Wednesday, January 11, 2012

चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि....





कृष्ण के चौर्यगुण के बखान व उनकी वंदना में निम्नलिखित श्लोक व इसका भाव सुंदरतम है-

ब्रजेप्रसिद्धम् नवनीतचौरं,
गोपांगनानांच दुकूलचौरं।
श्री राधिकाया हृदयस्य चौरं,
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ।।

तो माखनचोरी में प्रवीण, ब्रजवासी, गोपियों के वस्त्र चोर, राधाजी के हृदय को चुराने वाले और चोरों में अग्रगण्य पुरुष श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ।

उनकी चोरी ने कितनों को मतवाला किया, कितने ही उनकी चोरी के भाजन हो निहाल हो गये, अपना लोक-परलोक दोनों सिद्ध कर लिये व तर गये। नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की इस मीठी , मधुर व लालित्यरूर्ण चोरी की परंपरा की साधना उनकी सहचरी माया स्वरूपिणी प्रकृति व इसमें निवास करने वाले प्रेमीजन निरंतर कर रहे हैं।

पेड़-पौधे स्वयं के पोषण हेतु धरती के गर्भ से भोजन रस चुरा रहे हैं, इनकी हरी पत्तियाँ सूर्य कि किरणों से ऊष्मा चुराकर भोजन जुटा रही हैं,पुष्प लताओं के आगोश से निरंतर चोरी करते रस और रंगमय हो प्रफुल्लित हो रहे हैं,तितलियाँ इन पुष्पों के मकरंदरस का पान कर प्रेम-तृप्त  हो रही हैं।


सूर्यकिरणें समुद्रजलराशि से जलवाष्प चुरा रही हैं, वायुमंडल इन जलवाष्प को चुरा बादल का निर्माण कर रहे हैं, और धरा बादलों को अपनी और प्रेमाकर्षित कर बूंदों की जलवृष्टि से स्वयं को शीतल करती है।

इस तरह इस माधुर्य व रचनापूर्ण चोरी का यह चक्रीय क्रम निरंतर प्रवाहमय है, गतिमय है, कही भी आवश्यकता रहित न तो आहरण है न ही कोई लोभमय संचय या बलात्कार, है तो बस समष्टि आनंद, यानि परमानंद।

यह तो रही चोरों के गणपति पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण व उनकी सहचरी व सह-रमणी रसवंती प्रकृति की बात जो इस संपूर्ण भुवन को अपने इस मधुरचौरगुणलालित्य से मोहित व आनंदित कर रहे हैं। इस लालित्यपूर्ण व मधुरतापूर्ण सर्वस्वआनंदवृष्टि करती लालित्यपूर्ण चोरी के विपरीत ध्रुव पर है लूटखसोट,छीनाझपटी,दुराचारपूर्णता, भ्रष्टाचार, शक्ति व धनसंचय रूपी बलात्कारपूर्ण चौरव्यवहार, जो कि हमारे वर्तमान जनजीवन की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक कार्यव्यवहार में कुष्ठरोग की तरह पल,बढ़ व विद्रूपमय दृष्टिगोचर हो रहा है।

वैसे भी जहाँ लोभ व तृष्णा की प्रबलता है व संतोष का अभाव है,वहाँ संचय व आहरण प्रवृत्ति की अतिरेकता के कारण यह विद्रूपता स्वाभाविक होती है।पौराणिक कथाओं के अनुसार तो नरकासुर सम्पूर्ण पृथ्वी को ही चुराकर ( यह चोरी की पराकाष्ठा कही जा सकती है।) पाताललोक में छुपा दिया,और भगवान को शूकर-अवतार लेकर इस धरा का उस राक्षस के चंगुल से उद्धार करना पड़ा था। नरकासुर की यह विभत्स व कुत्सित आहरण प्रवृत्ति आज भी हमारे सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक व्यवस्था व जनमानस में यथावत जीवित है और यह निरंतर लूट-खसोट व विद्रूपमय चोरी में आग्रह के साथ लगी हुई है इससे जनसमुदाय में त्राहि-त्राहि मची है और सम्पूर्ण धरा ही इस आसुरी प्रवृत्ति के अत्याचार की शिकार त्राण की गुहार कर रही है।

आशा व कामना करें कि इस आहरण व लालसाप्रवृत्तिपूर्ण  चोरप्रवृत्ति का त्याग कर सभी,सम्पूर्ण जनचेतना उस चौराग्रगण्य पुरुषोत्तम नारायणरूपी कृष्ण व उनकी सहचरी रमणीयाप्रकृति के लालित्यमाधुर्यमयी सतोगुणी चौरप्रवृत्ति की ओर उन्मुख हो, जिससे लोगों का आपस में हृदय व प्रेमरूपी नवनीत का चौरव्यवहार निरंतर समृद्ध हो और सर्वेभवंतुसुखिन: की मंगलकामना सर्वत्र साकार हो सके।

4 comments:

  1. बहुत सारगर्भित और सुन्दर प्रस्तुति...आभार

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  2. गोकुलवाले की चोरी सुख देती थी।

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  3. वाह! वाह! वाह!

    आपकी अनुपम प्रस्तुति ने तो दिल ही चुरा
    लिया है मेरा.

    आपकी इस चोरी के लिए आभार जी.

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  4. जय श्री राधावल्लभ, चोरों के सरदार की जय हो

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