Friday, October 25, 2013

विरह गीत मैं अब लिख लूँगा


प्रेम वृष्टि तेरी वह अद्भुत ,
हूँ कृतार्थ आजीवन तेरा  ।
अब जो कठिन  वेदना देते  ,
वह भी मैं हँसकर सह लूँगा।१।

प्रेमसुधा की अर्पण तुमने,
पी जिसको मैं  धन्य हुआ ।
अब जो तुम विषपान कहे  तो
वह भी मैं हँसकर पी लूँगा ।२।

कितनी सहज रही यात्रा वह,
साथ कदम मिल दोनों चलते ।
जो तुम अपना साथ छुड़ाते,
कठिन राह पर  मैं चल लूँगा ।३।

प्रेमगीत मैं जो भी  लिखता,
भावों में तुम ही बसते थे ।
जाते छोड़ हृदय वीथी तुम,
विरह गीत मैं अब लिख लूँगा ।४।

मैं कहता था तुम सुनते थे,
बातें कई हृदय की मन की ।
मौन याद कर वे सब लमहे ,
छुपकर आँसू ढलका लूँगा ।५।

साथ तुम्हारा ही जीवन सुख,
पेंग दिए तुम मैं उड़ जाता ।
हाथ खींचते जो तुम अपना,
स्थिर हो दुःख मैं सह लूँगा ।६।

जो तुम हँसते बिखरें मोती ,
भर-भर मुट्ठी उन्हें बाँटता ।
भारी मन जो तुम होते हो,
स्मित कृपण बन मैं जी लूँगा ।७।

जो चाहा मैं निज को देखूँ
तुम मेरे दर्पण बन जाते ।
हटा दिया जो दर्पण तुमने ,
अपनी छवि खो मैं जी लूँगा।८।

2 comments:

  1. अद्भुत रचना, मन की गहराइयों से व्यक्त, सशक्त निष्कर्ष लिये।

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  2. बहुत सुंदर भावों से भरी रचना .....

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