विमुख हुए तुम,जग सूना है, सन्मुख तो सब-कुछ है प्यारा। मिले जो तेरी प्रेम-दृष्टि तब, उलसित मन छाया उजियारा।
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| तुम हिमश्रोत सरित उद्गम मैं तुम प्रवाह मैं जल की धारा। बनकर श्रोणित हृदयशिरा में, बहते बन जीवन की धारा।
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तुम नीरद प्यासी मैं धरती, तुम सूरज मैं घुप अँधियारा। तुम ही मेरे सुखक्षण बनते, होता जब भी मनदुखियारा।
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| तुम बरखा मैं गिरती बूँदें, शीतल तुम मैं निर्झरधारा। जीवन देह शक्ति तुम मेरे, प्राण तुम्ही अस्तित्व हमारा।
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भाव हो तुम जो शब्द बनूँ मैं, साज तुम्ही जो वाद्य हमारा। लय तुम ही जो सुर मैं साधूँ, गीत तुम्ही संगीत हमारा।
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| तुम प्रकाश मैं नयनदीप हूँ, दृष्टि- सिद्धि नयन का तारा । मै कृति रचनाकार तुम्ही हो, तुम यौवन सौन्दर्य हमारा।
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Saturday, April 30, 2011
.......मन छाया उजियारा।
Friday, April 29, 2011
.....तुम अद्भुत रचनाकार हो।
पुष्प का सौन्दर्य अनुपम, अप्रतिम तुम देते कहाँ से! तितलियों का रंग अद्भुत, चित्र - रंग लाते कहाँ से! दृष्टि जाती जिस दिशा में, तेरी रचना मुग्ध करती। तुम अद्भुत रचनाकार हो।
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| गगन का यह रंग नीला, प्रभात का आलोक पीला, दिशाओं को आगोश लेती यह सप्तवर्णी देव-मेखला, प्रांजलि दें सूर्य किरणें स्वर्ण शिखरों को सजाते, तुम अद्भुत स्वर्णकार हो।
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जलधि में जलतरंग बजती, मेघ दामिनि नृत्य करती, हिमनिधि की घाटियों में शुभ्र सरिता नाद करती। तरुवरों की फुनगियों पर पवन पद से थाप देते, तुम अद्भुत नृत्यकार हो।
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| बुलबुलों से गीत गाते, कोकिला कंठ तान देते, पक्षी कलरव भेरि करते, शुक-बकुल आह्वान करते। बाँसुरी से सुर सजाकर आरोह व अवरोह भरते, तुम अद्भुत संगीतकार हो।
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गगन थाली नित सजाते सुदीपमाला प्रकट करते नयन दीपक को जलाकर जीवपथ आलोक करते, रवि,शशि और गगनतारे सबमें तेरी दीप्ति जलती तुम अद्भुत दीपकार हो। |
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| जलनिधि की राशि विस्तृत वाष्प श्यामल मेघ बनती, रजत बूँदें वृष्टि बनकर कूप नद तालाब भरतीं जीव के परमार्थ कारण विविध घट में जल सजाते, तुम अद्भुत कुंभकार हो। |
Thursday, April 28, 2011
कौन हो तुम !
आदि हो,अनादि हो अन्त हो या अनंत हो! क्षितिज हो, दिगंत हो, धरा हो या शून्य हो! | |
| दृष्टि हो या चेतना, राग हो या वेदना, अग्नि हो या वृष्टि हो, प्रलय हो या सृष्टि हो! |
निर्माण हो या हो विलय वाह्य हो या हो निलय, राग हो या विराग हो? पुष्प हो या पराग हो? | |
| उदय हो या अस्त हो? अर्ध हो या समस्त हो? मान हो अपमान हो, प्राप्ति हो या उपदान हो? |
शब्द हो या ब्रह्म हो, जीव या ब्रह्मांड हो? अगम हो या प्रज्ञ हो, बस तुम्ही ही विज्ञ हो। | |
| प्रश्न और समाधान भी कि, कौन हो तुम। |
Wednesday, April 27, 2011
पुष्प ! तुम अति हृदय विशाल हो।
पुष्प ! तुम अति हृदय विशाल हो। रंग हो, परिपूर्ण हो तुम प्रेमीजनों की आसक्ति हो , सौन्दर्य की अभिव्यक्ति हो तुम, रूप-रस-गंध-कामना की शक्ति हो। | |
किन्तु न लेश भी मद किया है। शीश धारण सहज होते, किन्तु न कोई पद लिया है। | |
मान क्या अपमान क्या, स्नेह क्या, अधिकार क्या , देवार्चना रतिश्रृंगार क्या, मुकुट-शोभित पद-दलित क्या। तुम रहे समभाव से ही। जिये निस्पृह भाव से ही। | |
| जन्म उत्सव में सहजता, मृत्यु श्रद्धांजलि भी तटस्थता मोक्षज्ञान हो , बुद्ध से तुम पुष्प ! तुम अति हृदय उदार हो |
Tuesday, April 26, 2011
जीवन बना अग्निपथ यात्रा....
जीवन बना अग्निपथ यात्रा, बीच भँवर की धारा। प्रियतम तेरे प्रेमभाव से, मन को मिले किनारा। | |
| तेज दुपहरी तपते रस्ते, सूर्य अग्नि की धारा। आँचल उड़ता प्रिये तुम्हारा, शीतल छाँव सहारा। |
कंठ सूखते हलक हैं प्यासे, जीवन तिक्त बूँद जलधारा। प्रियतम तुम मेरी मनगंगा, बहती अमृतधारा। | |
| तपते प्रस्तर, कंटक बिखरे, पाँव छत-विछत सारा। तेरी प्रेमदृष्टि का लेपन, हरे वेदना सारा। |
मन घायल, आत्मा विदीर्णित, लोहित हुआ हृदय दुश्वारा। तुम बन जाती प्रेम शिराएँ, मन क्लेष हरो तुम सारा। | |
Monday, April 25, 2011
…. किन्तु अपरिचित हृदय वेदना।
सजल नयन के मोती देखे, किन्तु अपरिचित हृदय वेदना। देखा खिला स्मितमय चेहरा, किन्तु अनसुना मन का रुदना। | |
| भृकुटि बलों का मान तो देखा, देखी नही हृदय-वत्सलता। उपालम्भ की प्रतिध्वनि सुन ली, तो प्रणय गीत की तान भी सुनता! |
किसलय का कोमल स्पर्श लिया तो, कांटो की थोडी चुभन भी लेते। जलधारा स्वयं जब हुए तिरोहित, तो औरों की नैया भी खे देते। | |
| भीगा मन जो शंका की वृष्टि से, तो प्रेम-शपथ-विश्वास भी करते मन विनोद में असमर्थ रहा तो प्रेमदृष्टि दे मनपीडा ही हरते।। |
अभिव्यक्ति में बाधा थी तो, नयन इशारे से ही कह देते। प्रेम-विकल राधा गोकुल में, मोहन प्राण शक्ति दे आते । | |
| दिया न जो दो शब्द प्रेम के, विषबाणों के प्रहार न करते। जो हृदय वेदना हर न सके तो मन-कटुता की पीर न भरते। |
कातर मन-हिय दो बूँद लहू से, माँ का अमृतरस पान विसरते! मन संकुचित उसे शीशार्पण से, जिस थाती से तुम अवतरते ? | |
Wednesday, April 20, 2011
जो हृदय का गीत था, वह........
जो हृदय का गीत था, वह अश्रु-कम्पन बन गया। पुष्प से उल्लसित बसंत, उजाड मिहिर निर्भव हुआ।। |
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| कामना में जो अनन्त था, अब शून्य सा संकुचित है । दृष्टि का उत्कर्ष था जो, अब अदृश्य और अगम्य है।। |
जो साज था, आवाज था, वह विमुख और विमौन है। जो शब्द था ,अभिव्यक्ति था, वह अपरिचितो सा कौन है? |
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| जो प्राण था,संज्ञान था, अब निष्पंद व निर्जीव है। जो मान था , अभिमान था, अवहेलना का प्रतिजीव है।। |
जो ज्ञान था, समाधान था, अब अज्ञानता व निराधान है। जो विश्वास और विवेक था, अब संदेहप्रद व अपजान है।। |
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| जो भरत था, जो राम था, वह बालि और सुग्रीव है। जो कृष्ण था, बलराम था, कुरु- पांडु बैर अतीव है।। |
जो हृदय सत्संग था ,वह अब नयन-कंटक-शूल है। जो शक्ति था,था द्विभुजबल , अब निश्तेज निबल निमूल है।। |
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| जो प्रेम था, सद्भाव था, अब द्वेष और विद्वेष है। जो नेह था ,जो सनेह था, अब कलुषता व कुनेह है।।
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