अभी हाल ही में मैंने एक पुस्तक Never Too Late To Be Great: The Power of Thinking
Long by Tom Butler-Bowdon पढ़ी। मनोबल बढ़ाने वाली(Motivational) पुस्तकों में मैंने आज तक जो भी पढ़ा हैं,
यह उनमें सबसे रोचक व प्रभावशाली पुस्तक लगी ।
पुस्तक के लेखक- Tom Butler-Bowdon |
वस्तुत: लेखक ने अनेकों प्रभावी उदाहरणों के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि की है कि प्राय: पच्चीस-तीस वर्ष के लंबे संघर्ष व कठिन श्रम के उपरांत , हालाँकि इसके कुछ अपवाद अवश्य हैं, ही अधिकाँश महान व्यक्तियों ने अपनी महान व ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त की ।
इस पच्चीस-तीस वर्षों के संघर्ष की अवधि प्राय: अनेकों गलतियों,उनसे मिली असफलताओं व पीड़ा से युक्त होती हैं, कई बार तो इस दौर को स्मरण करते ही मन आर्द्र हो उठता है , किंतु यदि इसका तथ्यपूर्ण विश्लेषण करें तो प्राय: यही सत्य प्रकट होता है कि हर असफलता अपने साथ एक अद्भुत सीख लिये आती है, और ईमानदारी से यदि इस सीख को समझें व अपनायें तो निश्चय ही इन गलतियों से बड़ा गुरु हमारे लिये कोई हो ही नहीं सकता ।
हालाँकि इन गलतियों के साथ जुड़ी असफलताओं व निराशा के दुख व पीड़ा को सहना व्यक्ति के लिये अत्यंत दुरूह व कठिन अनुभव हो सकता है, किंतु लेखक का मत है कि बिना विफलता को स्वीकार करने की हिम्मत दिखाये
जीवन में कुछ भी परिणामकारी संभव कदापि नहीं।
विचारों की स्वतंत्रता,ईमानदारी
और विश्वास, जिज्ञासा, सहयोग, जवाबदेही, उत्कृष्टता
जैसे बुनियादी मूल्य हमारे जीवन-आदर्शों में संवृद्धि, नव-अन्वेषण की प्रेरणा और
समाज को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कार्यों करने हेतु एवं इनकी वृद्धि हेतु
ईंधन का कार्य करते हैं।और यह जाहिर है कि इन बुनियादी मूल्यों की वृद्धि एवं इनका
संरक्षण बिना विफलताओं को सहज स्वीकार करने का हौसला दिखाये कतई सम्भव नहीं।
हमें
जीवन में प्रायः वही हासिल होता है जिसकी हम एक निश्चित समयसीमा में स्वयं से
कार्यप्रदर्शन की अपेक्षा रखते हैं। इस बात को समझाने हेतु लेखक ने एक विशेष
सिद्धांत 'Regret
minimisation framework'
(पछतावा न्यूनकरण ढाँचा) का अपनी पुस्तक में प्रतिपादन किया है । इस सिद्धांत की
प्रक्रिया में हम स्वयं को अपने भविष्य
में अस्सी वर्ष की उम्र में स्थापित कर वापस अपनी जिंदगी को पीछे मुड़कर देखने का
प्रयास करते हैं।अस्सी वर्ष की आयु पर क्या हमें इस बात का पछतावा होगा कि बिना विफलता
की कोई चिंता किये मैंने अपनी अंतर्प्रेरणा के अनुरूप छलांग लगाने की हिम्मत दिखाई? निश्चय ही इस का उत्तर हमें मिलता है एक
जोरदार ‘नहीं, कदापि नहीं,’ जो हमारे मन में जीवन में मिली किसी भी प्रकार की विफलता के प्रति होने वाले
पछतावे व अवसाद को न्यूनतम कर देता है।
इस प्रकार का 'Regret
minimisation framework'
हमारे जीवन में असफलताओं के प्रति भय-आधारित निर्णय लेने की प्रवृत्ति से हटकर
अपनी पसंद व प्रतिभा के बेहतरीन संभव उपयोग के दृष्टिकोण उत्पन्न करने व तदनुरूप
भयरहित साहसिक निर्णय लेने में सहायक होता है।
इस प्रकार हमें जीवन में आगे क्या
करना है यह ध्यान में रखते हुये स्वयं से तीन सवाल करना है- क्या मैं अब तक स्वयं
का जीवन जिया? क्या मैंने अब तक अपने पसंद व
प्रतिभा को प्रेम व आदर दिया? क्या मैं आज तक अपना वजूद
समझा? स्वयं को अस्सी वर्ष की
अवस्था में रखकर, पीछे मुड़कर जीवन को देखना इन प्रश्नों के सही उत्तर जानने व
समझने हेतु एक शक्तिशाली संदर्भ प्रदान करता है, व हमारे जीवन के वर्तमान में
उपस्थित सारे भ्रम व भ्रांतियों को दूर कर देता है।
लेखक ने पुस्तक में एक और
महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट किया है कि शुरुआत में ही मिल जाने वाली सफलता दुधारू
तलवार की तरह होती है, यह आपको उपलब्धियों से पूर्ण एक विशिष्ट व्यक्ति तो अवश्य
बना देती है,किंतु यह आपके कंधों पर
अपेक्षाओं का भारी बोझ भी लाद देती है व एक साँचे में बाँध सी देती है जिससे बाहर
निकल कर कुछ अन्य उपलब्ध कर पाना बड़ा ही कठिन सिद्ध होता हैं।
मात्र लोगों की निगाह व पहचान
में बने रहना और बात है, किंतु हमारी किसी
लक्ष्य या उपलब्धि की आकांक्षा के प्रति चाहे कितना ही बड़ी व चमकदार संकल्प व
घोषणा हो, किंतु अततः हम वास्तव में क्या हैं अथवा क्या उपलब्ध कर पाते हैं इस
हेतु समय, हमारा स्वयं का अनुभव, खासतौर पर हमारी गलतियों से सीखे सकारात्मक सबक,
ही निर्णायक सिद्ध होते हैं।
आखिर में अपनी बात मैं लेखक
के इस कथन के साथ समाप्त करता हूँ- People tend to overestimate what they can achieve in a year,
but underestimate what they can achieve in a decade, and if we do start to
think in longer timeframes, suddenly a lot more becomes possible. अर्थात्
हम छोटी अवधि यानि साल या महीने की अवधि
में क्या उपलब्धि हासिल कर सकते हैं इसका प्रायः अधिक-आकलन करते हैं व लम्बी अवधि
यानि एक दसक या पाँच दसक में क्या उपलब्धि हासिल कर सकते हैं इसका प्रायः कमतर-आकलन
कर बैठते हैं,और यदि हम लम्बी समयसीमा में सोचना शुरू कर दें तो अकस्मात कितना कुछ
उपलब्ध करना संभव दिखाई देने लगता है।
मेरी इस बात से आप अवश्य सहमत होना चाहेंगे कि यह
तथ्य सिर्फ एक व्यक्ति के स्तर पर ही लागू नहीं होता बल्कि समाज व देश के स्तर पर
भी यही बात लागू होती है ।