Saturday, June 30, 2012

लम्बी समयसीमा की सोच से संभव हैं चमत्कारी उपलब्धियाँ ।



अभी हाल ही में मैंने एक पुस्तक Never Too Late To Be Great: The Power of Thinking Long by Tom Butler-Bowdon पढ़ी। मनोबल बढ़ाने वाली(Motivational) पुस्तकों में मैंने आज तक जो भी पढ़ा हैं, यह उनमें सबसे रोचक व प्रभावशाली पुस्तक लगी ।

पुस्तक के लेखक-
Tom Butler-Bowdon
पुस्तक में लेखक ने मुख्यतया दो बातों पर विशेष बल दिया है- प्रथम तो यह कि हमारी सफलता हेतु भाग्य सही अवसर जैसे कुछ कारकों के यदाकदा योगदान के अतिरिक्त जो मुख्य कारक होता है वह है अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता  और इसकी प्राप्ति हेतु एक लम्बी अवधि तक कठिन परिश्रम ,यानि सफलता हेतु कोई short cut अथवा जादूई छड़ी चीज नहीं होती । लेखक ने दूसरी महत्वपूर्ण बात पर बल दिया है कि ऐसी धारणा कि कोई असाधारण उपलब्धि अथवा नवीन कार्य केवल व्यक्ति की युवावस्था, जबकि उसकी ऊर्जा,तत्परता क्षमता चरम पर होती है , में ही संभव है सर्वथा मिथक है बल्कि महान उपलब्धि व्यक्ति की प्रौढ़ावस्था में भी सर्वथा संभव है।

वस्तुत: लेखक ने अनेकों प्रभावी उदाहरणों के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि की है कि प्राय: पच्चीस-तीस वर्ष के लंबे संघर्ष व कठिन श्रम के उपरांत , हालाँकि इसके कुछ अपवाद अवश्य हैं, ही अधिकाँश महान व्यक्तियों ने अपनी महान ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त की

इस पच्चीस-तीस वर्षों के संघर्ष की अवधि प्राय: अनेकों गलतियों,उनसे मिली असफलताओं पीड़ा से युक्त होती हैं, कई बार तो इस दौर को स्मरण करते ही मन आर्द्र हो उठता है , किंतु यदि इसका तथ्यपूर्ण विश्लेषण करें तो प्राय: यही सत्य प्रकट होता है कि हर असफलता अपने साथ एक अद्भुत सीख लिये आती है, और ईमानदारी से यदि इस सीख को समझें अपनायें तो निश्चय ही इन गलतियों से बड़ा गुरु हमारे लिये कोई हो ही नहीं सकता

हालाँकि इन गलतियों के साथ जुड़ी असफलताओं निराशा के दुख पीड़ा को सहना व्यक्ति के लिये अत्यंत दुरूह कठिन अनुभव हो सकता है, किंतु  लेखक का मत है कि बिना विफलता को स्वीकार करने की हिम्मत दिखाये जीवन में कुछ भी परिणामकारी संभव कदापि नहीं।

विचारों की स्वतंत्रता,ईमानदारी और विश्वास, जिज्ञासा, सहयोग, जवाबदेही, उत्कृष्टता जैसे बुनियादी मूल्य हमारे जीवन-आदर्शों में संवृद्धि, नव-अन्वेषण की प्रेरणा और समाज को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कार्यों करने हेतु एवं इनकी वृद्धि हेतु ईंधन का कार्य करते हैं।और यह जाहिर है कि इन बुनियादी मूल्यों की वृद्धि एवं इनका संरक्षण बिना विफलताओं को सहज स्वीकार करने का हौसला दिखाये कतई सम्भव नहीं।

हमें जीवन में प्रायः वही हासिल होता है जिसकी हम एक निश्चित समयसीमा में स्वयं से कार्यप्रदर्शन की अपेक्षा रखते हैं। इस बात को समझाने हेतु लेखक ने एक विशेष सिद्धांत 'Regret minimisation framework' (पछतावा न्यूनकरण ढाँचा) का अपनी पुस्तक में प्रतिपादन किया है । इस सिद्धांत की प्रक्रिया में  हम स्वयं को अपने भविष्य में अस्सी वर्ष की उम्र में स्थापित कर वापस अपनी जिंदगी को पीछे मुड़कर देखने का प्रयास करते हैं।अस्सी वर्ष की आयु पर क्या हमें इस बात का पछतावा होगा कि बिना विफलता की कोई चिंता किये मैंने अपनी अंतर्प्रेरणा के अनुरूप छलांग लगाने की हिम्मत दिखाई?  निश्चय ही इस का उत्तर हमें मिलता है एक जोरदार नहीं, कदापि नहीं, जो हमारे मन में जीवन में मिली  किसी भी प्रकार की विफलता के प्रति होने वाले पछतावे व अवसाद को न्यूनतम कर देता है।

इस प्रकार का 'Regret minimisation framework' हमारे जीवन में असफलताओं के प्रति भय-आधारित निर्णय लेने की प्रवृत्ति से हटकर अपनी पसंद व प्रतिभा के बेहतरीन संभव उपयोग के दृष्टिकोण उत्पन्न करने व तदनुरूप भयरहित साहसिक निर्णय लेने में सहायक होता है।

इस प्रकार हमें जीवन में आगे क्या करना है यह ध्यान में रखते हुये स्वयं से तीन सवाल करना है- क्या मैं अब तक स्वयं का जीवन जिया? क्या मैंने अब तक अपने पसंद व प्रतिभा को प्रेम व आदर दिया? क्या मैं आज तक अपना वजूद समझा? स्वयं को अस्सी वर्ष की अवस्था में रखकर, पीछे मुड़कर जीवन को देखना इन प्रश्नों के सही उत्तर जानने व समझने हेतु एक शक्तिशाली संदर्भ प्रदान करता है, व हमारे जीवन के वर्तमान में उपस्थित सारे भ्रम व भ्रांतियों को दूर कर देता है।

लेखक ने पुस्तक में एक और महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट किया है कि शुरुआत में ही मिल जाने वाली सफलता दुधारू तलवार की तरह होती है, यह आपको उपलब्धियों से पूर्ण एक विशिष्ट व्यक्ति तो अवश्य बना देती है,किंतु यह आपके कंधों  पर अपेक्षाओं का भारी बोझ भी लाद देती है व एक साँचे में बाँध सी देती है जिससे बाहर निकल कर कुछ अन्य उपलब्ध कर पाना बड़ा ही कठिन सिद्ध होता हैं।

मात्र लोगों की निगाह व पहचान में बने रहना और बात है, किंतु  हमारी किसी लक्ष्य या उपलब्धि की आकांक्षा के प्रति चाहे कितना ही बड़ी व चमकदार संकल्प व घोषणा हो, किंतु अततः हम वास्तव में क्या हैं अथवा क्या उपलब्ध कर पाते हैं इस हेतु समय, हमारा स्वयं का अनुभव, खासतौर पर हमारी गलतियों से सीखे सकारात्मक सबक, ही निर्णायक सिद्ध होते हैं।   

आखिर में अपनी बात मैं लेखक के इस कथन के साथ समाप्त करता हूँ-  People tend to overestimate what they can achieve in a year, but underestimate what they can achieve in a decade, and if we do start to think in longer timeframes, suddenly a lot more becomes possible. अर्थात् हम  छोटी अवधि यानि साल या महीने की अवधि में क्या उपलब्धि हासिल कर सकते हैं इसका प्रायः अधिक-आकलन करते हैं व लम्बी अवधि यानि एक दसक या पाँच दसक में क्या उपलब्धि हासिल कर सकते हैं इसका प्रायः कमतर-आकलन कर बैठते हैं,और यदि हम लम्बी समयसीमा में सोचना शुरू कर दें तो अकस्मात कितना कुछ उपलब्ध करना संभव दिखाई देने लगता है।

मेरी  इस बात से आप अवश्य सहमत होना चाहेंगे कि यह तथ्य सिर्फ एक व्यक्ति के स्तर पर ही लागू नहीं होता बल्कि समाज व देश के स्तर पर भी यही बात लागू होती है ।

Wednesday, June 27, 2012

क्रोध से कृतार्थभाव- एक अति दुरूह किंतु सार्थक यात्रा।

आज प्रात: जब सोकर उठा,मन में अकस्मात यह चिंतन जागृत हुआ कि आखिर हमें क्रोध,कभी छोटी बात पर या कभी बड़ी बात पर,आता क्यों है?


मन में निवास करने वाले विचारों की विभिन्न परतें,जो सामान्यरूप में तो परदे के पीछे छिपे सारथी के रूप में मन के रथ को संचालित करती रहती हैं तदनुरूप हमारा आचरण व्यवहार होता है,चिंतन द्वारा एक-एक कर परदे के बाहर आने दिखाई देने लगती हैं।क्रोध के जनक कारण एक एक परतों में खुलकर सामने आने लगे।



प्रथम कारण तो यही सामने आया कि जब कुछ मन की हसरतें उसकी अपेक्षा के प्रतिकूल होता है तब क्रोध आता है।फिर अगला प्रश्न उठा- क्या हैं वे मन की हसरतें  अपेक्षायें, जो कि तनिक भी प्रतिकूल परिस्थिति पाकर क्रोध उत्पन्न करती हैं ? पुन: विचारों की नयी परतें खुलने लगती हैं- मन की आकांक्षाएँ,अपेक्षाएँ हैं मन की असंतुष्टियाँ व अधूरेपन जिनको पूरा करने व कुछ पाने की लालसा व आकांछा,जो अपने पास पहले है अथवा सौभाग्यवश जीवन में उपलब्ध है, इसके लिये मन के अंदर संचित अहंभाव-कभी दूसरों से श्रेष्ठ-जन्म की श्रेष्ठता,कर्म की श्रेष्ठता,धन की श्रेष्ठता,धर्म की श्रेष्ठता, ज्ञान की श्रेष्ठता, शारीरिक श्रेष्ठता, होने का अहंभाव,कभी स्वामित्व अधिकार का अहंभाव, अनेकादि परतों में मन में संचित अहंभाव

दूसरा कारक है मन में संचित असुरक्षा का भाव- प्राप्य में बाधा की असुरक्षा,प्राप्त के खोने की असुरक्षा, इत्यादि अनेकानेक असुरक्षाभाव,और तीसरा कारक है मन में संचित ईर्ष्या का भाव ।इस तरह हमारे अंदर क्रोध के जनक   प्रधान कारक जो मन में संचित हैं- अहंभाव,असुरक्षाभाव ईर्ष्याभाव स्पष्ट दिखने लगते हैं।

क्रोधाग्नि
फिर अगला प्रश्न मन में घुमड़ने लगता है कि क्या क्रोध करने से इसके कारक संतुष्ट होते हैं और फलस्वरूप क्रोध का शमन हो पाता है।विचार की नयी परतें चौंकाने वाला रहस्य सामने लाती हैं कि नहीं कदापि नहीं, क्रोध करने से उसका कारक- यानि मन का अहंभाव या असुरक्षा भाव या ईर्ष्याभाव संतुष्ट और शमन होने के विपरीत और बढ़ते है,बढ़ते ही जाते हैं, ठीक उसी तरह जिसतरह कि अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और प्रज्वलित होती है।यानि मन में क्रोध का एक दुष्चक्र सक्रिय हो जाता है,और यही कारण है कि एक लघु क्रोध अंतत: एक अतिसय क्रोधाग्नि की ज्वाला में परिणित होकर प्रलयंकारी सिद्ध हो सकता है।

इस चिंतन से यह बात तो मन में स्पष्ट हो जाती है जिन कारणों की तुष्टि के लिये क्रोध किया, वे संतुष्ट व शमन होने के विपरीत और भड़क उठे,यानि क्रोध करने से कोई प्रयोजन सिद्ध होने के विपरीत बात और बिगड़ गयी।यह तो स्वयं के उपहास की स्थिति हो गयी कि जहाँ प्यास बुझाने के लिये कुआँ खोदा और खुद ही उस अंधकूप में गिरकर प्राण संकट में डाल दिये।क्रोध न सिर्फ निष्प्रयोजन है बल्कि स्वयं के लिये ही अनर्थकारी है।

कृतार्थभाव
चिंतन के इस गंभीर तल पर मन के सारे उहापोह समाप्त हो जाते हैं, परंतु मन में फिर भी एक सुखद तृष्णा जागृत होती है कि आखिर वह क्या है जिससे हमे सुख-शांति की तृप्ति प्राप्त हो सकती है,तो अचानक एक अंतर्संकेत प्राप्त होता है कि वह है क्रोध के विपरीत मन में स्थित कृतार्थ-भाव । जो प्राप्त है उसके प्रति अहंभाव रखने के बजाय यदि दाता के प्रति कृतार्थ-भाव उत्पन्न हो जाय, तो अद्भुत सुख व शांति प्रस्फुटित होती है।मन में इस प्रकार का कृतार्थ-भाव होने से सभी प्रकार के अहंभाव, असुरक्षा भाव व ईर्ष्या भाव  स्वाभाविक रूप से स्वतः दूर हो जाते हैं।

जब क्रोध के जनक सभी कारक ही नष्ट हो गये तो फिर मन में क्रोध के जन्म की संभावना ही कहाँ रह जाती है।इसप्रकार क्रोध भाव से कृतार्थभाव की विचार-यात्रा से मन को एक विलक्षण व अद्भुत शांति व स्फूर्ति मिलती अनुभव हुई।

तब तक मोबाइल की घंटी बजती है व मन का यह चिंतन-क्रम सायास भंग हो जाता है।एकाएक मन चौंक उठता है, यह जागृत अवस्था का चिंतन था अथवा स्वप्नावस्था का ।क्या क्रोध से कृतार्थभाव की यह यात्रा इतनी सहज है। क्या मनुष्य के जीवन-अवधि में मन के कोटर में संचित विचार व स्वभाव, जो क्रोध के कारकों का निरंतर पोषण करते आ रहे हैं, उनसे यूँ ही चुटकी में छुटकारा मिल जायेगा, व हम किसी मुक्त विहग की तरह सदैव के लिये मन के सुख-शांति के असीम गगन में स्वच्छंद विचरण करने की स्वंत्रता प्राप्त कर लेंगे।


इस तरह मन फिर से उसी पुराने उहा-पोह में फिर से उलझने लगा।मन के कोने में कुंडली मारे पुराने घाघ- अहं,असुरक्षा व ईर्ष्या के भाव आपस में कानाफूसी करते व सारे इस चिंतन क्रम का उपहास उड़ाते कटाक्ष करते प्रतीत हुये कि उतरो तो असली मैदान में, फिर हम बताते व नापते हैं तुम्हारे इस चिंतन क्रम की गहराई व सामर्थ्य को । बंधु ! यह क्रोध से कृतार्थभाव की चिंतन-यात्रा भले ही बड़ी सार्थक अनुभव प्रतीत हो रही है, किंतु इस पर अमल करना है अति दुरूह

इस प्रतिवाद विचार से मन की दुष्चिंता थोड़ी अवश्य बढ़ गयी, किंतु इस चिंतन क्रम से मन के अंदर ही अदर एक नया आत्मविश्वास , नयी शक्ति व नयी रोशनी भी जागृत होती प्रतीत हो रही है। मन कहता है-भले ही यह रास्ता दुरूह हो, किंतु इस शुभ यात्रा का प्रारंभ करने में हर्ज भी क्या है।