Wednesday, October 5, 2011

प्रिये क्यों नाराज हो तुम...


धारण करते विचार मेरे
रंग बिरंगे पंख,
तितलियों से उड़ निकलते,
मधुर स्मृतियों की
विविध पुष्पों से सजी वाटिका
की ओर, जो मधु-रस-पान करने।
प्रिये क्यों नाराज हो तुम...



मन-विहग चंचल है,गतिमान है,
उड़ान इसका स्वभाव व नियति है,
यह जिज्ञाशु है,दु:साहसी भी,
चूमना चाहता है गगन के
अट्टालिका के शिखर को,
नापना चाहता है धरा को
क्षितिज के उस पार अनंत तक,
ढूढना चाहता है अमर-रत्नों को
सागरों के गर्भ में पैठे हुये।
प्रिये क्यों नाराज हो तुम...

देखना चाहता मन,
सरित नदियों के स्वच्छ प्रवाह को,
पकड़ना चाहता है डोर, उस
स्वच्छंद नीरव चपल,
सघन वन के तरुशिरों पर
मंद मंद शीतल समीर, को।
लेना चाहता है अंक में
हिमाच्छादित स्वर्ण शोभित
उच्च गिरिवर के शिखर को।
प्रिये क्यों नाराज हो तुम...



तुम्हारी उलाहना कि
विरत मन मैं , खो रहा हूँ इतर में,
तुम्हारी यह व्यथा कि
 हो रहा चंचलमना मैं,
स्वीकारता मैं  तुम्हारे प्रति उपेक्षा
के निज अपराध को,
पर क्या करूँ,असहाय हूँ,
जो मन  चाहता है मेरा
लेना अपने समझ की आगोश में,
सम्पूर्ण इस ब्रह्मांड को।
प्रिये क्यों नाराज हो तुम...

4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम

    ReplyDelete
  2. अद्भुत कृति,
    नहीं कभी संबंध हमारा भार बनेगा,
    साथ तुम्हारा आज कल्पना साथ उड़ेगा।

    नहीं ज्ञात था, इतना सृजन छिपा बैठा है,
    अपराधी हूँ, बद्ध हृदय क्यों खोल दिया यूँ?

    ReplyDelete
  3. वाह ... प्रेम भरा उल्हाना भी प्रेम की अभिव्यक्ति ही है ...

    ReplyDelete