हमसाया बनती तुम
मेरे पीछे पीछे चलती रहती हो
बिना कहे कुछ ,रोक टोक बिन
मेरे हर पग से तुम कदम मिलाती
मेरे हर निशान पर अपनी मुहर लगाती
खुशियों में जो मैं चहका तो
बड़ी तरेरे आँख दिखाती
दुश्वारी में जो मुँह बल गिरता
ताली दे तुम खिलती हँसती
साया हो या दुश्मन हो तुम
तुझे खुशी जब मैं कितना गम
मुझे पता तुम बड़ी चतुर हो
ज्ञानी बहुत मगर निष्ठुर हो
भूत जानती हो तुम मेरा
और जानती कल भी मेरा
रखती खबर तुम वर्तमान की
फिर भी नहीं इसारे करती
कि क्या था उचित और अनुचित क्या
मूढ.मति मैं गिरता खाईं, फिर भी
नहीं कभी तुम बनी सहारा
निर्लिप्त भाव से खड़ी किनारे
रही देखती मेरी लाचारी
कुछ तो रहम और मदद दिखाती
पर है मालूम मुझे तुम निस्पृह
दुख से मेरे सुख से मेरे
क्या मैं उचित हूँ अनुचित करता
कब क्या मोड़ कहाँ मिल जाता
क्याँ हूँ तब मैं रस्ता चुनता
तुम ना कुछ लेती ना कुछ देती
मैं वहीं काटता जो मैं बोता।
क्योंकि ,
निस्पृह सी, निष्ठुर सी
परंतु सत्य न्याय की प्रतिमूर्ति, आराध्या सी,
तुम मेरी हमसाया सी मेरी 'जिंदगी ' हो ।
©देवेंद्र
Monday, May 9, 2016
जिंदगी... अपनी सी है या बेगानी ?
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वाह!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस - महाराणा प्रताप, गोपाल कृष्ण गोखले और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeletedd mishra jee aapne bahut hi badhiya kavita post ki he. aur isme jivan ki sachhayi bhi chhupi he. dhanywaad
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