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Tuesday, January 24, 2012

अनुभव के चार सोपान- अस्तित्व,अनुभूति,चिंतन और कर्म

डा. दीपक चोपड़ा मेरे कॉलेज के दिनों से ही मेरे प्रिय लेखक रहे हैं। मैंने पहली बार इनकी पुस्तक Return of the Rishi (1989) पढ़ी थी, जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष का छात्र था, और इससे बहुत प्रभावित हुआ था। बाद में इनकी - Unconditional Life: Mastering the Forces That Shape Personal Reality, Ageless Body, Timeless Mind, The Path to Love: Renewing the Power of Spirit in Your Life, Everyday Immortality: A Concise Course in Spiritual Transformation , How to Know God : The Soul's Journey into the Mystery of Mysteries  जैसी अद्भुत पुस्तकों को पढ़ने का सौभाग्य मिला। इन पुस्तकों को पढ़ने से मन व मस्तिष्क को एक नयी सोच व दिशा मिली।

सन् 2007 में इनकी पुस्तक Buddha: A Story of Enlightenment आयी, जो मेरी समझ में महात्मा बुद्ध के जीवन व आध्यात्मिक चिंतन व ज्ञान पर सबसे सुंदर व भावात्मक प्रस्तुति है। मैंने इस पुस्तक को दो-तीन बार पढ़ा है, किंतु मन में इसे दुबारा पढ़ने की उत्सुकता बनी ही रहती है।

डा. दीपक चोपड़ा आजकल जयपुर में आयोजित साहित्य समारोह ( Literary Festival) में भाग लेने भारत  आये हैं । इस समारोह में उनके सम्मान में आयोजित एक विशेष व्याख्यान श्रृंखला ‘The Return of the Rishi’ में कल उनके द्वारा दिया गया व्याख्यान वहाँ उपस्थित श्रोताओं- छात्रों,बुद्धिजीवी वर्गों हेतु एक अलौकिक बौद्धिक अनुभव था। उनके व्याख्यान की रिपोर्ट आज के Times of India में Focus on being, feeling, thinking and doing शीर्षक से छपी है।

डा. दीपक चोपड़ा ब्रह्मांड के हर सत्य की ऐसी अद्भुत व्याख्या करते हैं कि उस सत्य का हर पक्ष स्पष्ट दिखने व समझ में आने लगता है। " यह ब्रह्मांड अरबों आकाश-गंगाओं,खरबों सौरमंडलों से निर्मित है, जिसका हमारा निवास-ग्रह, पृथ्वी, का आकार दशमलव एक प्रतिशत से भी छोटा है, फिर कल्पना करें कि हमारे स्वयं के मानव शरीर का अस्तित्व व आकार इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सामने क्या है भला ? " इससे सुंदर व स्पष्ट व्याख्या हमारे सम्पूर्णता की विशालता  व हमारा स्वयं के शरीर के प्रति मिथ्या अहंभाव की क्या हो सकती है ?

वे बताते  हैं कि हमारा भौतिक शरीर सुपर नेबुला,जाइंट रेड स्टार्स और मृतप्राय सितारों द्वारा पुनर्नवीकृत कार्बन व हाइड्रोजन से निर्मित होता है। हमारा यह भौतिक शरीर निरंतर परिवर्तनशील है,आणविक स्तर पर,कोशिकीय स्तर पर। वे मजाकिया लहजे में बड़ी ही प्रभावी बात कहते हैं कि जब मैं पिछली बार भारत आया था तो मेरा शरीर कोई और था , बस मेरा सूटकेश ही समान था। वे कहते हैं कि केवल हमारी मूल चेतना ही अपूर्व व स्थाई स्वरूप है, हमारी यही मूल चेतना ही ब्रह्म अथवा आत्मा है।

डा. चोपड़ा के अनुसार हमें प्रकृति का सदैव अनुकरण करना व उसका अनुचर होना चाहिये। प्रकृति मौन साधे न्यूनतम और बस आवश्यक क्रियाकलाप करती है। प्रकृति के इस अनुकरण से हम ज्यादा प्रभावोत्पादक बन सकते हैं।जब हमारी क्रियायें शेष हो जाती हैं, तो हम सबकुछ करने व साधने में सक्षम होते हैं।

उनके अनुसार हमें बस अति सक्रियता का शिकार होने के बजाय, हमें अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु अपना सम्पूर्ण ध्यान केंद्रित करना चाहिये। अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु हमें अति सक्रिय होने के बजाय मौन, अंतर्मुखी होना होगा। जब कुछ क्षणों हेतु हम मौन में होते हैं, और उस मौन के प्रति सजग होते हैं, तो हमारा अस्तित्व आभाषित हो जाता है।प्रेम,समभाव एवं आनंद की अनुभूति ही हमारी वास्तविक व सहज अनुभूति है।चिंतन एक रचनात्मक क्रिया है,और कर्म के प्रकार है- राजयोग,कर्मयोग व ज्ञानयोग।

कृष्ण ने भी तो गीता में कर्म की व्याख्या करते हुये कहा है-

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवः।

अर्थात् जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

Saturday, January 14, 2012

बलवानं एव शोभते क्षमा......


यह भी एक अद्भुत तथ्य है कि दो विपरीत ध्रुव पर स्थित चीजें आश्चर्यजनक रूप से समानगुणधर्म प्रदर्शित करती हैं।उदाहरणार्थ- अल्पतरंगगति की प्रकाश किरणें, जिन्हें इन्फ्रारेड किरण कहते हैं, उच्चतरंगगति की प्रकाशकिरणें, जिन्हे अल्ट्रावायलट किरण कहते हैं, दोनों ही मानवदृष्टिक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।इसी तरह उच्चतरंगगति की ध्वनितरंगें और अल्पतरंगगति की ध्वनि तरंगों दोनों ही मानवश्रवणक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।

प्रकाश की शून्यता यानी अंधेरा व प्रकाश की अतिरेकता दोनों ही अदृश्यता की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं,ध्वनि की अनुपस्थिति अथवा ध्वनि की अतिरेकता दोनों ही सुनने की अमर्थता की समान परिस्थिति उत्पन्न करते हैं।

है न यह अद्भुत विरोधाभासी समतागुण कि एक निर्बल, कमजोर व असहाय है व दूसरा अतिरेक बलशाली व शक्तिसंपन्न किंतु दोनों ही अपने विरोधी व शत्रु के प्रति नि:प्रतिरोध व्यवहार का समान गुणधर्म दर्शाते हैं।एक के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी लाचारी व असहायता,इसलिये नहीं कि  वह प्रतिरोध करना ही नहीं चाहता, जबकि दूसरे के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी जागृत अंतर्चेतना कि उसके अतिरेक शक्ति से किया गया कोई भी प्रतिरोध उसके विरोधी हेतु महाविनाश व संहार का कारण बन सकता है।

इसीलिये शास्त्रों के मत से यदि कोई कमजोर व लाचार अपने विरोधी के प्रति हिंसक प्रतिरोध भी करता है तो यह पाप नहीं क्योंकि उसके नि:प्रतिरोध से भी उसको कोई लाभ या समाधान नहीं मिलने  वाला,जबकि जो अति बलशाली व शक्तिसंपन्न है उसका नाजायज हिंसक प्रतिरोध घोर पाप होता है।

महात्मा बुद्ध ने निर्वाणज्ञान की प्राप्ति हेतु अपने राजसिंहासन का ही त्याग कर दिया और भिक्षु बन गये,यह वास्तविक त्याग है,जबकि एक भिक्षुक द्वारा , जिसके पास त्याग करने को कुछ है ही नहीं, किसी त्याग करने की बात का भला क्या अर्थ है?

इसीलिये जब भी हम नि:प्रतिरोध,अहिंसा व प्रेम की बात करते हैं तो हमें पहले यह स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर प्रतिरोध करने की पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य है भी या नहीं?यदि शक्तिसंपन्न व सामर्थ्यवान बनकर हम नि:प्रतिरोध,प्रेम,अहिंसा की बात करते हैं तो यह अवश्य हमें शोभा देता है व हमारी महानता में वृद्धि करता है,अन्यथा तो यह पाखंड व मिथ्याचार ही है।

कुरुक्षेत्र में शत्रुसेना के सन्मुख खड़े हो जब अर्जुन ने सामने खड़ी महारथियों से सजी अति बलशाली सेना देखी तो अपने परिजनों के प्रति उमड़ते प्रेम का पाखंड करते व अपने राजा के प्रति व अपना क्षात्र धर्म भूल अहिंसा व युद्ध न करने की बात करने लगे, तो श्रीकृष्ण ने उनकी कायरता पर उन्हे लताड़ते हुये कहा-

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।
अशोच्यानन्वशोचत्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् हे अर्जुन ! कायरता की बात मत करो,यह तुम्हे शोभा नहीं देता। तू न शोक करने योग्य लोगों के लिये शोक करता है,और बड़े ज्ञानी पंडित की तरह बात करता है,किंतु जो जीवित हैं अथवा जो जीवित नहीं है,ज्ञानीजन किसी के लिये शोक नहीं करते।इसलिये हे परंतप! अपने हृदय की दुर्बलता छोड़ युद्ध के लिये खड़े हो जा।

यही वास्तविक कर्मयोग है कि हमसर्वशक्ति सम्पन्न बनकर,सबकुछ धारण कर भी अहिंसा धर्म व प्रेम का आचरण करें,शक्तिसम्पन्न व सामर्थ्यवान होकर भी नि:प्रतिरोध व अहिंसा का पालन ही वास्तविक शक्तिसम्पन्नता होती है।किंतु इस आदर्श व शक्ति के शिखर की स्थिति पर पहुँचने के पूर्व हमें पूरी शक्ति के साथ निरंतर श्रम,संघर्ष व विरोधी पर सीधे प्रहार करने की आवश्यकता होती है कि जब तक हमें पूर्ण सामर्थ्य व अपने विरोधी शक्तियों पर विजय न प्राप्त हो जाय।

इसतरह सर्वशक्तिसंपन्न व समर्थवान बनकर ही हमें अहिंसा व प्रेम एक सद्गुण की तरह शोभा देता है।इसलिये निष्कृयता का सदैव त्याग होना चाहिये। सकृयता का प्राय: अर्थ होता है संघर्ष व प्रतिरोध-सभी मानसिक व शारीरिक दुर्गुणों व दोषों का निरंतर प्रतिरोध और इन प्रतिरोधों द्वारा सभी दोषों के दमन की सफलता के उपरांत ही शांति व संतोष स्थापित होता है।

इस तरह प्रथम इस संसार व सांसारिकता के महासमुद्र को सफलतापूर्वक तैर कर पार करना होता है, तत्पश्चात् ही इसके त्याग व संतोष की सार्थक उपलब्धि संभव है,अन्यथा बिना इस संसार का विजय किये ही इसके त्याग,नि:प्रतिरोध,शांति व समर्पण की बात मात्र मिथ्याचार व निस्फल है।

हालाँकि त्याग व शांति के यह सद्विचारपूर्ण ज्ञान हजारों वर्षों से हमें उपलब्ध हैं, किंतु कुछ विरले महानपुरुष ही इस परम स्थिति को सिद्ध कर पाये हैं।     

Wednesday, January 11, 2012

चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि....





कृष्ण के चौर्यगुण के बखान व उनकी वंदना में निम्नलिखित श्लोक व इसका भाव सुंदरतम है-

ब्रजेप्रसिद्धम् नवनीतचौरं,
गोपांगनानांच दुकूलचौरं।
श्री राधिकाया हृदयस्य चौरं,
चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ।।

तो माखनचोरी में प्रवीण, ब्रजवासी, गोपियों के वस्त्र चोर, राधाजी के हृदय को चुराने वाले और चोरों में अग्रगण्य पुरुष श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ।

उनकी चोरी ने कितनों को मतवाला किया, कितने ही उनकी चोरी के भाजन हो निहाल हो गये, अपना लोक-परलोक दोनों सिद्ध कर लिये व तर गये। नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की इस मीठी , मधुर व लालित्यरूर्ण चोरी की परंपरा की साधना उनकी सहचरी माया स्वरूपिणी प्रकृति व इसमें निवास करने वाले प्रेमीजन निरंतर कर रहे हैं।

पेड़-पौधे स्वयं के पोषण हेतु धरती के गर्भ से भोजन रस चुरा रहे हैं, इनकी हरी पत्तियाँ सूर्य कि किरणों से ऊष्मा चुराकर भोजन जुटा रही हैं,पुष्प लताओं के आगोश से निरंतर चोरी करते रस और रंगमय हो प्रफुल्लित हो रहे हैं,तितलियाँ इन पुष्पों के मकरंदरस का पान कर प्रेम-तृप्त  हो रही हैं।


सूर्यकिरणें समुद्रजलराशि से जलवाष्प चुरा रही हैं, वायुमंडल इन जलवाष्प को चुरा बादल का निर्माण कर रहे हैं, और धरा बादलों को अपनी और प्रेमाकर्षित कर बूंदों की जलवृष्टि से स्वयं को शीतल करती है।

इस तरह इस माधुर्य व रचनापूर्ण चोरी का यह चक्रीय क्रम निरंतर प्रवाहमय है, गतिमय है, कही भी आवश्यकता रहित न तो आहरण है न ही कोई लोभमय संचय या बलात्कार, है तो बस समष्टि आनंद, यानि परमानंद।

यह तो रही चोरों के गणपति पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण व उनकी सहचरी व सह-रमणी रसवंती प्रकृति की बात जो इस संपूर्ण भुवन को अपने इस मधुरचौरगुणलालित्य से मोहित व आनंदित कर रहे हैं। इस लालित्यपूर्ण व मधुरतापूर्ण सर्वस्वआनंदवृष्टि करती लालित्यपूर्ण चोरी के विपरीत ध्रुव पर है लूटखसोट,छीनाझपटी,दुराचारपूर्णता, भ्रष्टाचार, शक्ति व धनसंचय रूपी बलात्कारपूर्ण चौरव्यवहार, जो कि हमारे वर्तमान जनजीवन की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक कार्यव्यवहार में कुष्ठरोग की तरह पल,बढ़ व विद्रूपमय दृष्टिगोचर हो रहा है।

वैसे भी जहाँ लोभ व तृष्णा की प्रबलता है व संतोष का अभाव है,वहाँ संचय व आहरण प्रवृत्ति की अतिरेकता के कारण यह विद्रूपता स्वाभाविक होती है।पौराणिक कथाओं के अनुसार तो नरकासुर सम्पूर्ण पृथ्वी को ही चुराकर ( यह चोरी की पराकाष्ठा कही जा सकती है।) पाताललोक में छुपा दिया,और भगवान को शूकर-अवतार लेकर इस धरा का उस राक्षस के चंगुल से उद्धार करना पड़ा था। नरकासुर की यह विभत्स व कुत्सित आहरण प्रवृत्ति आज भी हमारे सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक व्यवस्था व जनमानस में यथावत जीवित है और यह निरंतर लूट-खसोट व विद्रूपमय चोरी में आग्रह के साथ लगी हुई है इससे जनसमुदाय में त्राहि-त्राहि मची है और सम्पूर्ण धरा ही इस आसुरी प्रवृत्ति के अत्याचार की शिकार त्राण की गुहार कर रही है।

आशा व कामना करें कि इस आहरण व लालसाप्रवृत्तिपूर्ण  चोरप्रवृत्ति का त्याग कर सभी,सम्पूर्ण जनचेतना उस चौराग्रगण्य पुरुषोत्तम नारायणरूपी कृष्ण व उनकी सहचरी रमणीयाप्रकृति के लालित्यमाधुर्यमयी सतोगुणी चौरप्रवृत्ति की ओर उन्मुख हो, जिससे लोगों का आपस में हृदय व प्रेमरूपी नवनीत का चौरव्यवहार निरंतर समृद्ध हो और सर्वेभवंतुसुखिन: की मंगलकामना सर्वत्र साकार हो सके।

Monday, October 24, 2011

तुम युग पुरुष हो....


(मेरी यह कविता उन महानुभावों को समर्पित है जो आज के जारी देशव्यापी आंदोलन के शिरमौर हैं, और जो स्वयं को युगपुरुष मानते हैं।)

तप्त अग्नि में जलो
स्वर्ण से कुंदन बनो।
निस्पृह रहो, निःस्वार्थ हो,
निष्काम तप योगी बनो।
तुम युगपुरुष हो।1।

तुम प्रश्न करते विश्व से तो
विचलित न हो खुद प्रश्न से।
जो उपदेश देते पार्थ को तो
बनो सारथी तुम कृष्ण से।
तुम युगपुरुष हो।2।

उदाहरण जो देते नीति का
न्याय का, आचार का।
प्रस्तुत उदाहरण प्रथम बनो
खुद आचरण-व्यवहार का।
तुम युग पुरुष हो।3।

बोझों तले हम सब दबे हैं,
पाखंड के, बहुवाद के।
अनुशासित करो स्वविकार तुम
आचरण प्रवचन विभेद के।
तुम युगपुरुष हो।4।

भवन-नींव,वट-वृक्ष बीज
करते न दंभाडंबर प्रदर्शन।
आधार बनते,स्वरूप देते
हो धरा में समाधिस्त-मौन।
तुम युगपुरुष हो।5।

बनो ज्ञेय तुम अविकार बनो,
करो स्नेह तुम सत्कार करो
संयम रखो,सक्षम बनो
प्रेमोदार तव व्यवहार हो।
तुम युग पुरुष हो।6।