Saturday, January 7, 2012

रे मन क्यों तुम होये दु:खी…..


विगत कुछ दिन मानसिक स्तर पर उलझन भरे रहे और इस कारण कुछ दिनों से  स्थाई चित्त से बैठकर लिखना भी न हो सका , अपने ब्लॉग पर नियमित लेखन तो व्यवधित रहा ही, साथ-साथ अपने प्रिय मित्र प्रवीण पाण्डेय जी के ब्लाग न दैन्यं न पलायनम् सहित अपने अन्य प्रिय ब्ल़ॉग न तो पढ़ पाया न ही उनपर कोई टिप्पड़ी ही लिख पाया, जिसका मन में बड़ा मलाल हो रहा है ।

वैसे तो ईश्वर की कृपा से तो सामान्यतः सब कुशल ही चल रहा है, किंतु ये उलझनें छोटे-मोटे घरेलू , कार्यालय सम्बंधित, स्वयं की व अपने पिताजी के स्वास्थ्य संबंधित मसले जैसे कई सीमाओं पर रहीं और मानसिक स्तर पर कमोवेश अस्त-व्यस्तता सी बनी रही।

हालाँकि उम्र व कार्य-अनुभव के इस पड़ाव पर आकर सोचसमझ में इतनी स्थिरता व संतुलन क्षमता आ जाती है कि आप जीवन के हर मसले-चाहे घरेलू हों अथवा आपके काम-व्यवसाय से संबंधित, में सहज रहना कमोवेश सीख ही लेते हैं और इनको लेकर मन में कोई उलझन तो नहीं पालते, कितु जब कुछ ऐसे मसले खड़े हो उठते हों जो आपकी निष्ठा, विश्वसनीयता से संबंधित हों और वह भी ये प्रश्न उनके ही द्वारा उठाये जा रहें हों जिनके प्रति आप अंधभक्ति से समर्पित हैं(स्वाभाविक रूप से इसमें आपकी पत्नी व आपके बॉस दोनों मुख्यरूप से शामिल होते हैं),तो यह वैचारिक संतुलन बिगड़ जाता है,आप अधीर और दुखी हो जाते हैं,आप आहत व पराजित सा अनुभव करने लगते हैं।

ऐसे में स्वयं के ही प्रति मन में अनकों प्रश्न बादल बनकर छाने लगते हैं - क्या चुपचाप समर्पित होकर बिना स्वयं का यशोगान किये अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते रहने का तात्पर्य है कि आप गौण व योगदान रहित हैं? क्या आत्मश्लाघा रहित हो चुपचाप अपना कर्तव्य निभाना आपकी कमजोरी है? क्या काम के दौरान आने वाली परेशानियों व चुनौतियों को अपने ही स्तर पर सुलझा लेना,व उनका कोई ढिंढोरा न पीटना,आपकी अकुशलता व परिस्थितियों से समझौतावादी दृष्टिकोण हैं? क्या अपनी दैनिक घरेलू या व्यावसायिक परेशानियों को किसी से कहते नहीं फिरते और उनका किसी से गाना न गाने का अर्थ है आप बस मौज-मस्ती कर रहे हैं?

अब क्या करें,कुछ चीजें आपकी आदत होती हैं और फिर आपमें संस्कार बनकर स्थापित हो जाती हैं,और आप उन्हें चाहकर भी नहीं बदल पाते।और ऐसी स्थिति में आप स्वयं के ऊपर मुस्करा  ही सकते हैं और स्वयं को यही आश्वासन दे सकते हैं कि हम तो बस ऐसे ही हैं।

स्कूल और फिर कॉलेज के दिनों से ही यह रहा कि चाहे स्कूल में टॉप कियें हों अथवा किसी विषय में सामान्य मार्क्स आये हों पर अपने मित्रों में या घर में सारी बात बस इसी पर समाप्त हो जाती की हाँ बस पास हो गये,इससे ज्यादा कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और न तो कभी आवश्यक समझी गयी।

स्कूल के पश्चात् किस युनिवरसीटी या कॉलेज में दाखिला लेना है या किस कोर्स का चयन करना है, अपने रहने की या खाने-पीने की व्यवस्था करनी है,सब स्वयं के जिम्मे व निर्णय पर रहा , माता-पिता द्वारा आर्थिक जिम्मेदारी निभाने के अलावा न तो कभी कोई हस्तक्षेप रहा और न तो उनको कहीं भी पीछे पीछे आने,देखने या लगे रहने की आवश्यकता हुई। बस जीवन में जो सही-गलत समझ आया,स्वयं ही निर्णय लिया व उसे करते रहे,सफलता मिली या असफलता सब चुपचाप सिर-माथे, सबकी जिम्मेदारी स्वयं के उपर ही लेना पसंद रहा, इन मामलात में न तो कभी किसी ने कोई सवाल ही किया और न कभी किसी को कोई जबाब देने की आवश्यकता हुई।तो पढ़ाई के दिनों से  यही स्वतंत्रमना व आत्मश्लाघा व औपचारिकता रहित स्वभाव जो बन गया , वही पारिवारिक गृहस्थ जीवन व नौकरी कार्यपेशे में भी कायम रहा है।

किंतु इस स्वभाव के कारण जीवनयात्रा में कई बार कुछ उलझनों व व्यतिक्रमों का भी अनुभव व साबका करना पडा  है । विचार करने पर कारण समझ में आता  है कि  व्यवहारिक जीवन व कार्य जगत की अपनी आवश्यक औपचारिकतायें होती हैं,आप वास्तव में क्या कहते हैं या करते हैं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आपका कहना व करना दूसरों को जैसे आपकी पत्नी,सहकर्मी,बॉस,मातहत इत्यादि , यानि वे सभी जिनके साथ आपको जीवनव्यवहार में संतुलन बनाकर रखना है और जिनके आपके प्रति दृष्टिकोण से आपके जीवन को सुख-दुःख व सुगमता व सुचारुता निर्धारित होती है, को आपका कहना या करना क्या प्रतीत होता है, उसका उनके लिये क्या अर्थ है और वह उन्हे कैसे प्रभावित करता है?

यही कारण है कि आपके कहने व करने की जो भी वास्तविक मन्शा हो, किंतु दुनियादारी में ज्यादा महत्वपूर्ण है आपके व्यवहार की वाह्य औपचारिकता  का वह आवरण जिनके माध्यम से ही आप  अपने परिवेश में आपसी संवाद व कार्यव्यवहार स्थापित कर रहे होते हैं।

तो दुनियादारी के हिसाब से आवश्यक उचित औपचारिकता के अभाव में कई बार आपके बहुत अच्छे मंशा वाली भी कही बातें अथवा किये गये कार्य दूसरे व्यक्ति को नागवार,त्रुटिपूर्ण अथवा अनुचित या विपरीत मंशामय प्रतीत हो सकता है, और इस  कारण आपसी संबंधों में कई बार संदेह व भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

हाँलाकि जब कोई आपके मूलभूत मूल्यों व सिद्धांतो,जो आपके व्यक्तित्व व चरित्र से जुड़े होते हैं,पर संदेह,शंका या आक्षेप करता है,तो निश्चय ही आप आहत व मानसिक रूप से व्यथित व व्यग्र हो उठते हैं, किंतु शांतचित्त से सोचने पर  ऐसी परिस्थिति में उचित समाधान यही नजर आता है कि स्वयं के आत्मविश्वास को बनाये रखें व दूसरों को भी आपको समझने का वक्त दें, क्योंकि यह देखा गया है कि समय व हालात एक न एक दिन शंका व संदेह के बादल को दूरकर सच्चाई व न्याय के उजाले को अवश्य सबके सामने ला ही देता है।

नये वर्ष की यही मंगलकामना व विश्वास, स्वयं के प्रति व उन सभी के प्रति जिनकी मेरे प्रति धारणा व विश्वास के दृष्टिकोण से मेरे दैनंदिन जीवन का संतुलन व सुख-शांति जुड़ा है, करता हूँ ।

5 comments:

  1. जब आप अपने निर्णय लेना स्वयं प्रारम्भ कर देते हैं, तो बहुत मौन घिर आता है संवादों में। सब कर्तव्य मानकर निभाना होता है, समय को सारे संवाद करने दें, आपके लिये।

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  2. दहला देने वाला तटस्‍थ आत्‍म-चिंतन.

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  3. जब हम अपने लिये नहीं सबके लिए सोचते हैं --
    "आप वास्तव में क्या कहते हैं या करते हैं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आपका कहना व करना दूसरों को ..कैसे प्रभावित करता है?"
    दूसरे कोई दूसरे नहीं होते जब सब अपने होते हैं यानि जब हम सबको अपना समझते हैं ..तभी मन को कहते है ---रे मन ...
    मानसिक स्तर पर उलझन भरे कितने ही दिन बड़ी आसानी से गुजर जाते हैं ...आपको भी नये वर्ष की शुभकामनाएं और यही कामना कि ऐसी मानसिक उलझन में न फ़ँसे....चित्त स्थाई बना रहे ....

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  4. यह सत्‍य है कि जन्‍मना स्‍वभाव परिवर्तित नहीं होता है। आप विचार कितना भी कर लें लेकिन हम स्‍वभाव से बंधे होते हैं। लेकिन फिर भी अधिक से अधिक संवाद मौन की अपेक्षा उचित होता है। लेकिन कभी-कभी मौन भी सार्थक होता है। ऐसी परिस्थिति शायद सभी के जीवन में आती है। कोई ना बोलने से दुखी है तो कोई ज्‍यादा बोलने से। यही जीवन है।

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