Sunday, April 15, 2012

व्यक्ति व व्यवसाय के जीवन में दूर दृष्टि का महत्व .....


पिछले दिनों मैं एक दिन के लिये कुछ व्यक्तिगत काम से दिल्ली (गुड़गाँव) गया था , तो कुछ समय-अवकाश लेकर अपने घनिष्ठ मित्र श्री अनिल जांगिड़ से मिलने फरीदाबाद भी गया । गुड़गाँव से फरीदाबाद की हाईवे व इसके दोनों और की व्यवस्थित हरियाली को देखकर बहुत अच्छा लगा। बस यही विचार व कामना मन में आयी कि यह हरियाली कायम रहे, न कि आने वाले समय में विकास व निर्माण  के नाम पर इसे नष्ट कर दिया जाय, जैसा कि प्रायः हो रहा है, और बंगलौर जैसा शहर तो इसका सबसे बड़ा शिकार रहा हैं।

श्री अनिल जांगिड़ से मेरी मित्रता लगभग आठ साल पुरानी है, जब मेरी 2004 में दिल्ली मेट्रो रेल प्रोजक्ट में जनरल कंसल्टेंट राइट्स द्वारा तैनाती हुई, और वे वहाँ पहले से ही कार्यरत थे। चूँकि हम दोनों भारतीय रेल सेवा के एक ही सर्विस कॉडर से संबंध रखते हैं, अतः पूर्व से ही एक-दूसरे के नाम से तो परिचित थे किंतु साथ-साथ काम करने का व व्यक्तिगत रुप से एक दूसरे को जानने का यह प्रथम अवसर था।

श्री अनिल जांगिड़-  अपने सपनों में पूरी आस्था
श्री अनिल जांगिड़  कुछ वर्ष पूर्व ही Asian Institute of Management ,Manila, Philippines से अपनी प्रबंधन की पढ़ाई पूरी करके आये थे,जो कि भारतीय रेलवे सेवा में प्रायः कम ही उदाहरण  हैं कि सेवाकाल में उच्चशिक्षा हेतु कोई अधिकारी अपने प्रयास और खर्च से और अध्ययन-अवकाश लेकर बाहर जाकर अध्ययन करे, अतः निश्चय ही मैं उनसे बहुत ही प्रभावित था। जब साथ काम करने का अवसर मिला तो उनकी तकनीकि व प्रबंधन कार्यकुशलता, टीम-स्पिरिट व मानवप्रबंधन व विकास कौशल, संयोजित प्रलेखन प्रबंधन (Structured Documentation Management ) व उनकी मिलनसार व सकारात्मक कार्यशैली ने काफी प्रभावित किया, व साथ-साथ काम करने की अवधि में हम दोनों ने तकनीकी व प्रबंधन कार्यवृत्त में परस्पर विचार आदान-प्रदान द्वारा काफी कुछ एक-दूसरे से सीखा।

सन् 2006 में उन्होने भारतीय रेल सेवा छोड़ दी व अपनी वित्त,संरचना परामर्श प्रबंधन कार्यक्षेत्र (Finance and Infrastructure  Consultancy) में विशेष अभिरुचि के कारण एक संबंधित प्रसिद्ध भारतीय प्राइवेट कंपनी की सेवा करने लगे। 2007 में स्थानांतरण पर मैं बंगलौर मेट्रो रेल प्रोजेक्ट में कार्य करने हेतु बंगलौर आ गया , जहाँ पर पुनः हम दोनों ने साथ-साथ काम किया जब वे अपनी कंपनी की तरफ से बंगलौर मेट्रो प्रोजेक्ट हेतु एक अति महत्वपूर्ण डिटेल डिजाइन कंसल्टेंसी कार्य हेतु प्रोजेक्ट लीडर का कार्य देख रहे थे । वर्ष 2009 में अपने प्रबंधन की पढ़ाई हेतु बंगलोर मेट्रो रेल विभाग का कार्य छोड़कर मैं IIM Bangalore में प्रबंधन की पढ़ाई करने चला गया व उसके बाद रेलवे की सेवा में  वापस आ गया किंतु हम दोनों लगातार संपर्क में रहे और परस्पर विचारों का आदान-प्रदान जारी रहा है।

दो वर्ष पूर्व उन्होंने कंपनी की नौकरी छोड़ अपनी निजी कंसल्टेंसी फर्म खोल ली व वर्तमान में वे अपनी कंपनी के मुखिया के रुप में अपने व्यवसाय की देखभाल करते हैं।अपने पसंद कार्य-क्षेत्र के अनुरुप ही उनकी कम्पनी का नाम है- Leap Infraasys Pvt Limited फरीदाबाद में उनके ऑफिस व आवास पर जाकर बहुत अच्छा लगा व उनके निजी श्रम व उत्साह से की गयी उपलब्धि व व्यवस्था ने मन को बहुत प्रेरित व प्रभावित किया ।

उनकी सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे काफी प्रभावित करती है वह है उनकी अपने जीवन व व्यवसाय के प्रति  दूरदृष्टि व उसके प्रति उनका आत्मविश्वास । प्रायः हम वर्तमान समस्य़ाओं, साथ ही साथ वर्तमान परिस्थितियों, में इतने उलझे व संतुष्टभाव में रहते व जीते हैं, कि हमें अपने जीवन व अपनी जीवन-यात्रा के लम्बी अवधि के योजनाओं व लक्ष्यों  के प्रति उदासीनता व दृष्टि में धुँधलापन हो जाता है । हम कभी अगले बीस-पचीस वर्ष बाद के अपने भविष्य का खाका तैयार करने व उसके प्रति योजनाबद्ध तरीके से काम करने की न तो दृष्टि ही रखते हैं और न ही संकल्प शक्ति । अपने उम्र के लेट थर्टीज या अरली फोर्टीज तक पहुँचते-पहुँचते प्रायः हम अपने सपनों व पसंद के मुताबिक कुछ नया करने का साहस व संकल्प खोने लगते हैं, और वर्तमान परिस्थितियों व हालात को सुरक्षित व खतरा-रहित समझते हुये उसी को अपनाये व करते रहना जारी रखते हैं। अतः ऐसे पड़ाव पर सुरक्षित सरकारी नौकरी छोड़कर अपने पसंद का उद्यम शुरु करना और अपनी कंपनी खड़ी करना मेरे विचार से निश्चय ही अति प्रशंसनीय व साहसपूर्ण कदम है। इसके लिये मेरी अपने मित्र को हार्दिक बधाई व शुभकामनायें ।

व्यक्ति के अलावा संस्थानों व किसी भी व्यावसायिक कंपनी के लिये भी भविष्य के प्रति दूर-दृष्टि रखना अति आवश्यक है। यही कारण है कि कंपनियाँ अपना Vision Document बनाती हैं, जो अगले 20,25, 30 या पचास साल के भविष्य के भावी स्वरूप,उस नये व बदले परिवेश में कंपनी के वर्तमान व्यवसाय व कार्यप्रणाली में आने वाली चुनौतियों , खतरों व साथ ही साथ नये व्यावसायिक अवसरों   का एक विस्त्रित खाका प्रस्तुत किया जाता है , और कंपनी के सपनों व महात्वाकांक्षाओं के अनुरुप लक्ष्य व योजनायें निर्धारित की जाती हैं ।हमारी भारतीय रेलवे का भी एक विजन डाकुमेंट है जो वर्ष 2020 के समयसीमा के अनुरूप है।

किंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे विजन के अनुरूप हमारी कार्ययोजनायें, व उनके क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता व संकल्पशक्ति भी हमारे अंदर है, क्योंकि प्रायः यह देखने में आता है कि कंपनी के उच्च पदासीन योजनाकार व नीतिकार अपने वर्तमान के प्रति इतने असुरक्षित अनुभव करते हैं कि उनकी पूरी शक्ति व क्षमता अपने वर्तमान अस्तित्व, पावर-टर्फ , और मोटे शब्दों में कहें तो अपनी कुर्सी व इम्पायर,को बचाने में इतनी जाया हो जाती है कि उन्हे लम्बी अवधि की योजना अथवा कंपनी का भविष्य अथवा उस हेतु कोई योजना बनाने या बनाने के बाद उनपर अमल करने की  बाते बेमानी लगती है, यह उन्हें न तो प्रेरित करती हैं और न तो उन्हे कोई व्यक्तिगत फायदा पहुँचाते दिखती हैं, और इसीलिये वे इनमें कोई अभिरुचि भी नहीं दिखाते ।

यदि एक बड़े व विस्त्रित कैनवास पर देखें तो देश के स्तर पर भी दूरदृष्टि व भावी योजना व उनके अनुपालन में भारी कमी व उपेक्षा के कारक समान ही हैं, यानि सत्ता में बैठे प्रधान लोगों का वर्तमान के प्रति भारी असुरक्षा,किसी भी बदलाव से अपने पावर-टर्फ के खिसकने की आशंका, व भविष्य व लम्बी अवधि में फायदा पहुँचाने वाली योजनाओं से वर्तमान में सत्ता में बैठे लोगों को सीधा लाभ न मिलना ।

सुंदर भविष्य की  अभिकल्पना
देश , समाज व व्यक्ति-समुदाय के कल्याण व विकास हेतु यह कामना ही की जा सकती है कि सभी निर्भीक होकर अपने भविष्य, चाहे यह निजी जीवन का भविष्य हो, या किसी कंपनी या संस्थान का भविष्य हो अथवा किसी देश का भविष्य हो, की दूरदृष्टि रखते हुये आने वाले कल की वस्तुस्थिति का सही आकलन कर सकें व अपने सपने व महात्वाकांक्षा के अनुरूप योजना बनाने व उनपर अमल करने का साहस कर सके । इसकी प्रेरणा हेतु हमारे समाज में अनेकों सफल उदाहरण वर्तमान हैं ।           

Friday, April 13, 2012

किताबों का सम्मोहन




खरीददारी करना मुझे वैसा ही काम लगता है जैसे अति व्यस्त ट्रैफिक वाली सड़क क्रॉस करना। इसलिये मैं बहुत ज्यादा सोचने, मोल-भाव में वक्त बिताने के बजाय दुकान में घुसते ही अपनी पसंद और बजट पर सीधे आकर, झटपट खरीददारी करके वहाँ से वैसे ही भागना पसंद करता हूँ जैसे सड़क के दोनों तरफ से आती तेज रफ्तार ट्रैफिक को ध्यान देकर झटपट दौड़ते सड़क पार करना, फिर यूँ राहत की सांस लेते हैं मानो जान तो बची । मेरी इस झटपट की खरीददारी मेरी पत्नीजी को बहुत अखरती है, क्योंकि उनके विचार में खरीददारी में खर्च किये जा रहे पैसे  की आधी कीमत तो चार दुकान पर घूमकर सामान की जाँच परख करने और खूब मोलभाव करके सामान खरीदने से ही वसूल होती है , और मेरी इस झटपट की खरीददारी से उनकी शॉपिंग का मजा अधूरा  ही रह जाता है।

किंतु जब मैं किताब की दुकान पर जाता हूँ तो मेरी यह झटपट खरीददारी की प्रवृत्ति पता नहीं कहाँ विलुप्त हो जाती है और मुझे किताब की  खरीददारी में  घंटों तक मगजमारी करनी पड़ती है। कारण यह नहीं कि कोई किताब पसंद नहीं आती अथवा किताबों की पसंद की समझ नहीं है बल्कि उल्टा है, यानि दुकान में सजी आधी से ज्यादा किताबें पसंद आ जाती है, और फिर बड़ा ही कठिन काम यह हो जाता है कि कौन सी किताब छोड़ें , क्योंकि एक तरफ बजट की सीमा, दूसरी तरफ किताबों को साथ ढोने की समस्या, खासतौर से जब आप यात्रा पर हों और तीसरा कारण पत्नी जी के कोप का भाजन बनने का खतरा,  क्योंकि किताब पर पैसा खर्च करना,उनका बेमतलब बोझ ढोना या घर में संग्रह करना उनको मेरा सबसे फालतू और झुंझलाहट वाला काम लगता है ।

कल मैं जरूरी काम से दिल्ली में था और शाम की फ्लाइट से वापस लौटने का रिजर्वेसन कराया था। चूँकि दिल्ली लम्बे अतराल , लगभग तीन वर्ष बाद आना हुआ इसलिये शाम को दो-तीन घंटे का समय चुराकर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से एयरपोर्ट तक की मेट्रो रेल एक्सप्रेस सेवा को देखने व उसपर यात्रा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया, किंतु इस लालच को पूरा करने के चक्कर में मुझे भारी कीमत यह चुकानी पड़ी कि मैं एयरपोर्ट पर चेक-इन के निर्धारित समय से दस मिनट बिलम्ब से पहुँचा और एयरइंडिया ने पूरी बेरुखी दिखाते मुझे बोर्डिंग पास देने से मना कर दिया ( क्योंकि नियमानुसार एयरोप्लेन के छूटने के समय के 45 मिनट पहले ही चेक-इन कर सकते हैं) ।

मैं मन ही मन तो बहुत कुढ़ रहा था गोया यह सरासर एयरइंडिया की खलनायकी है, किंतु अंतत: समझौता तो मुझे ही करना था, अत: मैं नतमस्तक ओर लाचार हो दूसरे दिन सुबह की फ्लाइट में रिबुकिंग कराया, और रात दिल्ली में अपने रिश्तेदार के घर में बितानी पड़ी ।

 

सुबह एयरपोर्ट पर फ्लाइट के निर्धारित समय से थोड़ा जल्दी पहुँचने के कारण, मेरे पास दो घंटे का खाली समय था ,इसलिये समय का उपयोग एयरपोर्ट लाउंज में स्थित बुकशाप में घूमने और पसंद की एक-दो किताब खरीदने में करना सबसे उपयुक्त कार्य लगा ।

 

सर्वप्रथम Latest Publication सेक्सन था। इसमें दो तीन किताबे तुरत पसंद आ गयीं- जैसेः The Soul of Leadership by Deepak Chopra ,A Romance with Chaos By Nishant Kaushik , Nothing can be as Crazy by Ajay Mohan , जिनका हाल ही में रिवियु पढ़ा था व इनको पढ़ने हेतु मन में उत्सुकता थी. इन किताबों को छाँटकर साथ रखा और आगे बढ़ा Autobiography section में । वहाँ पर दो तीन किताबे पसंद आ गयी- Ricky Martin Me, An Autobiography by Ricky Martin, As I see it by L.K. Adwani ( The collection of blog posts of L K Adwani), Steve Job’s Biography । बगल की ही रेक में Spiritual section था , वहां भी एक पुस्तक The Speaking Tree- Distress with Yoga and meditation , Times of India पसंद आयी । इन पसंद आयी पुस्तकों को भी छाँटकर साथ रख लिया और आगे बढ़ा ।

 

दिमाग ने तो तुरत सवाल खड़े शुरु खड़े कर दिये- भाई! यात्रा में हो, एक दो ही किताब तो खरीदना हे, सात पहले ही सिलेक्ट कर चुके हो अब आगे क्या देखना है? फिर भी उपलब्ध समय की निश्चिंतता के कारण मैंने अपने दिल और पसंद को वरियता देकर अगले सेक्सन Economics and management books की ओर बढ़ा। यहाँ पर तो मेरे पसंद की कई किताबें थीं, जिनमें से – Outrageous Fortunes by Daniel Altman खास तौर पर पसंद आयी और इसे भी छाँटकर शापिंग कॉर्ट में रख लिया , और बगल में मैनेजमेंट बुक्स की रेक की ओर बढ़ा।

 

इधर मन की व्यग्रता बढ़ रही थी कि यह क्या मजाक है! लेनी है एक दो किताब और आठ तो पहले छाँट कर कॉर्ट में रख ली हैं, अब क्या देखना है ? पर इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुये मैंने चार-पाँच और पसंद आयी किताबों को छाँट लिया-The Toyota Talent by Liker Talent,Inside CocaCola by Neville Isdell with David Beasley ( A CEO’s Life Story of Building the most popular Brand), The Otherside of Innovation by Govindrajan, When Genius Failed by Roger Lowenckin ( Rise and Fall of Long term Capital management) मैनेजमेंट सेक्सन में और बगल के Motivation Section से चार-पाँच और किताबें पसंद आ गयीं और उन्हें भी shopping cart में रख लिया- Grow- How Ideals Power Growth and profit at the world’s 50 Greatest Companies by Jim Stengel, Outwitting the Devil by Napoleon Hill, The 3rd Alternative – Solving life’s most difficult problems by Stephen Covey, Never Too late to be great – The Power of Thinking Long by Tom Butler Bowdon.

मेरी शॉपिंग कॉर्ट में लगभग 18-20 किताबें हो गयी थीं और मन लगभग विद्रोह की स्थिति में था अब बहुत हो गया, और अब सबसे बड़ी चुनौती तो यह कि इन पसंद आयी 18-20 किताबों में से ज्यादा से ज्यादा दो या तीन किताब ही खरीदनी हैं , किसको छोड़ूँ, वैसे भी Napoleon Hill और Covey की किताबें छोड़ना मेरे लिये उतना ही कठिन व दुःखदायी होता है, जितना कि किसी छोटे बच्चे के हाथ से लॉलीपॉप या चॉकलेट छीन लेने से।

 

मन इस धर्मसंकट व उहापोह से गुजर ही रहा था कि अचानक दृष्टि पास की बुक डिस्प्ले स्टैंड पर गयी जहां Horward Business Review Publication की कई अच्छी व मेरे पसंदीदा विषय की किताबें थी- Negotiating Conflict Resolution, Crisis Management, Managing Time और इनको भी छाँटकर शॉपिंग कॉर्ट में रखने से स्वयं को न रोक सका । इसी के पास बच्चों का भी बुक स्टैंड था जहाँ अपनी बेटी के लिये दो किताबे पसंद आ गयीं और उन्हें भी छाँट कर पास रख लिया – The story of Physics , The story of Mathematics by Anne Rooney.
 

तब तक निगाह घड़ी पर गयी और चौंका कि एयरोप्लेन की बोर्डिंग टाइम में मात्र पंद्रह मिनट बचे हैं । इस तरह मैने दो घंटे बुकशॉप में कैसे बिता दिये, समय का पता ही नहीं चला।

 

जब असमंजस व अनिर्णय की स्थिति हो और साथ ही साथ आप जल्दी में भी हो. , तो समय का अभाव कई बार हमें शीघ्र निर्णय पर पहुँचने में काफी मददगार सिद्ध होता है। अतः समय की विवशता को ध्यान में रखते मुझे उहापोह से बाहर निकल तुरत निर्णय लेना पडा और मैंने  निम्न पुस्तकें खरीदने के उद्देश्य से अंततः छांट ली-



1.   The story of Physics, The story of Mathematics by Anne Rooney
2.   Inside Coca-Cola
3.   Managing Time
4.   Grow by Jim Stengel
5.  Never Too late to be Great by Tom   

 

बाकी किताबों को उनके यथास्थान छोड़ , मैं बिल-काउंटर की ओर भारी मन से बढ़ गया क्योंकि अंततः मुझे अपनी खास पसंद  के लेखकों की ही किताबे- यानि Napoleon Hill and  Stephen Kovey को ही छोड़ना पड़ा। शायद उन्हे अगली बार खरीद सकूँ ।

Monday, April 9, 2012

अनुशासन और यह जीवन यात्रा



लेट सेवेन्टीज में जब मैं जूनियर स्कूल में पढ़ता था तो हर खास जगह- बस, ट्रक,ट्रैक्ट, सार्वजनिक निर्माण विभाग के बोर्ड सभी जगह यह नारा लिखा रहता था- अनुशासन ही देश को महान बनाता है । उन दिनों एक जूनियर स्कूल के विद्यार्थी के रूप में अनुशासन के बारे में हमारी यही समझ होती थी कि साफ सुथरी यूनिफार्म पहन कर स्कूल जाना,अध्यापकों के साथ विनम्रता व सम्मान के साथ प्रस्तुत होना, अपना गृहकार्य समय से व साफ-सुथरे ढंग से करना, कक्षा में शांति से बैठना व सहपाठियों से लड़ाई-झगड़ा न करना । इसलिये उस समय यह नारा हमें पहेली की तरह लगता कि आखिर अनुशासन से देश कैसे महान बन सकता है ।

फिर सीनियर स्कूल और कालेज में  NCC ज्वाइन करने के कारण डिपुटेसन पर तैनात भारतीय सेना के अधिकारियों के संरक्षण में जब प्राय: परेड व कैम्प में हिस्सा लेना होता था , तब निर्देशकों के कड़क आदेशों का कड़ाई से पालन करने,अपने सभी काम खुद करने, अपनी वर्दी,जूते,बेल्ट साफ,पालिस कर चमकता रखने, पंक्तिवद्ध व सदा सजग होकर खड़े होने व चलने जैसी आदतें अनुशासन के अध्याय के रूप में सीखने का अवसर मिला।

उम्र बढ़ने व जीवन-परिवेश के विस्तार के साथ धीरे-धीरे यह बात अवश्य समझ में आने लगी कि किसी भी महत्वपूर्ण व चुनौतीपूर्ण कार्य, चाहे वह कोई परीक्षा प्रतियोगिता हो अथवा खेल की प्रतियोगिता , कड़े अनुशासन व श्रम की आवश्यकता होती है- नियमित रूप से प्रतिदिन कई घंटे का कड़ा अभ्यास । हालाँकि स्वयं के अंदर जितना अनुशासन होना चाहिये, उतना तो कभी नहीं रहा, यानि पढ़ाई में नियमित व कड़ी मेहनत तो नहीं किये, हाँ जब सामने बड़ी चुनौती - परीक्षा में  फेल होने का डर अथवा प्रतियोगिता में असफल होने का संकट आ जाता तो अवश्य ही अतिरिक्त श्रम करके येन केन प्रकारेण काम यलाने में कमोवेस सफल ही रहे , हालाँकि मन में मलाल तो है कि यदि जीवन में अनुशासन का पालन किया होता व अतिरिक्त श्रम किया होता तो और अच्छा कर सकते थे । पर क्या करियेगा , कुछ इंसानी फितरत ही ऐसी है कि अनुशासन व श्रम साधारण मनुष्य को उसी तरह नहीं भाते जिस तरह बिना नमक,तेल व मसाला की सब्जी । जीवन में श्रम व अनुशासन के ऊपर कामचोरी व आलस्यपन प्रभावी हो जाता है , नियम संयम के ऊपर उन्माद व अल्हणपना भारी पड़ता है ।  

प्रायः तरुणावस्था व युवावस्था में मनुष्य आलस्य, अन्माद व अल्हणपना का शिकार ज्यादा होता है । मुझे याद है दस बारह वर्ष पूर्व जब और तब मैं इलाहाबाद में कार्यरत था, और मेरे दोनों बच्चे चार छः वर्ष के थे , मैं उन्हे सुबह साढ़ेतीन-चार बजे नियमित रूप से घर से तीन-चार कीलोमीटर दूर स्थित खेलग्राउंड पर जिमनास्टिक की कक्षा में ले जाता, वे भी चटपट तैयार हो जाते व पूरी तत्परता व उत्साह से प्रैक्टिस करते । अब जब वे बड़े हो गये है, उन्हें सुबह जगाने व सुबह की जॉगिंग पर भेजने के लिये मुझे उनके साथ भारी मसक्कत व झिक-झिक करनी पड़ती है ।

बच्चों की बात छोड़ दें, तो हम सब देश के एक आम नागरिक अथवा एक जिम्मेदार कर्मचारी के रूप में भी कौन सा अनुशासन पालन करते हैं । सार्वजनिक स्थानों का दुरपयोग व सार्वजनिक नियमों व साधारण नागरिक के कर्तव्य-पालन में प्रायः हीलाहवाली, कार्यालय में अथवा मीटिंग्स में कभी भी समय पर न पहुँचना, दी गयी जिम्मेदारी व कार्य को समय पर पूरा न करना, कर्तव्यपरायणयता का अभाव व भ्रष्टाचार में लिप्तता यदि हमारी अनुशासन हीनता नहीं तो और क्या है ।

यदि हम महान व्यक्तियों – जैसे अब्राहम लिंकन, महात्मा गाँधी,विश्व प्रसिद्ध महान खिलाड़ी,कलाकार,संगीतकार , वैज्ञानिक,अन्वेषक, लेखक, व्यवसायी, इत्यादि जो भी सफल व्यक्ति रहें हैं, उनके जीवनचरित्र का अध्ययन करते हैं तो सबमें एक बात अवश्य समान मिलती है , वह है अनुशासन व अपने प्रोफेसन के प्रति समर्पण व नियमित कड़ी मेहनत । गांधीजी का तो पूरा जीवन ही अनुशासन व कड़े श्रम का जीवंत उदाहरण है ।हम अपने जीवन में जिन अभिनायकों व खिलाड़ियों- जैसे अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, सचिन तेंदुलकर अथवा महेंद्र सिंह धोनी को भगवान की तरह आदर व सम्मान करते हैं , उनके जीवन में सफलता की मुख्य विशेषता उनके जीवन में  अनुशासन व कठिन श्रम के प्रति सदैव तत्परता ही है ।

इस तरह अब यह बात तो अच्छी तरह से समझ में आ गयी है कि अनुशासन ही हमारे अंदर की महानता व श्रेष्ठता को जागृत करता है और हमें एक श्रेष्ठ व योग्य मनुष्य बनाता है , और यह तो स्वाभाविक ही है कि श्रेष्ठ व योग्य मनुष्यों के पौरुष व योगदान से ही एक महान राष्ट् का निर्माण होता है ।

फिर भी , और चलते-चलते, यदि हल्के लहजे की बात करें तो जीवन में थोड़ी मौजमस्ती, अत्हणपना  का भी अपना आनंद है, वैसे ही जैसे खाने में थोड़ा चटपटा,मिर्च मसाला भी उसके स्वाद में खासियत लाता है। पर ध्यान रखने की बात है कि यह संतुलित व अपने कार्य के लक्ष्य के प्रति बिना लापरवाही व भटकाव के होना चाहिये, ठीक उसी तरह जिस तरह का ज्ञान उस सुंदर युवती ने सिद्धार्थ  गौतम को दिया था , जिसकी सीख से वे गौतम बुद्ध बन गये-कि वीणा के तार को इतना भी न कसो कि यह टूट जाये , और इतना ढीला भी मत छोड़ो कि बजे ही नहीं ।

Sunday, April 8, 2012

Innovative Minds and Entrepreneurship (नवाचार व उद्यमशीलता) - पार्ट-2



विज्ञान का चमत्कार ( टाइम्स ऑफ इंडिया के सौजन्य से )

दो-तीन पूर्व दिन इस विषय पर जब मैं लिखना आरम्भ किया, तो मन में नवाचार के विषय में मुख्य विचार यही चल रहा था कि इसके लिये किस तरह की  नेतृत्वशैली और प्रबंधन व व्यावसायिक रणनीति आवश्यक है और  इस हेतु सम्यक आचरण कैसा होना चाहिये, और इसी परिपेक्ष्य में इस पोस्ट के प्रथम भाग में मैंने महाभारत में वर्णित विदुर नीतोपदेश से एक श्लोक भी उद्धृत किया था , जो बुद्धिमत्तापूर्ण व विवेकशील नेतृत्वशैली की सटीक व्याख्या करता है ।

संयोगवश कल (07.04.12) टाइम्स ऑफ इंडिया समाचारपत्र में इसी विषय से संबंधित एक लेख Shifting The Innovation Track , जिसे श्री Sunil Khilnani , निदेशक, India Institute, King's College, London, ने लिखा है, भी पढ़ने को मिला । इस लेख में लेखक ने नवाचार (Innovation ) के संबंध में अति महत्वपूर्ण यह बात स्पष्ट यह की है कि प्रायः हम नवाचार (Innovation ) का तात्पर्य किसी काम को येन-केन प्रकारेण ( by hooks or crooks) और झटपट कर लेने से समझने लगते हैं, और लेखक ने हमारी नवाचार के प्रति इस प्रवृत्ति व सतही सोच के प्रति हमें नितांत सावधान किया है ।

लेखक ने यह  स्पष्ट किया है कि भारत के निजी  अनुभव, और अन्य विकसित हुये देशों के भी अनुभव को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि किसी भी क्षेत्र में नवाचार कुछ जादू जैसा, झटपट,चमत्कारी या यूरेका जैसी प्रतिक्रियाओं सा मात्र एक आसान सा परिणाम नहीं होता है बल्कि  यह एक  दीर्घकालिक दृष्टि और योजनाबद्ध निवेश का क्रमिक व संचयी उत्पाद होता है ( long term vision and investment, and thereof the gradual, cumulative gains ) ।

लेखक ने बंगलौर व यहाँ पर सूचना तकनीकि कंपनियों की ऐतिहासिक सफलता का  भी  उदाहरण देते हुये यह स्पष्ट करने का प्रयाश किया है कि प्रायः हम इस सफलता का कारण केवल ,  आमतौर पर, 1980 के दशक में अचानक तकनीकी व व्यावसायिक रूप से कुशल कुछ निजी नव-उद्यमियों, के कुशल नेतृत्व,रणनीति व नवाचारपूर्ण तकनीकि व व्यावसायिक कार्यशैली को मान लेते हैं , किंतु हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि इस शहर के एक नवाचार इंजन व मुख्य केंद्र बनने व सूचना तकनीकि उद्योग में मिली उल्लेखनीय सफलता के पीछे यहाँ पर व देश के अन्य भाग में पहले से उपलब्ध उपयुक्त उनन्त तकनीकि वातावरण – भारतीय विज्ञान संस्थान जैसे उन्नत तकनीकि व विज्ञान अनुसंधान केंद्र के साथ-साथ हमारे देश में भारतीय तकनीकी संस्थानों(IITs) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता की तकनीकी में दक्ष व कुशल प्रशिक्षित इंजिनियरों की उपलब्धता , था , जिसकी पृष्ठभूमि देश में काफी पहले , 1950 के दशक में ही, स्थापित हो गयी थी । 

इस तरह तकनीकि व व्यवसायिक वातावरण की उपलब्धता बुद्धिमान व उद्यमशील व्यक्तियों को नवीन कार्य करने की प्रेरणा व सही अवसर प्रदान किया , जिससे वे अपने नवाचारपूर्ण कार्यशैली में सफल रहे ।

इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि यह ऐतिहासिक नवाचार की घटना मात्र कुछ बुद्धिमान व अति-प्रतिभाशील व्यक्तियों की चमत्कारिक व्यावसायिक उपलब्धता के परे, तकनीकि,विज्ञान व व्यवसायिक संस्थानों के निर्माण व विकास में देश द्वारा एक लम्बी अवधि तक किये गये सही व समुचित निवेश का सुपरिणाम था ।

इस तरह नवाचार के वृक्ष को विकसित व हराभरा होने हेतु आवश्यक है कि उसकी जड़े काफी गहरी हो व उसकी अनेकों टहनियाँ व शाखायें विकसित हो सके ।

यदि हम अंतर्राष्ट्रीय व विकसित देशों – यूरोप व अमरीका का उदाहरण देखें तो हमें स्पष्ट हो जाता है कि इन देशों ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध व बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अपने विश्वविद्यालयों, तकनीकि,व्यवसायिक प्रशिक्षण व अनुसंधान संस्थाओं के विकास में लम्बी अवधि तक लगातार निवेश किया ,जिसके फलस्वरूप ये संस्थान ऐतिहासिक रूप से समृद्ध होकर उभरे , और वहाँ पर अनेकों बुद्धिजीवियों, कुशल वैज्ञानिकों, अभियंताओं,व उद्यमशील प्रबंधकों का निर्माण व विकास हुआ जो अपने नवाचार पूर्ण तकनीकि व व्यवसायिक कौशल व प्रतिभा से इन देशों में ही नहीं अपितु अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सहायता से संपूर्ण विश्व में तकनीकी व औद्योगिक क्रांति लाने व अपने देश की तकनीकि व व्यवसायिक योग्यता व श्रेष्ठता का  विश्वभर में परचम लहराने में सफल रहे ।

इन अनुभवों से सबक लेते हुये हमें भी शुद्ध विज्ञान,उच्च तकनीकि व व्यवसायिक प्रबंधन के प्रशिक्षण व अनुसंधान के क्षेत्र में विश्वस्तरीय संस्थानों का निर्माण करने व उन्हे उन्नतशील करने  हेतु गंभीरता पूर्वक व लगातार निवेश करते रहने की अतीव आवश्यकता है , ताकि आने वाले भविष्य में उच्चकोटि की उद्यमशीलता के विकास हेतु उचित वैज्ञानिक व तकनीकि दक्षतापूर्ण वातावरण का निर्माण हो सके । 

इस उचित वातावरण की उपलब्धता में ही हम अपने देश में उपलब्ध प्रतिभाशील मानवसंसाधन की योग्यता में निखार लाने व उनके  नवाचारपूर्ण विचारों व उद्यमशीलता को सदुपयोग में लाते हुये एक औद्योगिक रुप से सफल व सक्षम हो सकते हैं , और इसतरह निकट भविष्य में एक विकसित उन्नत भारत का निर्माण करने में सफल हो सकते हैं। 

Saturday, April 7, 2012

Innovative Minds and Entrepreneurship (नवाचार व उद्यमशीलता) - पार्ट 1



Innovation यानि नवाचार आजकल प्रबंधन की बोलचाल की भाषा में प्रायः उपयोग में आने वाला शब्द है । एक रिपोर्ट के अनुसार तो विगत वर्षों में प्रबंधन वृत्त क्षेत्र में यह सबसे अधिक उपयोग में आने वाला शब्द रहा है ।

वैसे तो अंग्रेजी शब्दावली के अनुसार Innovation शब्द का शाब्दिक अर्थ नवीनता से जुड़े अर्थ में अनेक निम्न शब्द जैसे- नवीनता ,नवीनीकरण ,नवपरिवर्तन,नयापन ,नवोत्थान ,नवोन्मेष ,नई खोज ,नई पद्धति इत्यादि हैं, किंतु मेरी समझ से हिंदी भाषा में इसके लिये एक अति सार्थक शब्द लगता है – नवाचार और मैंने अपने इस लेख में इसी शब्द का प्रयोग किया है ।

नवाचार के संबंध में मुझे एक अति प्रासंगिक कथन महाभारत ग्रंथ का निम्नलिखित श्लोक लगता है-

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति,

विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।


नासंपृष्टो व्यपयुंक्ते परार्थे


तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य॥

यह कथन विदुर, जो रिश्ते में धृतराष्ट्र के भाई व उनके नीतिमंत्री थे, ने धृतराष्ट्र को नीति की व्याख्या करते हुये एक बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण व चरित्र के विश्लेषण में बताया था , जिसका भावार्थ इस प्रकार है-

एक बुद्धिमान व्यक्ति  की  समझ अति तीव्र, वह दूसरों के बात व विचार को ध्यान से व धैर्य से सुनता है,  वह उपलब्ध तथ्यों के आधार पर ही अपनी समझ व धारणा बनाता है, न कि मात्र मनगढ़ंत स्वेच्छा द्वारा , वह दूसरे के काम व जिम्मेदारी में तब तक टाँग नहीं अड़ाता, जब तक उसे कहा न जाय अथवा उसकी नितांत आवश्यकता न हो, बुद्धिमान व्यक्ति के यह प्रधान लक्षण होते हैं ।  

इसपर तो हम सब ही सहमत होंगे कि अस्सी के दसक के उत्तरार्ध अथवा नब्बे के दसक के पूर्वार्ध में भारत में इन्फोसिस, विप्रो और टी.सी.यस. जैसी सूचना तकनीकि कम्पनियों की स्थापना व उनके द्वारा अपनायी गयी व्यवसायिक पद्धति व कार्यप्रणाली न सिर्फ भारत बल्कि अंतर्राष्ट्रीय उद्योग जगत में भी नवाचार की अद्भुत उदाहरण थी और उनके इस नवोन्मुख व्यावसायिक व तकनीकि प्रणाली के सोच व अमल ने संपूर्ण विश्व व्यवसाय जगत में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया।यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि  वर्तमान  इक्कीसवीं शताब्दी के अति आधुनिक सूचना तकनीकी प्रणाली से समृद्ध जिस विश्व में हम रह रहे हैं, उसमें इन कंपनियों की अपनायी नवीन सोच व कार्यप्रणाली का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

इन कंपनियों के संस्थापको व अगुआ,नेतृत्व-कर्ताओं- श्री नारायणमूर्ति, अजिम प्रेमजी एवं अन्य, के प्रबंधन सिद्धांत, कौशल व रणनाति का विश्लेषण करें तो हमें मिलेगा कि उपरोक्त नीति श्लोक में वर्णित सभी प्रधान गुण इन महानुभावाओं में नैसर्गिक रूप से व कूट-कूट कर भरे थे । आज भी , भारत में अथवा विश्व में कहीं भी, जो नयी-नयी कंम्पनियाँ नवाचारपूर्ण व्यवसायिक तौर तरीकों के साथ उभर रही हैं व सफलता के नये आयाम स्थापित कर रही हैं , उनके नेतृत्व व प्रबंधन कर्ताओं में इन्ही प्रधान गुणों की प्रधानता व महत्व है।

इसतरह, मेरे विचार से नवाचार का तात्पर्य इन्ही बुद्धिमत्तापूर्ण गुणधर्मों को अपने कर्मक्षेत्र में पूरी ईमानदारी व शिद्दत  से अपनाने से है । कुछ अति लोकप्रिय व सफल मुख्य कार्य प्रबंधक जैसे श्री ई श्रीधरन, पूर्व मुख्य कार्य निदेशक दिल्ली मेट्रों रेल कारपोरेसन , श्री यन. सिवसैलम, मुख्य कार्य निदेशक बंगलोर मेट्रों रेल कारपोरेसन, जिनके साथ मुझे अपने प्रोफेसनल कैरियर में सन्निकट से कार्य करने का अवसर हुआ, के कार्यप्रणाली व नेतृत्व शैली की मैं समीक्षा करता हूँ तो उनके नेतृत्व व प्रबंधन नीति व प्रणाली में इन्ही बुद्धिमत्तापूर्ण गुणों की ही प्रधानता देखता हूँ ।

तो कह सकते हैं कि उच्चकोटि की उद्यमशीलता व व्यवसायिक मानदंडों के अनुरूप उपलब्धि व इनके नये आयामों की स्थापना नवाचार पूर्ण गुणधर्मों के ईमानदारी से अनुपालन द्वारा सर्वथा संभव है , और इन नवाचारों की उपलब्धि हेतु आवश्यक है नीति अनुरुप बुद्धिमत्तापूर्ण कुशल व सक्षम प्रबंधन व  नेतृत्व , जो खुले मस्तिष्क, सहज विवेक,टीम व सहकर्मियों के साथ असीम धैर्य व विश्वास के गुणधर्मों पर आधारित होता है ।

हमारे सरकारी व सार्वजनिक सेवा क्षेत्र में संलग्न विभाग, जिनकी कार्यकुशलता , दक्षता, व उनकी व्यवसायिक व्यवहार्यता ( Viability) पर प्रायः प्रश्नचिह्न उठते रहे हैं , और आज ये विभाग इन मोर्चों पर कठिन चुनौतियों व अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहे हैं, उनके नेतृत्व व प्रबंधन-कर्ताओं को इन नवाचार व इसके आवश्यक गुणधर्मों के ईमानदारी व सही अर्थों में अनुपालन हेतु गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है ।     

खुशियाँ सौगात लायी हूँ मैं चाँदनी।



एक दिन चाँदनी रास्ते में मिली ,
पास आकर यह मुझसे कहने लगी ,
मैं आती हूँ अक्सर तुम्हारी गली,
हूँ हैरान  तुमसे कभी ना  मिली ।1।

बातें उसकी असर यूँ कि जादू की जैसा
मैं खड़ा देखता उसको ठिठका ठगा सा,
ऐसी उजली निगाहें मन हुआ बावला सा,
पूछ बैठा पता क्या ठिकाना और कैसा ।2।

बोली यूँ जैसे होठों पे मोती खिले-
शाम मुझको बुलाती जो सूरज ढले,
चाँद मेरा है घर वहीं से सवारी चले,
बाहें खोले जमीं से मैं मिलती गले।3।

मेरे चाँदी के रथ से हैं परियाँ उतरती,
नाचतीं मुस्कराती, मगन होती धरती ,
रातरानी जूही देख मुझको ही खिलती,
मेरी किरणों से गंगा अमृत की बहती । 4।

हूँ चमकती तो दुनिया है जन्नत लगे ,
फूलों को चूमती उनमें मधुरस पगे ,
देख मुझको मोहब्बत के अरमान जगे,
होते बेताब दिल और है नीयत डिगे ।5।

रात तनहा अकेली बड़ी स्याह होती ,
उसका आँचल बनी मैं ना जो बिखरती,
रोशनी के बिना कितनी गमगीन होती ,
न पहलू में खुशियों की मोती बिछाती। 6।

माँग मेरे सजी है सितारों की वेणी,
गीत शीतल हवा की मैं फिरती सुनी,
सेज मैं हूँ सजाती ले शबनम-मनी,
खुशियाँ सौगात लायी हूँ मैं चाँदनी।7।

Thursday, April 5, 2012

आज रहते वही कितने तन्हा अकेले ।


(मेरी यह रचना, जो मेरे ब्लॉग की 150वीं पोस्ट भी है, उम्र के पड़ाव पर तनहाई का दर्द सह रहे बुजुर्गों को समर्पित है । शायद इस नज़्म के कुछ अल्फाज अकेले जिंदगी का सफर तय कर रहे बुजुर्गों को उनकी तनहाई व उदासी के अहसासेगम में हमदर्द बन सकें ।)


आज रहते वहीं कितने तन्हा अकेले ,
जिनके हाथों ने थे आशियाने सजाये ।
नाखुदा बन हमारी किये परवरिस थे,
आज दिखते यूँ लाचार, बेजान साये ।1
 
दिखती खामोश आँखें हैं उनकी सवाली
कल देतीं थी जो हर जबाबी इशारा ।
चेहरा कि मानो है  गम का दरिया ,
बहे खुश्क पानी यूँ आखों से खारा   ।2

रखे  हाथ सिर पर हमारे दुआ का ,
सूरत हमारी अब देखने को तरसते।
थे लोरी से देते हमें चैन की नींद ,
बेचैनी पल-पल की खुद सहते रहते ।3

किये बलिदान सुख सब हमारी ही खातिर,
हम मसरूफ यूँ कि न देखें भी मुड़के ।
बिठाकर हमें जिनपर दुनिया दिखायी ,
आज वे मजबूत  कंधे हैं बेबस झुके । 4

कितने बचकानी मसले वे सुनते हमारे,
पर धीरज से उनका समाधान देते ।
हमसे पूछें जो वापस वे छोटी भी बातें ,
हम बड़े अनमने भाव वापस में देते ।5

बोझिल सी हालात इस पड़ावेउमर की,
इक वीरान दरख्त की है खामोशी फैली।
पंछी उड़े  सारे कल बसेरा था जिनका,
झुर्रियों में छिपी उनके जिंदगी की पहेली।6

जो उँगली पकड़ हम चलना थे सीखे,
पीड़ा तनहाई की आज वे हाथ सहते ।
रोशन किया हमें जो खुद को जलाकर, 
उन बुझती शमा को बुढापा हैं कहते ।7

Wednesday, April 4, 2012

छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।


छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।।
बैठे हो पहलू में मेरे ,दिल में यह ख्वाब जगे।।

बेखबर तारे हैं यह़ आसमान भी उनीदा है,
चाँद निकलेगा यह अरमान अभी जिंदा है।
पल दो पल का यह अनजान सफर तो नहीं,
ताउम्र रात की खातिर कई हसरतें बासिंदा हैं ।
आज क्यों सर्द,गैर-जुम्बिस ये कायनात लगे ।
छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।1।

माथे की सिलवटों में दिखती कैसी यह उलझन है ?
पाँव में जकड़ी हुयी जंजीरों की अजीब रुनझुन है।
दास्तान अपनों से कलतक जो हम सुना न सके ,
गैरों से आज गाता रहा मन में लगी कैसी धुन है ?
तेरी  चौखट से भली तो रकीब-ए-दर खार  लगे।
छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।2।

यह लबों का दर्देगम या पैमाने की खामोशी है ,
इस मुस्कान के पीछे क्या छिपी कोई उदासी है ?
राह में मिलते हैं अब वे इक अजनबी की तरह,
उनका यह बेगानापन गोया जीते जी फाँसी है ।
मेरी रुसवाई में शामिल थे खुद मेरे अपने सगे।
छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।3।

आफताबे सुर्ख किरन पूछें हर स़हर यह पता,
चाँद की नर्म किरन की सैर का इधर रस्ता,
एक तेरी ही थी कमी इस स़फर में, वरना तो
गुज़रे इस राह से कितने  कारवाँ औ दस्ता ।
हर सुबह है लाये खुशी और नयी भाग्य जगे ,
छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।4।

छेड़ दो गीत कि यह शाम बहुत उदास लगे ।।
बैठे हो पहलू में मेरे ,दिल में यह ख्वाब जगे।।

Tuesday, April 3, 2012

रात करती इशारे कि महफिल उठी......




सर्द आहें तो कितनी निकलती मगर,
दिल की जलती अगन कब है इससे बुझे
शक्ल अपनी दिखे ख्वाइशें थी बहुत,
आईने की इजाजत मिली ना मुझे।1

खुद की आवाज तक तो वो सुनता नहीं,
खाक उसकी मुनादी से बस्ती  जगे।
टेढ़ी गलियों में चलने की आदत उसे,
सीधे रिश्ते उसे  रास कब से  लगे ।2

कल जो पहलू से गुजरे यूँ इक अजनबी,
आज महफिल में उनकी ही  चर्चा किये ।
कल जो नजरंदाज उनको किये हरघड़ी,
आज उनकी ही आँखों से जमकर पिये।3

कितनी मुश्किल थी वह इंतजार-ए- घड़ी,
लमहे गिनते हुये  जिंदगी यूँ कटी ।
शम्मा जलती रही चाँद ढलता रहा,
रात करती इशारे कि महफिल उठी ।4

शोर इतना था कि उनकी महफिल चली,
पर रास्ते में दिखे फख्त तन्हा अकेले।
आज वे ही चुराते नजर मुश्किलों में,
कल बढ़कर सभी बोझ कंधों पर झेले।5

कर दो उनको इशारे कि इनायत करें,
कितनी बेताब महफिल है उनके बिना।
कुछ लमहों की गुस्ताखियों के लिये ,
कौन सदियों तलक जुल्म-ए-गिनती गिना ।6।

वक्त कितने गुजारे ज़िरह में मगर,
उनकी बदहालसूरत जो भी ज़ान लेते।
जो दो घूँट पानी हलक को मिला था,
बड़ी बेबसी से वे न दम तोड़े होते ।7।