Saturday, December 1, 2012

अन्नदेवं,सृष्टि-देवं,पूजयेत संरक्षयेत ।

अन्न में है प्रभु का निवास


अभी हाल ही में मैंने प्रबंधन व उद्यमशीलता के दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण पुस्तक मेड इन जापान पढ़ी व इस पुस्तक  में दिये गये प्रबंधन व उद्यमशीलता के दृष्टिकोण से  कुछ महत्वपूर्ण विचार अपने ब्लॉग पर साझा भी किया था।

किंतु इस पुस्तक में प्रबंधन व उद्यमशीलता के गूढ़ रहस्यों के अतिरिक्त जापान के सामान्य जीवन व सामाजिक दर्शन पर भी इसके लेखक आकियो मोरीटा ने काफी गहराई व प्रभावी रूप से प्रकाश डाला है। मोरीटा ने अपनी पुस्तक में  बताया है कि जापानी जीवनमूल्य में सबसे प्रधान सिद्धांत है- मोत्ताइनाई(Mottainai)से बचना.यह शब्द जापानी जीवन दर्शन,जापानी लोग,जापानी उद्यम उसकी प्रणाली को सटीक अभिव्यक्त करता है।

लेखक के अनुसार , मोत्ताइनाई(Mottainai) से अभिप्राय है कि संसार में प्रत्येक वस्तु,सृष्टि प्रदत्त प्रत्येक संसाधन, इसके रचनाकार यानि ईश्वर का वरदान है,जिसके हेतु हमें उस सृष्टिकर्ता का सदैव अनुगृही होना चाहिये किसी भी वस्तु के अपव्यय से सदैव बचना चाहिये।

मोत्ताइनाई(Mottainai) का जापानी में शाब्दिक अर्थ है अनादर अथवा अधर्म या देवत्व के विरुद्ध कार्य करना ।जापानी विचार में सृष्टि द्वारा सभी पदार्थ हमें एक पवित्र न्यास के रूप में उपलब्ध हैं,इनमें से किसी भी वस्तु पर हमारा कोई मालिकाना हक नहीं,बल्कि यह मात्र एक ऋण के रूप में हमें उपलब्ध कराये गये हैं,अत: यह हमारा यह नैतिक कर्तव्य है कि इनके बिना किसी अपव्यय किये हम इनका य़था-आवश्यक ही व यथासंभव रूप में सदुपयोग ही करें।

जापानी जीवन दर्शन में अपव्वय को पाप समझते हैं।जापानी जीवनदर्शन में मोत्ताइनाई(Mottainai) का अभिप्राय सिर्फ महत्वपूर्ण दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों वस्तुओं के अपव्वय क्षति के संदर्भ में है बल्कि इसके अति साधार व साधारणतया उपलब्ध संसाधनों वस्तुओं , यहाँ तक कि अति साधारण चीजों जैसे पानी,कागज इत्यादि के अपव्वय के संदर्भ में भी उतना ही मायने रखता हैं।इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण संरक्षा मात्र से भी अति परे यह उनके अस्तित्व उपलब्धि के प्रति आदर कृतज्ञता का भाव धार्मिक आस्था के स्तर पर है।

हालाँकि तर्क के स्तर पर कह सकते हैं कि संसाधनों के संरक्षण उनके सदुपयोग के प्रति जागृति चेतना यूरोपीय कई अन्य एशियाई देशों में भी वर्तमान हैं,किंतु जापान के संदर्भ में यह अति विशेष धार्मिक आस्था के स्तर पर है।निरंतर प्राकृतिक आपदाओं विपदाओं-भूकम्प,सुनामी,ज्वालामुखीप्रकोप इत्यादि के बीच जीवन को निरंतर कायम रखना न्यूनतम उपलब्ध संसाधनों से निरंतर नवनिर्माण करते रहना उनके जीवन का हिस्सा है अत: स्वाभाविक है कि उनके जीवनदर्शन में प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं संसाधनों किसी भी प्रकार का अपव्यय अथवा दुरुपयोग उनके दृष्टिकोण में किसी घोर पाप अपराध से कम नही,उनके लिये अपव्यय शर्मनाक आत्मग्लानि के तुल्य होता है।

पुस्तक में इस गहन जापानी जीवन-दर्शन को पढ़कर मन बड़ा प्रभावित हुआ और अपने निजी जीवन व संस्कार में भी इसी प्रकार के जीवन दर्शन से साक्षात्कार होने व जीने के अनुभव की स्मृतियाँ जागृत हो गयीं। मुझे अपने स्वयं के जीवन में भी कुछ इसी प्रकार किसी भी वस्तु , विशेषकर हमारे खाद्यान्न, के किसी अपव्यय दुरुपयोग के विरुद्ध मेरे माता-पिता के जीवनदृष्टिकोण व उनसे प्राप्त सुदृढ़ संस्कार की यादें जीवंत हो उठीं,जो आज भी मेरे आचरण व चरित्र में य़थावत स्थापित हैं।

मेरा बचपन अपने माता-पिता के संरक्षण में अपने गाँव में बीता।मेरे पिताजी एक कृषक हैं, मैंने जब से होश सँभाला उन्हें सदैव अपने खेत-खलिहान में पूरीत्परता से कार्य करते देखता आया हूँ।बचपन से ही मैं देखता आया कि वे खलिहान (खलिहान घर के हाते में एक साफ-सुथरा समतल मैदान होता है जहाँ खेत से कटी फसल की ढेर  को इकट्ठा करके उसकी मड़ाई कर अनाज को अलग करते हैं।) में वे अन्न के एक-एक दाने को बड़ी सावधानी से किसी कूचे या छोटी ब्रसवाली झाड़ू से सहेजते हैं। इसी प्रकार खेत में भी पके फसल की मजदूरों द्वारा कटाई ढेर बनाते समय जो भी पकी अनाज की बालियाँ खेत में गिर जातीं, वे उन्हें सावघानी से सहेज कर ढेर में वापस रख देते।

यह बात मेरे बालमन को अजीब लगती कि आखिर जहाँ हजारों मन अनाज का ढेर लगा है,फिर पिताजी क्यों यह खेत खलिहान में दो-चार बिखरे अन्न के दानों के पीछे इतना परिश्रम करते हैं।मैं अपने बालपन के स्वाभाविक जिज्ञासु स्वभाववश उनसे एक दिन यही बात पूछ भी बैठा तो उनका उत्तर था कि बेटा अन्न का एक दाना भी उतना ही महत्वपूर्ण आदरणीय है जितना यह हजारों मन का अनाज का ढेर क्योकि अन्न के हर दाने में इश्वर का निवास होत है,यह अन्नदेव है,अन्न के एक दाने की क्षति से भी महापाप होता है अत: हमें इस अन्न के हर एक दाने का बराबर आदर संरक्षण करना चाहिये।

इसी प्रकार मैं अपनी माँ का भी अन्न के प्रति अपार श्रद्धा व आदर का भाव देखता आया हूँ।हमारे घर में उपलब्ध अनाज के विशाल भंडार के बावजूद वे इन्हें घर में बड़ी आत्मीयता से सहेजती हैं व ध्यान रखती हैं कि अन्न का एक दाना भी नुकसान न होने पाये।घर में उपयोग होने वाले दैनिक राशन की सफाई-छँटाई वे बड़ी कुशलता व आत्मीयता के साथ करती हैं व अन्न का एक भी दाना नुकसान नहीं होता।भोजन तैयार करने के पूर्व वे भोजन हेतु उपयोग लाये जाने वाले राशन का एक अंश अलग कर घर के देवघर में भगवान को अर्पित करती हैं जो बाद में किसी ब्राह्मण अथवा भिक्षुक को दान कर देती हैं।उनका मानना है कि आज जो भी अन्न हमें प्राप्त है वह भगवान की कृपा से ही प्राप्त है अतः हमें इसको उपयोग में लाने के पूर्व इसको भगवानके चरणों में अर्पित कर इसका एक अंश भगवान के निमित्त अवश्य दान करना चाहिये।

इसी प्रकार भोजन के पूर्व वे हमेशा हमें भोजन की थाली को प्रणाम कर ईश्वर का ध्यान कर त्वदीयं वस्तु गोविंदं तुभ्यमेव समर्पितं के मंत्र से उन्हे समर्पित करके ही भोजन ग्रहण करने की सीख देतीं।उनकी यह सीख मेरे लिये आजीवन संस्कार बन गयी व इसका आज भी मैं पूरी श्रद्दा से पालन करता हूँ।

इसी प्रकार हमें भोजन करते समय लापरवाही अथवा जल्दबाजी में भोजन का कुछ अंश थाली से बाहर गिरने व इसके नुकसान पर वे नाराज होते हुये नसीहत देतीं कि भोजन के अन्न में भगवान का निवास होता है व इसके अनादर व नुकसान से पाप का भागी होना पड़ता है व भगवान नाराज होते हैं। बचे व उपयोग में न आ पाये भोजन को वे सहेजकर हमारे घर की गाय के भोजनपात्र में डाल देतीं ।

इस तरह अन्न के  प्रत्येक दाने को पूरी श्रद्धा से सहेजना,उसे संरक्षित रखना मेरे लिये भी सदैव मेरे आत्मसात संस्कार व चरित्र का अभिन्न हिस्सा बन गया । अन्न व भोजन के प्रति अति आदर व श्रद्धा का भाव मैं सदैव स्वयं के अंदर अनुभव करता है।

इस प्रकार जापानी जीवन दर्शन के समानांतर हमारी जीवन संस्कृति में भी प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं, विशेषकर हमारे खाद्यान्न व अन्य खाद्यपदार्थ, के प्रति आदर व श्रद्दा का भाव रखने, उनमें भगवान का निवास होने, व उनके किसी भी प्रकार का अपव्यय व अनादर से बचने जैसे सदाचारों का प्रमुख स्थान रहा है।हमारे जीवन के सभी श्रेष्ठ यज्ञ व उत्सव में भी हमारे अन्न विशेष भूमिका निभाते रहे हैं व इनका दान व यज्ञार्पण भगवान की श्रेष्ठतम् आराधना माना जाता है।

इसी प्रकार प्रकृति प्रद्त्त हमारे जीवन-आधार विभिन्न संसाधनों, नदियों,तालाबों,वृक्षों, पहाड़ों इत्यादि का भी पूर्ण आदर,संरक्षण व उनमें भगवान के निवासस्थान मानते हुये उनमें पूरी श्रद्धा रखते हमारी कृतज्ञता स्वरूप उनकी आराधना करने का विधान रहा है।

किंतु दुर्भाग्य से विभिन्न कर्मकांडों,अनुष्ठानों की प्रधानता व निहित स्वार्थों के कुप्रभाव में हमारे संस्कृति में धीरे-धीरे विकारों व कुरीतियों का समावेश होता गया है।जहाँ एक ओर खाद्यान्न के बाजारीकरण के प्रभाव व इसके संरक्षण व समुचित संग्रह की व्यवस्था के अभाव में प्रतिवर्ष लाखों टन खाद्यान्न सड़कर निरर्थक नष्ट होते है, वहीं हम धर्म, त्योहारों व अनुष्ठानों के नाम पर अपने जलश्रोतों,नदियों,तालाबों को बुरी तरह से गंदा,अपवित्र व दूषित करते हैं जिससे कि न सिर्फ वे अनुपयोगी हो जाने के स्तर तक अपवित्र हो गये हैं, अपितु उनके अस्तित्व पर ही घोर संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।

काश हम जापानी जीवनदर्शन से प्रेरणा लेकर, अपने जीवन दर्शन व संस्कृति की अंतर्निहित अच्छाइयों व सदाचारों को पुनर्जागृत एवं पुनर्स्थापित कर अपने प्राकृतिक संसाधनों व सृष्टि के अनमोल उपहारों को यथोचित आदर व सम्मान देते हुये उनके संरक्षण करने व उन्हे जीवित रखने में सहयोग करते व इसमें सफल हो पाते। 

2 comments:

  1. सच है, प्रकृति के द्वारा प्रदत्त हर वस्तु उपहार स्वरूप लेना चाहिये, अधिकार स्वरूप नहीं..

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  2. ann ka aadar aur sampoorn upayogita ke dwara hi hazaron bhookhe pet bhare ja sakte hai..sundar aalekh.

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