है कहाँ सामर्थ्य मेरी कर सकूँ जग विजय कोई,
मैं तो बस इककल्पना में विश्व को पगमापता हूँ ।
भाग्य में मेरे कहाँ हैं चमकते जगमग सितारे,
मैं तो बस टूटे हुए तारों से मन्नत माँगता हूँ ।१।
क्षितिज पट पर दृश्यअनुपम हैं बिखरतेरूपलेते,
प्रकृति का सौंदर्य प्रातःसुबह प्रतिदिन देखता हूँ
क्या है मेरी योग्यता रचना करूँ सुंदरकृति की,
मैं तो बस दीवार पर सीधी लकीरें खींचता हूँ।२।
मैं घिरा ,मजबूत यह दीवार दरवाजे बहुत हैं ,
मैं तो इनकी खिड़कियों से बंद परदे खोलता हूँ
छंद, कविता,गीत,नग्मे कहता न कोई शायरी हूँ
मैं दिलेजज्बात वाइस लफ्ज दो बस बोलता हूँ।३।
लोग मुझको जो छलें स्वीकार सब मुझको रहा,
मैं किसी को और कभी भी छलना नहीं जानता हूँ।
सूर्य तारे ज्योति की सामर्थ्य कब मुझमें रही है,
सौम्य दीपक बन जलूँ मैं मात्र जलना जानता हूँ ।४।
नहीं मेरी शग़ल कि छीनाझपट करता किसी से,
मैं तो बस विश्वास कर खुद को लुटाना जानता हूँ ।
है कहाँ संभव लकीरें हाथ की अपनी बदलता ,
मैं तो अपनी बंद मुंठी बस बंद रखना जानता हूँ।५।
मैं हूँ दुनियादारी में कमजोर और होशियारकम,
जीतते सब रहे मुझसे मैं तो अक्सर हारता हूँ ।
तैरने का है नहीं मुझको सलीका हुनर कोई ,
मैं तो बस बहती नदी को बैठा किनारे देखता हूँ।६।
बहुत ही प्रेरणादायी पंक्तियां हैं देवेंद्र जी । सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ.
ReplyDeleteनदी के किनारे ही ठीक थे , बीच भंवर में नदी का दुःख ज्यादा सताता !
ReplyDeleteजीवन जब जैसा मिला , भरपूर जिया !
कविता अच्छी लगी !
ओज़स्वी ... प्रेरणा देती हुई पंक्तियाँ ... लाजवाब ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteनई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
sundar ...sahaj saral chalna hi jeevan ka sundar roop hai ....
ReplyDeleteबहुत अच्छी, प्रेरणादायक कविता। बीच में कुछ शब्द संयुक्त हो गए हैं, उन्हें ठीक कर दें।
ReplyDeleteशब्दों का बहाव, गतिमय।
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