Saturday, November 23, 2013

डर कर रुकते नहीं बल्कि डर के आगे चलकर ही जीत संभव होती है...

जो निर्भय वह ही विजयी है।

हमारे चहेते शतरंज  मास्टर विश्वनाथन आनंद अब विश्व चैंपियन नहीं रहे, कल ही समाप्त हुई शतरंज विश्व चैंपियनसिप प्रतियोगिता में वे तेजतर्रार युवा और वर्तमान में  विश्व शतरंज के नंबर एक खिलाड़ी नार्वे निवासी मैग्नस कार्ल्सन से 6.5-3.5 से पराजित हो गये ।

प्रूतियोगिता के शुरुआत के छः गेम लगातार  ड्रा होने से ही उनकी पराजय का कयास और यह सुगबुगाहट शुरू हो गई थी कि विश्वनाथन आनंद एक तेजतर्रार चैंपियन की भाँति  नहीं बल्कि अपने स्वभाव के विपरीत बहुत सुरक्षात्मक और दबेदबे से खेल रहे हैं ।प्रतियोगिता के दूसरे और पाँचवें गेम में जब वे मजबूत स्थिति में थे और उन्हें जरूर जीतना और अपने प्रतियोगी के ऊपर बढत और मानसिक दबाव बनाना चाहिए था,  वहीं उल्टे ज्यादा सुरक्षात्मक खेलने व अपनी हार से भयभीत से  कतई कोई रिस्क न लेने के कारण गेम को ड्रॉ पर छोड़ दिया ।

यहीं से मैग्नस कार्ल्सन जैसे जोखिम से क़तई न डरने वाले युवा  प्रतियोगी  ने आनंद जैसे अनुभवी खिलाड़ी के मन में पैठी हार के प्रति भय  और उनकी  जोखिम उठाने की क्षिण होती हिम्मत  को अच्छी तरह भॉप लिया, और नतीजतन उसने अगले गेमों में आनंद पर  मनोवैज्ञानिक दबाव बनाते, उन्हें खेल में उल्टी सीधी चालों के जाल में फँसाकर गलतियां करने को मजबूर करते बड़े ही आसानी  पराजित कर दिया और आठवें गेम के समाप्त होते होते आनंद पर दो अंकों की निर्णायक बढ़त बना ली, और फिर अगले दोनों गेम से यह प्रतियोगिता आसानी से जीत ली ।

खेल में प्रायः   यह देखा गया है कि जो हारने से भयभीत होता है, और इसलिए अपने  खेल में  किसी प्रकार का जोखिम उठाने से घबराता है, और यदि टक्कर बराबरी का है, तो ऐसे  खिलाड़ी के हाथ से आती हुई  जीत भी फिसल जाती है।या कहें कि यदि मुकाबला बराबरी का है  तो निर्णायक    जीत  अक्सर  जोखिम उठाने की हिम्मत रखने वाले के साथ ही होती है ।इस प्रतियोगिता में भी यही देखने को मिला ।दोनों खिलाड़ी खेल कौशल में बराबरी के ही थे, एक के पास खेल का  गहरा अनुभव और चाल चलने की विविधता थी तो दूसरे के पास नयी नयी चकमा देने वाली चालों  और अप्रत्याशित आक्रामकता का गुर है ।सो अंत में वही जीता जिसने ज्यादा जोखिम उठाने की हिम्मत दिखाई ।

शतरंज खेल के पुराने  मशहूर  खिलाड़ी गैरी कास्प्रोव, जो स्वयं भी आक्रामक खेलने और खेल में जोखिम उठाने वाले खिलाड़ी के रूप में जाने जाते रहे हैं और वे मैग्नस कार्ल्सन को अपना शिष्य मानते हैं, इस ऐतिहसिक प्रतियोगिता में दर्शक के रूप  में चेन्नई में मौजूद थे।उन्होंने आनंद के खेल और खेलने की तकनीकी पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है ।उनका कहना है कि आनंद का स्वभाव और खेलने की तकनीकी नियंत्रित आक्रामकता की है, जिसमें खिलाड़ी अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए, सोचसमझ कर व नपा तुला जोखिम तो उठाता है,परंतु वह रुलबुक  की मर्यादा व निर्धारित सिद्धांत से बाहर जाकर कोई जोखिम उठाने की कोशिश नहीं करता ।और खिलाड़ी की बढ़ती उम्र के साथ ऐसे खिलाड़ी  की आक्रामकता का पक्ष दबता जाता है और उसके खेलने की शैली में  नियंत्रण और अनुशासन का पक्ष  ही ज्यादा प्रभावी होता जाता है।ऐसी स्थिति में यदि उनका सामना  ऐसे प्रतियोगी से हो जो बँधे बँधाये नियमों से हटकर कतई अलग और बिल्कुल नये अंदाज से खेलता है  और जोखिम भरे चाल चलता है तो मर्यादा में और रीति रिवाज के मुताबिक खेलने वाले विश्वनाथन आनंद जैसे खिलाड़ी सब समझते हुए और यह  स्पष्ट देखते हुए भी कि यहाँ बँधेबधाये नियम से जीत संभव नहीं,  अपनी खेलने की सुरक्षात्मक  रणनीति नहीं बदल पाते और ऐसे में मजबूरी में गलत चाल चलते   पराजित हो जाते हैं ।

यह महत्वपूर्ण  बात मात्र शतरंज खेल  में ही नहीं अपितु अन्य सभी खेलों में भी लगभग  समान रूप से ही लागू होती है । सचिन तेंदुलकर जैसे महान क्रिकेट  खिलाड़ी को भी  अपने खेल जीवन में इसी तरह की समस्या से गुजरना पड़ा, और जिस कारण वे अपने खेल कैरियर के उत्तरार्ध में उतने  सफल और उनका प्रदर्शन उतना प्रभावी  नहीं रहा जितने वे  अपने खेल के शुरुआती वर्ष में थे और उनका तेजतर्रार खेल दर्शकों को प्रभावित करता था।

देखें तो सचिन भी अपने खेल के शुरुआत के वर्षों में नियंत्रित आक्रामकता के साथ ही खेलते थे,वे अपने विकेट की सुरक्षा पर विशेष ध्यान तो रखते थे, पर साथ ही साथ वे  आक्रामक होकर विपक्षी बॉलर के ऊपर प्रहार करने के  जोखिम उठाने से भयभीत भी नहीं होते थे ।नतीजतन वे अपने विपक्षी गेंदबाजों पर दबाव बनाने व उनका मनोबल तोड़ने में प्रायः  सफल रहते थे और इस बैट और बॉल की लड़ाई में जीत अक्सर उनकी ही होती थी।परंतु वक्त के साथ उनके खेल की आक्रामकता और उनका जोखिम उठाने का हौसला कमजोर पड़ता गया, और ज्यादा सुरक्षात्मक खेलने के कारण उनका खेल भी थोड़ा नीरस और कम प्रभावित करने वाला होता गया ।

यह अलग बात है कि क्रिकेट एक टीम खेल होने के नाते इस खेल में  खिलाड़ी विशेष  का व्यक्तिगत प्रदर्शन उतना मायने नहीं रखता और उसका खराब प्रदर्शन  भी टीम की जीत में ढँक जाता है, और वह अपनी पुरानी उपलब्धियों के सहारे किसी तरह टीम में जगह कायम रखने में सफल रहता है ।

परंतु शतरंज जैसे वन टू वन खेल में,  खिलाड़ी के व्यक्तिगत प्रदर्शन पर ही हारजीत, सब कुछ मायने रखता है, यदि खिलाड़ी खराब खेलता है और   पराजित होता है, तो उसका खेल समाप्त, उसके पास छुपने के लिए टीम खेल की भाँति  कोई सुरक्षित कोना उपलब्ध नहीं होता है  ।इस प्रकार यदि खिलाड़ी को निरंतर सफल होना व  जीत हासिल करनी है, तो उसे अपनी आक्रामकता और जोखिम उठा सकने के हौसले को निरंतर कायम और  मजबूत  रखना होता है ।

खेल की बात छोड़ भी दें, तो जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे उद्यम, व्यवसाय, रोजगार इत्यादि  में भी कमोवेश यही सिद्धांत लागू होता है ।जो उद्यम और उनका नेतृत्व समुचित  जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं रखता, उसको अपने प्रतिद्वंदियों से पिछड़ने व व्यवसाय से बाहर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता ।सच कहें तो किसी महान राष्ट्र, उसके संस्थानों, राजनैतिक संगठनों के नेतृत्व में भी यही बात सटीक रूप से लागू होती है ।यदि किसी राष्ट्र, संगठन को अपनी महानता को कायम रखने व निरंतर  उन्नति करनी है तो उनके नेतृत्व को अनिर्णय और अतिसुरक्षात्मकता के कवच से बाहर निकलकर समुचित  निर्णय लेने की हिम्मत और  मर्यादित आक्रामकता  के साथ अपने लिए गए सही निर्णयों के साथ आगे बढ़ते रहने का हौसला दिखाना ही होगा ।

देखें तो व्यक्तिगत जीवन, इसकी सफलता और उन्नति में भी इस सिद्धांत का कम महत्व नहीं ।यदि आपको जीवन में कामयाबी हासिल करनी है, तो जोखिम उठाने की हिम्मत और हौसला दिखाना ही पड़ेगा, इसका कोई विकल्प नहीं । डर कर रुकते  नहीं बल्कि डर के आगे चलकर  ही जीत संभव होती  है ।

Monday, November 18, 2013

लेखन हेतु बड़े उपयोगी हैं यह मन विचारों के बुलबुले.......


मन में विचारों के बुलबुले उठते रहते हैं, कुछ चाहे कुछ अनचाहे ।वैसे मन का स्वभाव ही है सोचते रहना, इसमें विचारों का निरंतर प्रवाह होते रहना, परंतु यदि आपकी हॉबी लेखन है  तो  इस विचारश्रृंखला के साथ तारतम्य रखना  बड़ा जरूरी और उपयोगी हो जाता है ।

मन में आते स्वाभाविक नये नये  विचार लेखन के दृष्टिकोण से बड़े  महत्वपूर्ण होते हैं ।इन्हीं सद्यजनित विचारों में ही लेखन हेतु नये विषय अथवा विषय के कोर थीम सन्निहित होते हैं ।कभी कभी तो मन में अकस्मात् ही कुछ ऐसे विचार आते है कि बस उस विचार को पकड़ा, और अपनी लेखनी  को गति दी, कि अल्प समय में ही एक सुंदर और रोचक लेख तैयार हो सकता है, जो कि अन्यथा बहुत व विशेष प्रयास के उपरांत भी शायद लिख पाना संभव न हो।कभी किसी काव्य रचना की  सुंदर सी  शुरुआती लाइन, कभी किसी रोचक उपयोगी निबंध हेतु आवश्यक विषयवस्तु , तो कभी किसी कहानी या कथानक की भूमिका लिए कुछ विशेष  विचार मन में अकस्मात् आते हैं ।

कहते हैं कि आप जैसे परिवेश में जीते है, निवास करते हैं,कार्यव्यवहार करते हैं, पढ़ते हैं, चिंतन करते हैं, उन्हीं के अनुरूप आप के मन में विचार भी उत्पन्न होते हैं ।हमारे मन में विचारों के जन्म के कारण और कारक चाहे जो भी हों परंतु इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि हमारी निरंतर गतिमान विचार श्रृंखला के बीच कुछ अवश्य ही ऐसे रचनात्मक   विचार आते हैं जो स्वयं में मौलिक, विषयनिष्ठ और तर्क संगत होते हैं, और इसलिए यह  अच्छे और मौलिक लेखन हेतु बहुत उपयोगी सिद्ध  होते हैं ।

परंतु समस्या, और बड़ी चुनौती भी, है इन उपयोगी परंतु क्षणिक विचारों को पकड़ना ।यह उपयोगी विचार बड़े शरारती होते हैं ।यदि आप तैयारी के साथ, कलम हाथ में लिए ध्यानिस्थ हो लिखने बैठें तो मस्तिष्क पर बहुत जोर देने पर भी शायद ही कोई बहुत उपयोगी और मौलिक विचार, जो आपके लेखन में सहायता कर सके, आता है, वहीं जब आप आजादमन अपनी नित्यक्रिया या आवश्यक  दिनचर्या, जैसे बाथरूम में हों, सुबह पार्क में टहल रहे हों, स्नान कर रहे हों, बाहरी दृश्य निहारते किसी वाहन में  यात्रा कर रहे हों, तो अचानक ही  मन में एक अद्भुत विचार आता है जो कि निश्चय ही एक सुंदर सी रचना या लेख लिखने में सहायक होता, परंतु समस्या यह है कि इस समय आपके द्वारा इस अति उपयोगी  परंतु क्षणिक विचार को पकड़ने की असर्मथता अथवा इसकी तैयारी न होने से आपके सोचते सोचते ही क्षणमात्र में ही वे विचार आपके मन मस्तिष्क और जेहन से कतई ओझल हो जाते हैं ।फिर तो बाद में आप जितना भी अपने मस्तिष्क पर जोर डाल लें, वे गत विचार विस्मृत स्वप्न की भाँति दुबारा आपकी जेहन में लौटकर नहीं आ पाते ।

इस विषय पर चर्चा करते   एक बड़े  विचारक और मेरे अभिन्न  मित्र ने  बड़ी उपयोगी सलाह दी कि मन में जैसे ही कोई उपयोगी विचार आता है, फौरन ही उसे कुछ कीशब्द अथवा वाक्य के रूप में कहीं  लिख लें ।मेरे मित्र ने इसे बहुत सुंदर नाम भी दिया है   - विचार बीज ।यह लिखे हुए विचार बीज बाद में भी उस विगत मौलिक  विचार को पकड़ने और इससे संबंधित  विषय पर कोई अच्छी  रचना या लेख लिखने में बड़ी सहायता करते हैं ।मेरे मित्र ने यह भी एक  उपयोगी सलाह दी कि विचार बीज के संकलन में मोबाइल फोन बड़ा मददगार  होता है क्योंकि यह हमारे छोटे से बड़े अधिकांश  नित्य कर्म और  दिनचर्या में हमारे साथ रह सकता है ।उनकी इस सलाह पर अमल करते मैं भी यदा कदा अपने इन लेखनोपयोगी क्षणिक  विचारों को विचार बीज के रूप में अपने मोबाइल फोन पर फौरन कुछ शब्दों या वाक्यांश में  टाइप कर लेता हूँ ।यह विचार बीज निश्चय ही मेरे कुछ मौलिक लेख और रचना में मददगार सिद्ध  हुए हैं ।

परंतु यह अनुभव किया है कि मन में आने वाले इन अकस्मात् और क्षणिक  रचनात्मक विचारों को  मोबाइल फोन की सहायता से  विचार बीज के रूप में संग्रह कर सकने  की भी बहुत सीमित संभावना होती   है, क्योंकि यह विचार कई बार ऐसे समय आते हैं जब आप मोबाइल फोन का भी उपयोग नहीं कर सकते, जैसे आप स्नान कर रहे हों, या अपने कपड़े धुल रहे हों इत्यादि  । मार्निंग वाक के समय भी मोबाइल पर आननफानन में किसी  विचार बीज को टाइप कर पाना प्रायः संभव नहीं हो पाता ।फिर भी यह संतोष कर सकते हैं कि जितना ही संभव हो सकता है,  उतने भी यदि विचार बीज संकलित हो पाये, तो भी वे  आपके लेखन  हेतु काफी मददगार सिद्ध हो सकते हैं ।

वैसे आपके विचार से मन के गतिमान और क्षणिक परंतु अति रचनात्मक विचारों को और ज्यादा दक्षता से पकड़ पाने और उन्हें लेखन में उपयोग लाने हेतु समुचित व सामयिक संचय का कोई और उपयोगी तरीका हो तो कृपा कर अपना सुझाव अवश्य दें।

Saturday, November 16, 2013

अहंकार के होते हैं भाँति भाँति के रूप....

यह दृश्य यथार्थ है कि अहंकार  मानव और मानवता के घोर शत्रुओं में से एक है ।इतिहास इस बात का साक्षी है कि अहंकार न सिर्फ कितने ही महान और गुणवान व्यक्तियों के पतन का कारण बना, अपितु उनके अहंकार का खामियाजा उनके परिवार, संबंधित जनों और उनके समाज और देश को भी भुगतना और उनके विनाश का कारण बना ।

रावण और दुर्योधन जैसे महान योद्घा अपने अहंकार के कारण न सिर्फ अपने राजसिंहासन और कुल के विनाश के कारण बने, बल्कि इसका खामियाजा पूरे समाज और देश को भुगतना पड़ा ।वर्तमान विश्व को भी कुछ व्यक्तियों व शासकों के अहंकार के कारण ही विश्व युद्ध जैसी आपदाओं, जिनसे पूरे विश्व को अपार जनधन की हानि हुई, का सामना करना पड़ा।

अहंकार व्यक्ति के गुण और प्रतिष्ठा को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे मदमस्त हाथी किसी हरेभरे लहलहाती गन्ने की फसल को।अहंकार के वशीभूत व्यक्ति न सिर्फ स्वयं का बल्कि अपने साथ साथ अपने पूरे परिवेश के ही विनाश का कारण बनता है ।

अहंकार कई प्रकार से हो सकता है, रूप का अहंकार, पद का अहंकार, प्रतिष्ठा का अहंकार,  धनसमृद्धि  का अधंकार ,बल का अहंकार ,ज्ञान का अहंकार, अपनी अच्छाई और  योग्यता का अहंकार ,जातिगत अहंकार, धार्मिक और सांप्रदायिक  अहंकार, और भी अन्य कई प्रकार के अहंकार  ।

अहंकार का  सबसे पहला आक्रमण अहंकारी व्यक्ति के विवेक पर होता है, क्योंकि विवेक ही वह दर्पण है जो व्यक्ति को उसके अहंकार को स्पष्ट दिखाता है, साथ ही साथ वह व्यक्ति के तर्कशक्ति  को बढ़ावा देता है, क्योंकि तर्क ही व्यक्ति के बुद्धि रूपी तरकस का वह सबसे प्रभावी तीर है जो व्यक्ति के गलत पथ पर चलने अथवा गलत कार्य करने के विरुद्ध उसके जागृत विवेक को मारने ,नष्ट करने की  शक्ति रखता है ।व्यक्ति के अंदर विवेक रूपी प्रकाशदीप के बुझते ही उसके बुद्धि रूपी महल में घोर अंधकार का साम्राज्य , जिसका स्वामी अहंकार होता  है, छा जाता है,और इस अँधेरे महल में निवास करने तर्कशक्ति अपने सम्राट की मुख्य सहचरी और सलाहकार बनकर उसे अपनी मनमानी करने को प्रोत्साहित करती है और इस प्रकार विवेक की अनुपस्थिति में  व्यक्ति का अहंकार उसके पतन और विनाश का कारण बनता है ।इस प्रकार कह सकते हैं कि अहंकार ग्रस्त व्यक्ति अपने मन मस्तिष्क से पूरी तरह अंधा और अपने ही सामने खड़े अपने विनाश को देखने में असमर्थ हो जाता है ।

इस विषय पर चर्चा करते मेरे एक विचारशील मित्र ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहीं कि कई बार किसी का आत्मविश्वास पूर्ण व्यवहार भी सामने वाले व्यक्ति को उसका अहंकार प्रतीत  हो सकता है ।उनकी यह बात तो तर्क संगत है परंतु जैसा पहले चर्चा किया कि अहंकार और तर्क का बड़ा अंतरंग साथ होता है, और तर्क की सहायता से अहंकार भांतिभांति के आवरण ओढ़कर मनुष्य के मन और बुद्धि पर आधिपत्य जमा लेता है, अतः व्यक्ति को आत्मविश्वास रखते यह समझ और सावधानी रखना आवश्यक होता है कि उसके आत्मविश्वास के आवरण में कहीं उसके अंदर अहंकार तो नहीं अपना आधिपत्य जमा रहा  है ।

विनम्रता ,बड़ो के प्रति आदरभाव, ईश्वर के प्रति आस्था और समर्पण कुछ ऐसे सद्गुण हैं जो अहंकार से बचने में सहायता करते हैं ।परंतु यहाँ पर भी  मेरे विचार से एक सावधानी बरतने की आवश्यकता है कि ईश्वर के प्रति आस्था और समर्पण का तात्पर्य व्यक्ति के धार्मिक होने और किसी धार्मिक आस्था से कदापि नहीं है, बल्कि मेरे अनुभव में तो कई बार ज्यादा  धार्मिक और धर्म में आस्थावान व्यक्तियों में  ही  ज्यादा असहिष्णुता, अहंकार और कट्टर वादी  प्रवृत्ति दिखती है ।ईश्वर के प्रति आस्था और समर्पण व्यक्ति को सहिष्णु, उदार व मानव जाति के प्रति सद्भावना युक्त बनाती है, जबकि हमारे धर्म और धर्मावलंबियों का आचरण इन मानव मूल्यों के सर्वथा विपरीत दृष्टिगोचर होता है ।इस दुर्भाग्य पूर्ण सत्य की  पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि मानवता के इतिहास में आजतक जितनी हिंसा  व हत्याएं राजनीतिक और सामरिक युद्ध और झगड़ों के कारण हुई हैं , उनसे कई गुना  ज्यादा नरसंहार और हत्याएं धार्मिक घृणा,  झगड़े ,उन्माद के कारण हुई हैं,और देखें तो इनके मूल में कहीं न कहीं व्यक्ति के अंदर अपने धर्म के कारण जनित अहंकार ही होता है ।

इस प्रकार धर्म, जाति, संप्रदाय, कुलीनता इत्यादि जैसे पूर्वाग्रहों से रहित निश्छल मानवप्रेम और सार्वभौमिक प्रेम और आस्था शायद हमारे अंदर अहंकार जैसे स्वाभाविक प्रकृतिजन्य मनोविकार पर नियंत्रण रखने में सहायता कर सकती है,जिसमें न व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक मानवता का कल्याण सन्निहित है   । 
    

Wednesday, November 13, 2013

सचिन - खेल से सन्यास परंतु भारतीय जनमानस के चिरआदर्श और अमर प्रेरणा श्रोत

हमारे जीवन में  कुछ आदर्श व प्रेरणादायी व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनकी व्यक्तिगत  उपलब्धियों व महानता के  बारे में हमारी  विस्त्रित  जानकारी होना  उतना मायने नहीं रखता, जितना कि उन व्यक्तियों का हमारे जीवनकाल में उपस्थित  होना मात्र ही ।सचिन तेंदुलकर ऐसे ही हमारे  भारतीय जीवन आदर्श पुरुष  हैं, उनकी हमारे जीवन काल में  उपस्थिति मात्र ही हमारी सोच, हमारी उम्मीदों, हमारी जीवन संघर्ष क्षमता को बढ़ाती और  सकारात्मक कर देती है ।

विगत लगभग पच्चीस वर्षों से  वे न मात्र अपनी समकालीन पीढ़ी हेतु आदर्श व प्रेरणाश्रोत रहे हैं, बल्कि वे अपने से  पहले की पीढ़ी और वर्तमान युवा  पीढ़ी हेतु भी बराबर रूप में आदर्श व प्रेरणाश्रोत हैं ।मेरे पिताजी, जिनकी आयु पचहत्तर वर्ष है और उनकी क्रिकेट से संबंधित जानकारी लगभग न के बराबर है, परंतु टीवी पर क्रिकेट मैच आने और यह जानते कि इसमें सचिन खेल रहे हैं, बड़ी तन्यमयता और उत्साह से ,अपना सारा महत्वपूर्ण काम भूलते , जरूर देखते हैं, सचिन के रन बनाते, अच्छे शॉट, चौके देखकर उनके गंभीर चेहरे पर विशेष खुशी व बच्चों जैसी  प्रफुल्लता दिखती है, इसी प्रकार सचिन के आउट होने से उन्हें बहुत दुःख और निराशा होती है, और वे वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं जैसे उनके अपने बच्चे ने अपनी  छोटी सी गलती से असफल या आउट हुआ हो।

सचिन तेंदुलकर न सिर्फ़ भारत बल्कि संपूर्ण   विश्व के  एक  महान खिलाड़ी और अपने अनगिनत चाहनेवालों,समकालीन और भावी,दोनों, खिलाड़ियों हेतु निरंतर  प्रेरणाश्रोत रहे  हैं ,बल्कि  वे हमारे भारतीय जनमानस, विशेष कर मध्यमवर्ग, के लिए तो एक महान खिलाड़ी से भी  कहीं अधिक बल्कि सचिन उनके  कार्मिक, बौद्धिक और  आध्यात्मिक जीवन दर्शन और आदर्श और इनके प्रति भारतीय जनमानस की गहरी आस्था के स्वरूप और   प्रतिबिम्ब हैं ।

हमारे भारतीय  मध्यमवर्गीय  परिवार में  मातापिता अपने संतान की उचित शिक्षा दीक्षा, उनकी  मर्यादित  और जीवन मूल्यों से पूर्ण परवरिश  जिसप्रकार  अपने तन, मन, धन से   समर्पित होकर   व निष्ठाभाव से  करते हैं , और अपने संतान में जिस प्रकार के व्यक्तित्व, आचरण, जीवनमूल्य और उपलब्धियों की अपेक्षा और कामना करते हैं, सचिन उसके साकार प्रतीक और  उदाहरण हैं ।यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सचिन का जीवन एक  मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार को उसी प्रकार प्रेरणा और शक्ति देता है जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का आदर्श चरित्र और जीवन हमारे भारतीय समाज  हेतु  चिर प्रेरणा और शक्ति है ।

सचिन का संपूर्ण  जीवन, उनका कर्म, आचरण व व्यवहार हमारे भारतीय जनमानस में  निहित जीवन मूल्यों, आदर्शों और इनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरता है और हम सभी के लिए अनुकरणीय व प्रेरणादायक अनुभव होता  है ।वे न सिर्फ एक महान व आदर्श खिलाड़ी, बल्कि उतने ही आदर्श इंसान भी हैं ।वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श टीममेट और आदर्श व्यक्ति और  नागरिक भी हैं ।

अपने खेल  और एक खिलाड़ी के रूप में उनके पराकाष्ठा के स्तर पर समर्पण व निष्ठा,निजी व व्यावसायिक  दोनों, जीवन के निहित मूल्यों  के सदैव सहज  निर्वहन ,अपने   मातापिता के प्रति अगाध प्रेम और सम्मान ,अपने परिवार, पत्नी और बच्चों के प्रति प्रेम, दायित्व और निष्ठा,अपने मित्रों, चाहने वालों और अन्य सभी के प्रति सहिष्णुता व मर्यादित आचरण और व्यवहार निश्चय ही सभी के लिए प्रेरणा और  उत्प्रेरक का कार्य करता है ।

इन सबके अतिरिक्त सचिन का   विलक्षण प्रेरणादायक   गुण है उनका आत्मविश्वास, ईश्वर के प्रति गहरी  आस्था और भविष्य हेतु सदैव  आशावादिता ।अपने खेल जीवन में उन्हें प्रायः कई गंभीर चोटों व शारीरिक समस्याओं  का सामना करना पड़ा, जिस कठिन  परिस्थिति में सामान्य मनोबल का व्यक्ति निराश और परास्त होकर आगे  खेलने का हौसला खो देता, परंतु सचिन इन सबका अपने मजबूत मनोबल और धीरज,समुचित उपचार व अनुशासित जीवन चर्या की सहायता से,  सामना करते सफल वापसी करते रहे और अपना उत्कृष्ट खेल जारी रखा ।

इसी प्रकार खेल में मिलने वाली असफलताओं व हार से भी हतोत्साहित और निराश होने के बजाय सचिव ने सदैव स्वयं और अपने टीममेट्स को पिछले हार को भूलते और अपना  आत्मविश्वास कायम रख फिर से जूझने और जीतने का सदैव मनोबल और हौसलाफजाई किया ।सन् 1996 में कोलकाता में विश्वकप सेमीफाइनल में श्रीलंका के हाथों भारत की दुर्भाग्यपूर्ण हार से भारतीय टीम के तमाम और मुख्य खिलाड़ी बड़े निराश हो गये  और फूट फूट कर रोने लगे ।परंतु सचिन ने अपने साथी खिलाड़ियों को संयत होने का आह्वान करते कहा कि इस हार का यह मतलब नहीं कि हमारा  सबकुछ यहीं समाप्त हो गया, हमें भविष्य के अवसरों को पाना है और यह विश्वकप निश्चित रूप से जीतना है ।उनके इसी आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प का नतीजा रहा कि उन्होंने न सिर्फ अपनी  हर विश्वकप भागीदारी में जबर्दस्त खेल दिखाया, बल्कि अपने खेल जीवन के मुख्य  सपने को साकार करते  सन् 2011 के विश्वकप की विजेता भारतीय टीम के अग्रिम खिलाड़ी बने रहे ।

इसके अतिरिक्त अपने दीर्घ खेल कैरियर में, क्रिकेट ग्राउंड में  अथवा इसके  बाहर , अपने किसी भी  बरताव ,आचरण अथवा कथन से सचिव तेंदुलकर किसी भी प्रकार के विवाद या पचड़े में नहीं पड़े ।यदि उनके  खराब खेल या खेल से संबंधित किसी  गलत निर्णय  अथवा उनके खेल के खराब दौर से गुजरने  पर  किसी ने टिप्पणी अथवा आलोचना भी की तो वे अपनी सीधी  प्रतिक्रिया अथवा विवाद में पड़ने के बजाय अपनी आलोचना का उत्तर अपने बल्ले और उत्कृष्ट खेल से देना बेहतर समझते ।इस प्रकार उनके व्यक्तित्व का यह अति संयत, संतुलित और मर्यादित पक्ष सबके लिए  अति प्रेरणादायक और अनुकरणीय है ।
   
जीवन की अक्ष्क्षुणता व निर्धारित समयसीमा के मद्देनजर हम सभी की अपने जीवन में निर्धारित भूमिका सीमित और  समयबद्ध है, अतः सचिन के भी सक्रिय खेल जीवन पर पटाक्षेप होने जा रहा है, परंतु सबके लिए अपनी आस्था, विश्वास और प्रेरणा के प्रतीक बन चुके सचिन भारतीय जनमानस हेतु सदैव आदर्श व प्रेरणा श्रोत्र बने रहेंगे ।

Monday, November 11, 2013

मैं तो बस टूटे हुए तारों से मन्नत माँगता हूं ।

है कहाँ सामर्थ्य मेरी कर सकूँ जग विजय कोई,
मैं तो बस इककल्पना में विश्व को पगमापता हूँ ।
भाग्य में मेरे कहाँ हैं चमकते जगमग सितारे,
मैं तो बस टूटे हुए तारों से मन्नत माँगता हूँ ।१।

क्षितिज पट पर दृश्यअनुपम हैं बिखरतेरूपलेते,
प्रकृति का सौंदर्य प्रातःसुबह प्रतिदिन देखता हूँ
क्या है मेरी योग्यता रचना करूँ सुंदरकृति की,
मैं तो बस दीवार पर  सीधी लकीरें खींचता हूँ।२।

मैं घिरा ,मजबूत यह दीवार दरवाजे बहुत  हैं ,
मैं तो इनकी खिड़कियों से बंद परदे खोलता हूँ
छंद, कविता,गीत,नग्मे कहता न कोई शायरी हूँ
मैं दिलेजज्बात वाइस लफ्ज दो बस बोलता हूँ।३।

लोग मुझको जो छलें स्वीकार सब मुझको रहा,
मैं किसी को और कभी भी छलना नहीं  जानता हूँ। 
सूर्य तारे ज्योति की सामर्थ्य कब मुझमें रही है,
सौम्य दीपक बन जलूँ मैं मात्र जलना जानता  हूँ ।४।

नहीं मेरी शग़ल कि छीनाझपट करता किसी से,
मैं तो बस विश्वास कर खुद को लुटाना जानता हूँ ।
है कहाँ संभव लकीरें हाथ की अपनी  बदलता ,
मैं तो अपनी बंद मुंठी बस बंद रखना जानता हूँ।५। 
  
मैं हूँ दुनियादारी में कमजोर और होशियारकम,
जीतते सब रहे मुझसे मैं तो अक्सर हारता हूँ ।
तैरने का है नहीं मुझको सलीका हुनर कोई ,
मैं तो बस बहती नदी को बैठा किनारे देखता हूँ।६।

Friday, November 1, 2013

अंतर्मन जो करे प्रकाशित, ऐसी दीप ज्योति जल जाये ।


नहीं कामना हे प्रभु मेरे ,
तेज ज्योति जगमग प्रकाश की,
निखरे छटा प्रभाष पुंज की
जिससे आँखें चुधिया जायें,
उसमें दर्प, घमंड समाये ।

इतना ही प्रकाश मेरे प्रभु !
जीवन में तुम कायम रखना ,
सहज शांत ल्यों दीपक ज्योति ,
सूर्य किरण संयम रख जलती,
स्निग्ध चांदनी प्रकाश पथ देती ।

जो प्रकाश जीवन पथ बिखरे,
चकाचौंध प्रभु! दृष्टि न छाये,
संयम धीरज के रंग निखरे
दर्प, कलुष मन कदापि न आए ।

हे प्रभु!
अंतर्मन जो करे प्रकाशित, 
ऐसी दीप ज्योति जल जाये ।