, विशेषकर लोकमान्य तिलक जैसे स्वराज्य के पुरोधा नेता की अगुआई में सामाजिक समरसता व एकता हेतु जिससे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्वराज की लड़ाई ज्यादा प्रभावकारी रूप में इकट्ठा होकर लड़ी जा सके, वार्षिक गणेशोत्सव की परंपरा शुरू हुई।

हिंदू कैलेंडर के भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ होकर अनंत चतुर्दशी तक चलने वाला यह 10 दिन का भव्य व अति उत्साहजनक धार्मिक, व साथ ही साथ सामाजिक उत्सव होता है। प्रायः यह उत्सव सितंबर माह के पहले सप्ताह से तीसरे सप्ताह में पड़ता है।

वैदिक शास्त्रों में गणपति वंदना के अनेकों स्तोत्र व मंत्रों का विधान है जिनका हमारे जीवन,सामाजिक,धार्मिक व याज्ञिक अनुष्ठानों में सदैव विशेष महत्व रहा है।किसी भी यज्ञ आथवा पूजा के प्रारंभ में निम्न मंज्ञों , जो कि शुक्लयजुर्वेद के अंश हैं,द्वारा सर्वप्रथम गणपति वंदना व उनका आह्वान अनिवार्य होता हैः
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे |निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ||
अर्थात्- हे परमदेव गणेशजी ! समस्त गणों के अधिपति एवं प्रिय पदार्थों प्राणियों के पालक और समस्त सुखनिधियों के निधिपति ! आपका हम आवाहन करते हैं । आप सृष्टि को उत्पन्न करने वाले हैं, हिरण्यगर्भ को धारण करने वाले अर्थात् संसार को अपने-आप में धारण करने वाली प्रकृति के भी स्वामी हैं, आपको हम प्राप्त हों ।।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।।


अर्थात्- हे अपने गणों में गणपति (देव), क्रान्तदर्शियों (कवियों) में श्रेष्ठ कवि, शिवा-शिव के प्रिय ज्येष्ठ पुत्र, अतिशय भोग और सुख आदि के दाता ! हम आपका आवाहन करते हैं । हमारी स्तुतियों को सुनते हुए पालनकर्ता के रुप में आप इस सदन में आसीन हों ।।
नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो
व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो नमो
गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो
विरुपेभ्यो विश्वरुपेभ्यश्च वो नमः ।।


अर्थात्--देवानुचर गण-विशेषों को, विश्वनाथ महाकालेश्वर आदि की तरह पीठभेद से विभिन्न गणपतियों को, संघों को, संघ-पतियों को, बुद्धिशालियों को, बुद्धिशालियों के परिपालन करने वाले उनके स्वामियों को, दिगम्बर-परमहंस-जटिलादि चतुर्थाश्रमियों को तथा सकलात्मदर्शियों को नमस्कार है ।।

हमारे वेद,उपनिषद व पुराण भगवान गणेश की वंदना व महिमा स्तुति के अनेकों मंत्रों, स्तोत्रों व कथाओं से परिपूर्ण हैं, जिनसे इनकी महिमा व महत्व के साथ-साथ उनके जन्म व जीवन से संबंधित अनेकों रोचक कथाओं का ज्ञान होता है।किस तरह माता पार्वती ने अपने चंदनलेप की सहायता से एक बालक मूर्ति की रचना की व उसमें उनके द्वारा प्राण डालकर बालक  गणेश जी का जन्म दिया व अपने स्नान की अवधि में प्रवेशद्वार की रक्षा की जिम्मेदारी दीं, किस प्रकार बालक गणेश अपने माता की दी गयी जिम्मेदारी को निभाने में स्वयं भगवान शिव को गृह में प्रवेश करने से रोका और जिस कारण शिव ने क्रोधवश बालक गणेश का सिर काटकर वध कर दिया,किसप्रकार माता पार्वती बालक गणेश की मृत्यु पर अति क्रोधित व पुत्र विछोह में दुःखी हो आदिशक्ति के प्रचंड रूप में सम्पूर्ण सृष्टि का ही विनाश करने को उद्यत हो गयीं, फिर किस प्रकार त्रिमुर्ति- ब्रह्मा,विष्णु व महेश ने एक मृत बालक-हाथी का सिर लाकर बालक गणेश को पुनः जीवित किया व इस तरह गणेश गजानन हो गये, जैसी अनेकों रोचक कथाओं से हम सभी पहले से ही भली-भाँति परिचित हैं।

जिसप्रकार किसी भी पूजा व यज्ञ के प्रारंभ में गणपति सुक्त के मंत्रों द्वारा गणपति के आवाहन व आराधना  का विधान है, उसी प्रकार पूजा के अंत में गणपति अथर्वशिर्ष स्तोत्र के मंत्रों द्वारा गणपति की अर्चना व स्वस्तिपाठ का भी विशेष महत्व है।गणपति  अथर्वशिर्ष स्तोत्र के मंत्र अथर्व वेद से लिये गये हैं ।इसलिये इसे गणपति अथर्वशिर्षोपनिषद भी कहते हैं। इन मंत्रों द्वारा विनायक भगवान के परमब्रह्म स्वरूप की महिमा का वर्णन करते हुये, उनके द्वारा जगत के सार्वभौमिक कल्याण की मंगलकामना की गयी है। विशेषकर महाराष्ट्र में इस स्तोत्र व इसके द्वारा विनायक आराधना का इतना महत्व है कि प्रायः वहाँ के सिद्दिविनायक मंदिरों की दीवारों पर इस स्तोत्र के सभी मंत्रों को उकेरित किया गया है।

गणपति वंदना के स्तोत्र व मंत्र संगीतमय छंदों में हैं,इसलिये शास्त्रीय गायकों व संगीतज्ञों के लिये भी ये सदैव प्रिय रहे हैं।हर शास्त्रीय गायक अपने गायन का प्रारंभ एक सुंदर गणेशस्तुति से ही करता है।इसीलिये प्रायः सभी गणेश मंत्र व स्तोत्र सभी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों की मधुर व दैवीय वाणी में उपलब्ध हैं। अथर्वशीर्ष स्तोत्र को भी सभी प्रधान व प्रसिद्ध गायको ने विभिन्न रागों में गाया है, जिसे सुनना अभूतपूर्व व अलौकिक दैवीय अनुभूति है।Youtube पर इनकी अनेकों विडियो क्लिप मौजूद हैं, जिन्हे आप सहजता से डाउनलोड कर सुन सकते हैं। आपकी सुविधा हेतु Youtube से ही डाउनलोड किया हुआ,लता मंगेशकर जी की दैवीय वाणी में गणपति अथर्वशीर्ष का आडियो क्लिप यहाँ मैंने संलग्न किया है । आशा है आप इस दिव्य स्तोत्र को इस दिव्यमयी वाणी में सुनकर अवश्य आनंदित होंगे।

गणपति अथर्वशीर्षस्तोत्रम्

Tuesday, September 18, 2012

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।


मन की संकल्पना हो शुभ  और पवित्रमय


Youtube पर ही एक दिन शिवसंकल्पसूक्त की क्लिप मिली जो किसी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक की  आवाज में थी, तो इन मंत्रों को सुन मन मंत्रमुग्ध हो गया। फिर कुछ ऐसा आभाष हुआ कि इन मंत्रों को तो पहले भी सुना है।

विचारों के अश्व भूतकाल की तलहटी में दौड़ पड़े व कुछ-कुछ यह समझ में आया कि यह तो बचपन में मेरे पैत्रिक-घर के शिव-मंदिर में श्रावण में होने वाले वार्षिक रुद्राभिषेक पाठ में ब्राह्मणपुजारी के द्वारा उच्चरित मंत्र हैं।सारे दृश्य आँख के सामने तैर से गये- श्रावणपूर्णिमा के कुछ दिन पूर्व मंदिर की रंगाई-पुताई में अपने बड़े बाबूजी (ताऊ जी) की सहायता करना,पूजा के दिन बेलपत्रादि,मंदार इत्यादि के पुष्प इकट्ठा करना व पुरोहित जी व अन्य ब्राह्मण पुजारियों द्वारा रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों व श्लोकों के स्वच्छ व प्रवाहमय उच्चारण के साथ बड़े बाबूजी द्वारा पाँच-छः घंटे की लम्बी अवधि तक श्रृंगी की सहायता से गो-दुग्ध द्वारा शिवलिंग का रुद्राभिषेक करना।हालाँकि मंत्रों के गूढ़ अर्थों से कोई परिचय नहीं होता था, किंतु वे कानों में ध्वनिस्वरूप प्रविष्ट कर हमेशा के लिये परिचित अवश्य बन गये।

अब इतने अंतराल के पश्चात् जब ये परिचित-ध्वनि श्लोक सुनने को मिले तो मन में इनका अर्थ जानने की उत्सुकता जगी।संयोगवश घर में आध्यात्मिक पुस्तकों के मेरे लघुसंकलन में गीता प्रेस प्रकाशित रुद्राष्टाध्यायी पुस्तक उपलब्ध थी और सुखद संयोगवश यह पुस्तक संस्कृत श्लोकों के हिंदी अर्थ व व्याख्या सहित है,मेरे मन की जिज्ञाषा की पिपाषा को शांत करने में यह पुस्तक बड़ी ही सार्थक सिद्ध हुई।

रुद्राष्टाध्यायी पुस्तक शुक्ल यजुर्वेद के विशिष्ट प्रधान सूक्तों व मंत्रों- जैसे शिवसंकल्प सूक्त,पुरुषसूक्त,आदित्यसूक्त,वज्रसूक्त,रूद्रसूक्त इत्यादि सहित दस ध्यायों का अद्भुत संकलन है। रुद्राष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय , जिसमें कुल 10 श्लोक हैं, के अंतिम छः श्लोक ही शिव संकल्पसूक्त हैं, जो शुक्ल यजुर्वेद के 34वें अध्याय का अंश है।

शिव संकल्पसूक्त हमारे मन में शुभ व पवित्र विचारों की स्थापना हेतु आवाहन करता है। मन हमारी इंद्रियों का स्वामी है।एक तरफ हमारीं इन्द्रियाँ जहाँ भौतिक विषयवस्तु की तथ्यसूचना प्राप्त करने का कार्य करती हैं, वहीं हमारा मन इन इंद्रियों में ज्ञानरुपी प्रकाश बनकर इन तथ्यों का विश्लेषण कर व उनको निर्देश प्रदान कर हमारे विचारों के रुप में  हमें यथोचित कर्म करने हेतु उत्प्रेरित करता है ।इस प्रकार हमारा मन जितना शुभसंकल्प युक्त है, हमारा जीवन व इसका अभीष्ट कर्म उतना ही शुभ, सुंदर, पवित्र व कल्याणमय होता है।

पाठकों की सुविधा हेतु मैंने रुद्राष्टाध्यायी पुस्तक व इंटरनेट पर प्राप्त हुई जानकारी के आधार पर शिवसंकल्प सूक्त के इन छः अद्भुत संस्कृत श्लोकों व इनके हिंदी में अर्थ यहाँ प्रस्तुत किया है-

 शिवसंकल्प सूक्त
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥१॥

वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥२॥

जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन(ऋषिमुनि इत्यादि)कर्मयोग की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं,वह(मन) जो  सभी जनों के शरीर में विलक्षण रुप से स्थित है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।


यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥३॥

जो मन ज्ञान, चित्त , व धैर्य स्वरूप , अविनाशी आत्मा से सुक्त इन समस्त प्राणियों के भीतर ज्योति सवरुप विद्यमान है, वह मेरा मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥४॥

जिस शाश्वत मन द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी वस्तुयें सब ओर से ज्ञात होती हैं,और जिस मन के द्वारा सप्तहोत्रिय यज्ञ(सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ) किया जाता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥५॥

जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाये व सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिये की धुरी से तीलियाँ जुड़ी होती हैं, जिसमें सभी प्राणियों का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना होता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु  ॥६॥

जो मन हर मनुष्य को इंद्रियों का लगाम द्वारा उसी प्रकार घुमाता है, तिस प्रकार एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान अश्वों को नियंत्रितकरता व उन्हें दौड़ाता है, आयुरहित(अजर)तथा अति वेगवान व प्रणियों के हृदय में स्थित  मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।

शिवसंकल्प सूक्त की Mp3 file का लिंक नीचे दिया है। मुझे विश्वास है आप अवश्य इसे सुनकर मेरी ही तरह इन मंत्रों में कुछ क्षणों हेतु खो ही जायेंगे।

अंत में इसी कामना के साथ यहां इति की अनुमति चाहता हूँ कि मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो –

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।