हमारे देश में लंबी दूरी की ट्रेन यात्रा लंबे समय की होती है इसलिए सहयात्रियों के साथ समागम भी लम्बी अवधि का होता है, कुछ खट्टा कुछ मीठा, कुछ रोचक कुछ अनपेक्षित। अभी यात्रा में ही हूं, केबिन में सामने की सीट पर एक परिवार है, पति पत्नी चार साल का बेटा और साथ में कोई साथी/परिवार का सदस्य जो बर्थ तो कहीं अन्यत्र है मगर अधिकांश समय इनके साथ ही है। कहने के लिए दो जाने हैं मगर साथ में लगेज सामान बारह जने से कम का नहीं, केबिन में बर्थ के नीचे और जो भी खाली जगह है सामान ही सामान ठंसा है,अपनी बर्थ से उतर वाशरूम के लिए जाना किसी बाधा दौड़ से कमतर टास्क नहीं है। मां बच्चे के लिए चॉकलेट का केक घर से लायी है और बाकी के लिए थोक भर पूड़ी सब्जी और अचार, सारा केबिन अचार के गंध से भरा है, सांस लेने में ऐसी घुटन गोया आप खुद किसी अचार के बड़े मर्तबान में बैठा दिए गए हैं। मां (मम्मा) का बच्चे से चलता संवाद टोका टोकी भी रोचक (या कहें वितृष्णापूर्ण) है, अंश लेग डोन्ट नीचे हिलाओ, अंश केक ईट लो, अंश वाटर ड्रिंक कर लो, अंश तुम्हारी फिंगर में डर्टी लगा है, सैनिटाइजर से हैंड क्लीन करो, अंश रोटी भी ईट कर लो , अंश अपनी आइज को फिंगर से टच मत करो मिर्च का बर्निंग लगेगा, अंश ऊपर जाकर डैडू के साथ स्लीप करो अभी मम्मा टॉयलेट के लिए गो कर रही है, इस तरह का एक अंतहीन डॉयलॉगबाजी, करन जौहर जैसे शख्सियत को यह मिल जायें तो निश्चय ही वह अपने किसी फिल्म में पू टाइप रोल में फिट कर लें।
यह परम सत्य है कि बच्चे की प्रथम एवं प्रमुख गुरु मां ही होती है, बच्चे में संस्कार, आचरण, भाषा आचार विचार की बुनियाद और इनकी मूल संरचना मां द्वारा ही डाली गढ़ी जाती है । परंतु आज यह जो मां का चोला उतार फेंकी मम्माएं है (अपने आधुनिक और शहरी होने और दिखावा करने की ललक में) बच्चों को संस्कार, भाषा आचरण और आदतों के नाम जो यह फूहड़ तहरी परोस खिला रही है उससे बच्चे के अंदर उत्तम और मौलिक संस्कार, भाषा और आचरण स्थापित होने की संभावना और उम्मीद कैसे की जा सकती है। खास तौर पर यूपी और बिहार की मम्माएं अक्सर इस हीनभावना से ग्रस्त दिखती हैं, उनको अपने बच्चे के मुंह से खुद को मां का संबोधन पिछड़ा और गंवारपन लगता है इसलिए बच्चे से खुद को मम्मा कहलाकर मुग्ध होती हैं, हाथ के लिए लेग, उंगलियों के लिए फिंगर, आंख के लिए आइज कहकर उन्हें लगता है कि वह खुद और उनका बच्चा अंग्रेजदां हो गया है। अन्यथा मैंने हमारे अन्यभाषायी परिवारों - मराठी, कन्नड़, उड़िया, गुजराती, बंगाली इत्यादि में बच्चों द्वारा अपने माता-पिता और संबंधों को अपनी भाषा के मौलिक संबोधन - आई, बप्पा, मां, बापू, अप्पा का ही संबोधन करते देखा है, वह कितने ही उच्च शिक्षित एवं संभ्रांत हैं उनकी अपनी भाषा में बोलचाल खानपान व्यवहार संस्कार उनके मौलिक रूप में होता है, बजाय कि उसमें फूहड़ तरीके से अंग्रेजी के शब्दों को बेवजह ठूंसने का।मैं अंग्रेजी बोलने का कोई विरोध नहीं कर रहा, मेरा तो सिर्फ यह अभिप्राय है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि अंग्रेजी में ही बोलना बात करना आधुनिक होना है तो वह अवश्य करे मगर तो शुद्ध और सही तरीके से अंग्रेजी बोले और बच्चों को सिखाये बजाय कि भाषा के नाम पर एक फूहड़ तहरी पकाने के। वैसे मैं मानता हूँ कि अपनी भाषा अपना संस्कार अपनी संस्कृति अपनी मां की तरह ही होते हैं, उनका स्थान कोई और नहीं ले सकता है, इसलिए अपनी भाषा अपने संस्कार और अपनी संस्कृति के प्रति सदैव हार्दिक प्रेम और आदर रखना चाहिए और बच्चे में यह भावना स्थापित करने की जिम्मेदारी उसकी मां के अलावा भला और कौन कर सकता है? रही बात अन्य भाषा अन्य संस्कृति अन्य तौर तरीकों के, जिन्हें सीखना जानना हमारी व्यावसायिक व्यावहारिक अथवा पारिस्थितिक आवश्यकता होती है, उन्हें भी सही तरीके से जानना समझना चाहिए (बजाय कि उनकी फूहड़ तहरी बनाकर उनकी भी ऐसी तैसी करने के) उनके प्रति भी वही आदर सम्मान रखना चाहिए जो हम दूसरे की मां के प्रति रखते हैं। हमारी सुंदरता हमारी मौलिकता में होती है, नकल और दिखावटीपना, चाहे कितना भी रंग-रोगन लगायें प्रायः फूहड़ और अभद्र ही होता दिखता है।
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