Friday, October 26, 2012

मन विहग क्यों हो विकल !



मन अशांत रहता है,चिंता करता है,विषाद करता है,क्रोध करता है, ईर्ष्या करता है,पश्चाताप् करता है,घृणा करता है,इसकी उद्ग्वीनता व विकलता के न जाने कितने आयाम हैं!

भौतिक व रसायन विज्ञान के कोर्स में पढ़ा था कि चाहे परमाणु हो अथवा कि कोई पिंड, उनकी शांत व संतुलित अवस्था उसकी अंतर्निहित ऊर्जा की पूर्णता की अवस्था में ही होती है,जब तक वह पूर्णता की अवस्था प्राप्त कर नहीं लेता,उसकी अस्थिरता व व्यग्रता बनी रहती है, व वह अनेक क्रियाओं,प्रतिक्रियाओं,गति,टकराव,खंडन,विखंडन, संघर्षण,आवेषण,संग्रह,विग्रह जैसी अनेकों भौतिक व रासायनिक क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं से गुजरता रहता है।जैसे ही वह अपनी अंतर्निहित ऊर्जा की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर लेता है,उसका सारा आवेग समाप्त हो जाता है,और शांत,संतुलित,स्थिर होकर स्थाइत्व की चिर-अवस्था में स्थापित हो जाता है।

इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि चाहे एक सूक्ष्म परमाणु हो अथवा छोटा-बड़ा पिंड या पदार्थ,उसकी अंतर्निहित अपूर्णता ही उसके द्वारा किसी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया अथवा किसी आवेग-संवेग के व्यवहार का कारण होती है।

विचार करता हूँ तो अनुभव होता है कि यहीं पूर्णता का सिद्धांत हमारे मन के साथ भी लागू होता है।मन हमारा अपूर्ण व अतृप्त है,इसीलिये इतना क्षुब्ध,अशांत व अस्थिर है,हर छोटी बड़ी बात पर आंदोलित व उद्वेगित होता रहता है,क्रिया-प्रतिक्रियाओं के मकड़जाल में उलझा सा रहता है।

इतना ही नहीं,मन विचारों का जनक व प्रधान नियंत्रक होने के कारण, यह हमारे अंदर अनेकों नकारात्मक, अशुभ,अहितकरविचारों को जन्म देता है, जो न सिर्फ स्वयं का बल्कि अपने प्रभाव व व्यवहार क्षेत्र में आने वाले हर व्यक्ति के विचारों व कार्य-व्यवहार को प्रभावित करते हैं।यह तथ्य तो हमारे निजी अनुभव से ही सिद्ध हो जाता है कि एक अशांत व्यक्ति के संगत में हम स्वयं कितने अशांत हो जाते हैं,जबकि एक शांत व स्थिरचित्त व्यक्ति के संसर्ग व सत्संग में हमें कितनी शांति,स्थाइत्व व  आनंद का अनुभव होता है।

अब एक मौलिक प्रश्न उठता है कि आखिर हमारा मन इतना अपूर्ण,व नतीजतन अशांत, क्यों है, व इसकी पूर्णता व स्थाई शांति की प्राप्ति का उपाय क्या है? चूँकि यह प्रश्न मनोविज्ञान व आध्यात्म क्षेत्र से मुख्य सरोकार रखता है,और मेरा इस क्षेत्र में कोई औपचारिक ज्ञान नहीं है,अतः इस प्रश्न के उत्तर देने की मुझमें सहज योग्यता नहीं हैं,शायद पाठक स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर मुझसे बेहतर समझते हों।

किंतु व्यक्तिगत अनुभव व स्वाध्याय के माध्यम से जो थोड़ा बहुत इस विषय में समझ पाया हूँ उसके आधार पर तो मेरा तो यही विचार है कि हमारे मन की अपूर्णता का कारण है हमारा स्वयं के प्रति ही अपूर्णता का दृष्टिकोण।हमारा स्वयं के प्रति अहंभाव,एकांगीभाव, कि समष्टि से अलग  हमारा निजी अस्तित्व है, का दृष्टिकोण हमें पूर्ण से अलग व इसप्रकार हमें अपूर्ण व अस्थिर बना देता है।

सत्य तो यह है कि हम स्वयं ही समष्टि हैं और इस सत्य की पुष्टि ईशावाष्य उपनिषद् के निम्न शांति मंत्र से होती है-

ऊँ पूर्णमद:पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

अर्थात् वह ( आत्मा अथवा परमात्मा) पूर्ण(अनंत) है,और यह (जगत्) भी पूर्ण है, और यह पूर्ण उसी पूर्ण से व्युत्पत्त है। इसलिये इस पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण मात्र ही बचता है।

इस सत्य के विपरीत जब हम विभेद में जीते है,अपने-पराये की अतिरेक भावना व आग्रह में रहते हैं,तो हमारी अंतर्निहित ऊर्जा अपूर्ण हो जाती है, व इस प्रकार इस अपूर्णता की स्थिति में हमारा मन व चित्तवृत्तियाँ अनेक प्रकार के आवेश,उद्वेग,चिंता-विकलता के आरोह-अवरोह में गिरते-उठते रहते हैं।

यह सिद्धांत के स्तर पर सोचना व तर्क करना तो सहज है किंतु वास्तविक आचरण के स्तर पर अनुपालन उतना सहज नहीं, बल्कि अति कठिन ही है।किंतु इतना तो स्पष्ट होता है कि हमारी सुख-शांति,शारीरिक अथवा मानसिक,मन की शांति व स्थिरता पर ही निर्भर है,और जैसा ऊपर चर्चा हुई,मन की शांति व स्थिरता उसकी पूर्णता की अवस्था में स्थापित होती है।

अतः अपने स्वयं के सुख-शांति की खातिर हमें स्वयं के प्रति अहंभाव,एकांगीभाव का त्याग करके समष्टि में ही, सबके अस्तित्व में ही अपना स्वयं का भी अस्तित्व होने के दृष्टिकोण के साथ जीना सीखना होगा, वरना तो यह मन विकल पक्षी बन भटकता रहेगा व नतीजतन हमारी सुख-शांति भी हमसे दूर ही रह जायेगी।  

5 comments:

  1. सुन्दर बात सुन्दर व्याख्या.....

    आभार
    अनु

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  2. मन की शांति नहीं तो सब कुछ व्यर्थ है ... सुन्दर आलेख. आभार

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  3. पता नहीं पूर्णता की ओर पहुँचने की तड़प में रहता है या हमें वर्तमान से अस्थिर करने की फिराक में।

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  4. वाह विज्ञान के सिधान्तों पर जीवन को परखने की अदभुत कोशिष. सही हर अपूर्णता पूर्णता को तलाशती है जब तक मिल ना जाये.

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