आत्मार्पणस्तुति के रचइता स्वामी अप्पय दिक्षितेंद्र अपनी एक महत्वपूर्ण कृति की पांडुलिपि अपने सुपुत्र नीलकांत को सुपुर्द करते हुये(चित्र www.speakingtree.in के सौजन्य से) |
विगत दिनों में शिवआराधना के कुछ महत्वपूर्ण सूक्तों, स्तोत्रों व मंत्रों
से परिचय होने का मुझे सौभाग्य मिला व उनके बारे में स्वल्प संभव जानकारी प्राप्त कर पाया हूँ। इसी क्रम में मेरा
परिचय प्रसिद्ध अद्वैत वेदांत प्रतिप्रादक अप्पय दिक्षितेन्द्र कृत ‘आत्मार्पण
स्तुति स्तोत्र’ से हुआ व इसे पढ़ना व इसके
शास्त्रीय सस्वर गायन को सुनना बड़ा ही आनंदमयी अनुभव रहा।
अप्पय दिक्षितेंद्र जी का जन्म 1580-95 ई0 के आसपास वर्तमान तमिलनाडु राज्य के अंतर्गत
कांची मंडल के आडपल्यम् स्थान पर एक आंध्र ब्राह्मण परिवार में हुआ था।वे
आदिशंकराचार्य के समर्थक व वेदांत-दर्शन के परम विद्वान थे।वे शंकर प्रतिपादित
अद्वैतसिद्धांत के परम समर्थक व शैव-वैष्णव मतभेद के विरुद्ध थे,क्योंकि उनके विचार से शिव व विष्णु दोनों ही परमब्रह्म के ही एक स्वरूप मात्र
हैं।उनका प्रयास सदैव शैव-वैष्णव मतभेदों को दूर करने में रहा। सन् 1626 ई0 में वे शैवों व वैष्णवों के बीच उत्पन्न हुये
भारी हिंसक झगड़े को निपटाने हेतु वे पांड्य देश गये थे।
स्वामी अप्पय दिक्षितेंद्र जी द्वारा रचित विभिन्न 104 कृतियाँ उपलब्ध
हैं । आदि शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत के समर्थन में उन्होने अद्वैत वेदांत का
प्रतिपादन करने के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र के शैवभाष्य पर ‘श्री शिव की
मणिदीपिका’ नामक टीका इनकी प्रधान कृतियाँ
हैं।
अद्वैतमतानुयायी होने के उपरांत भी उनकी भगवान शिव व शैवमत के प्रति
विशेष आस्था व भक्ति थी।उनकी शिव के प्रति गहरी भक्ति व प्रेम के कारण ही अप्पय
दिक्षितेंद्र जी के श्रीमुख से ‘आत्मार्पण स्तुति’ जैसे अद्भुत स्तोत्र की व्युत्पत्ति हुई।कहते हैं कि भगवान शिव के प्रति
अपनी भक्ति का स्वयं परीक्षण करने हेतु अप्पय दिक्षितेंद्र जी ने धतूरा खाकर
उन्मत्त अवस्था में चले गये व अपने शिष्यों को निर्देश दिया था कि अपनी उन्मत्त
अवस्था में वे जो भी भाव व विचार व्यक्त करें,वे उनको यथावत
लिपिबद्ध कर लें,जिससे उनको स्वयं की पराचेतनावस्था में मन में बचे किसी भी प्रकार
के वैचारिक विकार का परिज्ञान हो सके ।इस प्रकार अप्पय दिक्षितेंद्र जी ने धतूरे की
नशे की उन्मत्त परावस्था में शिव की स्तुति में जो विचार व्यक्त किये वही ‘आत्मार्पण स्तोत्र’ के नाम से जानते हैं।इस स्तोत्र को
उन्मत्तस्तुति भी कहते हैं।
आत्मार्पणस्तुति स्तोत्र भगवान शिव के भक्तों व आराधकों में परमप्रिय
है।इस स्तोत्र में कुल 50 श्लोक हैं।इसका
प्रत्येक श्लोक एक प्रदिप्त ज्ञानमणि है,व भगवान शिव की परमब्रह्म स्वरूप उपासना
स्तोत्रों में अद्वितीय है।
इस स्तुति के प्रारंभ , प्रथम श्लोक, में उस परमब्रह्म शिव के
अनंतस्वरूप व उसके प्रति अनन्य भक्ति की विनम्रता के सहज मार्ग द्वारा ही उसकी
प्राप्ति की महिमा वर्णित है -
कस्ते बोद्धुं प्रभवति परं देवदेव प्रभावं
यस्मादित्थं विविधरचना सृष्टिरेषा बभूव।
भक्तिग्राह्यस्तवमिह तदपि त्वमहं भक्तिमात्रात्
स्तोतुं वाञ्छाम्यतिमहदिदं साहसं मे सहस्व।
अर्थात्- हे परमेश्वर,आपकी
महिमा को कौन जान पाया है!आप, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की
व्युत्पत्ति के कारण व माध्यम हैं, को प्राप्त करने का
एकमात्र माध्यम केवल आपके प्रति पूर्ण
भक्ति व समर्पण है,हे प्रभु मेरी इस अज्ञानपूर्ण स्तुति को अपने क्षमाशीलता के स्वभाव से
स्वीकार करें।
इस स्तुति में परमपिता परमेश्वर के ही आदिस्वरूप होने व इसे ही सभी व्युत्पत्तियों का कारण,इससृष्टि,पृथ्वी चराचर जगत की उत्पत्ति का मुख्य श्रोत बताया है-
क्षित्यादीनामवयववतां निश्चितं जन्म तावत्
तन्नास्त्येव क्वचन कलितं कर्त्रधिष्टानहीनम् ।
नाधिष्टातुं प्रभवति जडो नाप्यनीशश्चभाव-
स्तस्मादाद्यत्वमसि जगतां नाथ जाने विधाता ॥ २ ॥
अर्थात्- इस पृथ्वी,चराचर जगत की व्युत्पत्ति का निश्चय ही एक आदि श्रोत है,जिसकी स्वयं की व्युत्पत्ति भी किसी परमकर्ता के कारण ही संभव है,जो निश्चय ही परमब्रह्म व ज्ञान स्वरुप, हे प्रभु ! आप स्वयं ही हैं।
स्तोत्र का समापन भगवान शिव के प्रति पूर्ण समर्पण व शरणागत होने की
उनके प्रति याचना से इस प्रकार होती है-
आत्मार्पणस्तुतिरियं भगवन्निबद्धा
यद्यप्यनन्यमनसा न मयि तथापि
वाचापि केवलमयं शरणं वृणीते
दीनो वराक इति रक्ष कृपानिधे माम् ।
अर्थात् हे प्रभु,यद्यपि मैं आपकी
स्तुति पूर्ण स्थिर चित्त से नहीं कर पाया
हूँ किंतु हे दयानिधान मुझे असहाय,दीन समझकर मेरी इस क्षुद्र
स्तुति समर्पण को स्वीकार करें।
आपकी सुविधा हेतु मैं इस स्तोत्र की आडियो फाइल, जो मैंने www.shaivam.org से
डाउनलोड किया है और यह सुब्बलक्ष्मी कृष्णामूर्ति की आवाज में है, का लिंक नीचे संलग्न किया है। समय यदि अनुमति दे तो इसे अवश्य सुनें।