शाश्वत
नियम जगत का ऐसा,
बनना
और बिगड़ते रहना।
जो
सोना था अब वह मिट्टी,
कुछ
खोया और कुछ पाया मैं।1।
कहीं
जमीं और कहीं फलक थी,
कभी
धूप और कभी छाँव थी।
जीवन
के दुख सुख सहते रह,
कुछ
रोया कुछ हँस पाया मैं।2।
कभी
नज्म और कभी छंद में
मुक्तगीत
कुछ लय-स्वर-बद्धित।
उर
के दर्द गीत बन ढलते,
मौन
रहा कुछ कह पाया मैं।3।
चंचल
नदी बहे जीवन भर,
पर
समाधि सागर दे देता ।
स्थिर
ध्येय गतिमय राहें,
कुछ
स्थिर कुछ बह पाया मैं।4।
फैले
रिश्तों की चादर पर,
कुछ
सिलवटें उभर आती हैं।
जीवन
सूत वक्त की किरची,
कुछ उलझा कुछ सुलझाया मैं ।5।
देता समय निरंतर उत्तर,
मगर शेष हैं प्रश्न अनेकों ।
जीवन रोज पहेली पूछे ,
प्रात:
उदित निरंतर यात्रा ,
अस्तकाल
विश्राम समाहित।
जीवन
दीप निरंतर जलता,
कुछ
जागा कुछ सो पाया मैं।7।
कालजयी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteप्रिय प्रवीण जी हार्दिक आभार। आपके सुझाव के अनुरूप निम्न पंक्तियों में संशोधन कर अति संतोष का अनुभव हो रहा है। पुनः आभार।
Deleteकुछ उलझा कुछ सुलझाया मैं ।5।
कुछ बूझा कुछ बिसराया मैं।6।
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteफैले रिश्तों की चादर पर,
कुछ सिलवटें उभर आती हैं।
जीवन सूत वक्त की किरची,
कुछ उलझा कुछ सुलझ रहा मैं...
खूबसूरत पंक्तियाँ...
सादर
अनु
धन्यवाद अनु।
Deleteइस सार्थक प्रस्तुति उम्दा सृजन के लिए ,,,, बधाई।,,,देवेंद्र जी,,
ReplyDeleterecent post हमको रखवालो ने लूटा
धीरेंद्र जी, हार्दिक आभार।
Deleteदेता समय निरंतर उत्तर,
ReplyDeleteमगर शेष हैं प्रश्न अनेकों ।
जीवन रोज पहेली पूछे ,
कुछ बूझा कुछ बिसराया मैं।
बहुत सुन्दर भाव, जीवन इन्ही प्रश्न - उत्तरों का खेल है...
आपका हार्दिक आभार।
Deleteबहुत बढिया।
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार।
Deleteशाश्वत नियम जगत का ऐसा,
ReplyDeleteबनना और बिगड़ते रहना।
जो सोना था अब वह मिट्टी,
कुछ खोया और कुछ पाया मैं.
सच से विमुख होने से उसको समझ कर मुकाबला करना है.