जो निर्भय वह ही विजयी है। |
हमारे चहेते शतरंज मास्टर विश्वनाथन आनंद अब विश्व चैंपियन नहीं रहे, कल ही समाप्त हुई शतरंज विश्व चैंपियनसिप प्रतियोगिता में वे तेजतर्रार युवा और वर्तमान में विश्व शतरंज के नंबर एक खिलाड़ी नार्वे निवासी मैग्नस कार्ल्सन से 6.5-3.5 से पराजित हो गये ।
प्रूतियोगिता के शुरुआत के छः गेम लगातार ड्रा होने से ही उनकी पराजय का कयास और यह सुगबुगाहट शुरू हो गई थी कि विश्वनाथन आनंद एक तेजतर्रार चैंपियन की भाँति नहीं बल्कि अपने स्वभाव के विपरीत बहुत सुरक्षात्मक और दबेदबे से खेल रहे हैं ।प्रतियोगिता के दूसरे और पाँचवें गेम में जब वे मजबूत स्थिति में थे और उन्हें जरूर जीतना और अपने प्रतियोगी के ऊपर बढत और मानसिक दबाव बनाना चाहिए था, वहीं उल्टे ज्यादा सुरक्षात्मक खेलने व अपनी हार से भयभीत से कतई कोई रिस्क न लेने के कारण गेम को ड्रॉ पर छोड़ दिया ।
यहीं से मैग्नस कार्ल्सन जैसे जोखिम से क़तई न डरने वाले युवा प्रतियोगी ने आनंद जैसे अनुभवी खिलाड़ी के मन में पैठी हार के प्रति भय और उनकी जोखिम उठाने की क्षिण होती हिम्मत को अच्छी तरह भॉप लिया, और नतीजतन उसने अगले गेमों में आनंद पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाते, उन्हें खेल में उल्टी सीधी चालों के जाल में फँसाकर गलतियां करने को मजबूर करते बड़े ही आसानी पराजित कर दिया और आठवें गेम के समाप्त होते होते आनंद पर दो अंकों की निर्णायक बढ़त बना ली, और फिर अगले दोनों गेम से यह प्रतियोगिता आसानी से जीत ली ।
खेल में प्रायः यह देखा गया है कि जो हारने से भयभीत होता है, और इसलिए अपने खेल में किसी प्रकार का जोखिम उठाने से घबराता है, और यदि टक्कर बराबरी का है, तो ऐसे खिलाड़ी के हाथ से आती हुई जीत भी फिसल जाती है।या कहें कि यदि मुकाबला बराबरी का है तो निर्णायक जीत अक्सर जोखिम उठाने की हिम्मत रखने वाले के साथ ही होती है ।इस प्रतियोगिता में भी यही देखने को मिला ।दोनों खिलाड़ी खेल कौशल में बराबरी के ही थे, एक के पास खेल का गहरा अनुभव और चाल चलने की विविधता थी तो दूसरे के पास नयी नयी चकमा देने वाली चालों और अप्रत्याशित आक्रामकता का गुर है ।सो अंत में वही जीता जिसने ज्यादा जोखिम उठाने की हिम्मत दिखाई ।
शतरंज खेल के पुराने मशहूर खिलाड़ी गैरी कास्प्रोव, जो स्वयं भी आक्रामक खेलने और खेल में जोखिम उठाने वाले खिलाड़ी के रूप में जाने जाते रहे हैं और वे मैग्नस कार्ल्सन को अपना शिष्य मानते हैं, इस ऐतिहसिक प्रतियोगिता में दर्शक के रूप में चेन्नई में मौजूद थे।उन्होंने आनंद के खेल और खेलने की तकनीकी पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है ।उनका कहना है कि आनंद का स्वभाव और खेलने की तकनीकी नियंत्रित आक्रामकता की है, जिसमें खिलाड़ी अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए, सोचसमझ कर व नपा तुला जोखिम तो उठाता है,परंतु वह रुलबुक की मर्यादा व निर्धारित सिद्धांत से बाहर जाकर कोई जोखिम उठाने की कोशिश नहीं करता ।और खिलाड़ी की बढ़ती उम्र के साथ ऐसे खिलाड़ी की आक्रामकता का पक्ष दबता जाता है और उसके खेलने की शैली में नियंत्रण और अनुशासन का पक्ष ही ज्यादा प्रभावी होता जाता है।ऐसी स्थिति में यदि उनका सामना ऐसे प्रतियोगी से हो जो बँधे बँधाये नियमों से हटकर कतई अलग और बिल्कुल नये अंदाज से खेलता है और जोखिम भरे चाल चलता है तो मर्यादा में और रीति रिवाज के मुताबिक खेलने वाले विश्वनाथन आनंद जैसे खिलाड़ी सब समझते हुए और यह स्पष्ट देखते हुए भी कि यहाँ बँधेबधाये नियम से जीत संभव नहीं, अपनी खेलने की सुरक्षात्मक रणनीति नहीं बदल पाते और ऐसे में मजबूरी में गलत चाल चलते पराजित हो जाते हैं ।
यह महत्वपूर्ण बात मात्र शतरंज खेल में ही नहीं अपितु अन्य सभी खेलों में भी लगभग समान रूप से ही लागू होती है । सचिन तेंदुलकर जैसे महान क्रिकेट खिलाड़ी को भी अपने खेल जीवन में इसी तरह की समस्या से गुजरना पड़ा, और जिस कारण वे अपने खेल कैरियर के उत्तरार्ध में उतने सफल और उनका प्रदर्शन उतना प्रभावी नहीं रहा जितने वे अपने खेल के शुरुआती वर्ष में थे और उनका तेजतर्रार खेल दर्शकों को प्रभावित करता था।
देखें तो सचिन भी अपने खेल के शुरुआत के वर्षों में नियंत्रित आक्रामकता के साथ ही खेलते थे,वे अपने विकेट की सुरक्षा पर विशेष ध्यान तो रखते थे, पर साथ ही साथ वे आक्रामक होकर विपक्षी बॉलर के ऊपर प्रहार करने के जोखिम उठाने से भयभीत भी नहीं होते थे ।नतीजतन वे अपने विपक्षी गेंदबाजों पर दबाव बनाने व उनका मनोबल तोड़ने में प्रायः सफल रहते थे और इस बैट और बॉल की लड़ाई में जीत अक्सर उनकी ही होती थी।परंतु वक्त के साथ उनके खेल की आक्रामकता और उनका जोखिम उठाने का हौसला कमजोर पड़ता गया, और ज्यादा सुरक्षात्मक खेलने के कारण उनका खेल भी थोड़ा नीरस और कम प्रभावित करने वाला होता गया ।
यह अलग बात है कि क्रिकेट एक टीम खेल होने के नाते इस खेल में खिलाड़ी विशेष का व्यक्तिगत प्रदर्शन उतना मायने नहीं रखता और उसका खराब प्रदर्शन भी टीम की जीत में ढँक जाता है, और वह अपनी पुरानी उपलब्धियों के सहारे किसी तरह टीम में जगह कायम रखने में सफल रहता है ।
परंतु शतरंज जैसे वन टू वन खेल में, खिलाड़ी के व्यक्तिगत प्रदर्शन पर ही हारजीत, सब कुछ मायने रखता है, यदि खिलाड़ी खराब खेलता है और पराजित होता है, तो उसका खेल समाप्त, उसके पास छुपने के लिए टीम खेल की भाँति कोई सुरक्षित कोना उपलब्ध नहीं होता है ।इस प्रकार यदि खिलाड़ी को निरंतर सफल होना व जीत हासिल करनी है, तो उसे अपनी आक्रामकता और जोखिम उठा सकने के हौसले को निरंतर कायम और मजबूत रखना होता है ।
खेल की बात छोड़ भी दें, तो जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे उद्यम, व्यवसाय, रोजगार इत्यादि में भी कमोवेश यही सिद्धांत लागू होता है ।जो उद्यम और उनका नेतृत्व समुचित जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं रखता, उसको अपने प्रतिद्वंदियों से पिछड़ने व व्यवसाय से बाहर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता ।सच कहें तो किसी महान राष्ट्र, उसके संस्थानों, राजनैतिक संगठनों के नेतृत्व में भी यही बात सटीक रूप से लागू होती है ।यदि किसी राष्ट्र, संगठन को अपनी महानता को कायम रखने व निरंतर उन्नति करनी है तो उनके नेतृत्व को अनिर्णय और अतिसुरक्षात्मकता के कवच से बाहर निकलकर समुचित निर्णय लेने की हिम्मत और मर्यादित आक्रामकता के साथ अपने लिए गए सही निर्णयों के साथ आगे बढ़ते रहने का हौसला दिखाना ही होगा ।
देखें तो व्यक्तिगत जीवन, इसकी सफलता और उन्नति में भी इस सिद्धांत का कम महत्व नहीं ।यदि आपको जीवन में कामयाबी हासिल करनी है, तो जोखिम उठाने की हिम्मत और हौसला दिखाना ही पड़ेगा, इसका कोई विकल्प नहीं । डर कर रुकते नहीं बल्कि डर के आगे चलकर ही जीत संभव होती है ।