Saturday, January 16, 2021

कांटो को कांटा कहने की साफगोई जरूरी है...

जैसे जैसे कोई समाज या देश आर्थिक एवं जीवन संबंधी अन्य सुख-सुविधाओं से संपन्न होता जाता है वैसे वैसे स्वयं को तथाकथित सभ्य, सुसंस्कृत एवं इलीट होने और दिखने के लिए एक प्रकार का बनावटीपन (शोअॉफ), फेक और हिपोक्रेटिक आचरण, संस्कार व व्यवहार अपनाने लगता है। यूरोपीयन समाज और देश, विशेषकर पश्चिमी यूरोप, में इस तरह की हिप्पोक्रेसी डेढ़ दो सौ सालों में, उनके औद्योगीकरण आर्थिक उन्नति और  हाई स्टैंडर्ड अॉफ लिविंग के समानांतर, खूब पल्लवित पुष्पित हुई। इन्हें खुद को तो गुलाब की खूबसूरती के मजे  लेने थे, यह तो वह अपना नैसर्गिक अधिकार समझते रहे, मगर अपनी हमदर्दी, ज्ञान और बखान कांटो की ही करते , खासकर यदि वह कांटे दूसरे की बागवानी में पनप और विकसित हो रहे हों, इन कांटों से तबाह और त्रस्त कोई इन्हें नष्ट करने जलाने साफ करने की कोशिश भी करता तो यही पश्चिमी यूरोप का इलीट इंटेलेक्चुअल तबका अपने कलम और जुबान के तलवार से बेचारे कांटों के सफाई करने वाले के खिलाफ ही जंग में उतर आते रहे और इन जहरीले खतरनाक कांटो के तरफदारी में उनके रक्षक बने खड़े होते रहे। चूंकि अमरीका का डीएनए भी कमोबेश पश्चिमी यूरोप की ही संरचना रहा है, वहां भी यही इलिट और इंटेलेक्चुअल क्लास जनित हिप्पोक्रेसी निरंतर विकसित और पल्लवित होती रही। अब यही कांटे जब पश्चिमी यूरोप के देशों और शहरों, क्या लंदन और क्या पेरिस, और काफी हद तक अमरीका भी, में फैल बिखर और दिन दूने रात चौगुने बढ़ने और मजबूत होने लगे हैं, और इनके खुद के पैरों में चुभने और लहूलुहान करने लगे हैं तो अब इन्हें धीरे धीरे समझ में आने लगा है कि फूल फूल होते हैं और कांटे कांटे, कांटों से आप फूल की नरमी और सलीके की उम्मीद नहीं कर सकते, कांटो का चरित्र और ईमान ही होता है दूसरों के पैर में अकारण चुभना, दूसरों को लहूलुहान करना, दर्द देना। लहू बहाना और दूसरों को दर्द  देना कांटों का मुख्य इंटरटेनमेंट होता है।

चूंकि भारत का बैकग्राउंड पश्चिमी देशों की लम्बी अवधि तक कॉलोनी होने और उनकी गुलामी करने का रहा, देश के तथाकथित आजाद होने के बाद भी सत्ता ऐसे ही लोगों के हाथों में आयी जिनकी सारी शिक्षा दिक्षा और समझ यूरोप से ही उधार में मिली हुई थी, अतः स्वाभाविक रूप से यहां भी वही हिप्पोक्रेसी की मानसिकता पूरी तरह से, गहराई से, समाहित रही। जेएनयू, जामिया और जाधवपुर इसी हिप्पोक्रेसी के जीतेजागते उदाहरण व प्रयोगशालाएं रही हैं।

ट्रंप या उनके विचारधारा जैसे नेताओं के फूहड़ बात और व्यवहार की चाहे जितनी भी आलोचना की जाय मगर एक बात तो अकाट्य सत्य है कि ट्रंप जैसे  नेता कम से कम इस घिनौने हिप्पोक्रेसी से मुक्त रहे हैं, वे बेबाकी से और बिना किसी लाग-लपेट के इन कांटों को कांटा कहने की साफगोई रखते हैं।

हमारे देश के लिए भी इस गहरे पैठी हिप्पोक्रेसी से निजात पाने और कांटों को कांटा कहने की बेबाकी और साफगोई की नितांत आवश्यक है, कम से कम इधर पांच छः सालों से तो थोड़ी बहुत बेबाकी साफगोई प्रवेश करती दिखाई देने लगी है, इसके सुरक्षित भविष्य के लिए अपरिहार्य है अन्यथा  हिप्पोक्रेसी में जीने  वाले देश और समाज का हस्र और नियति प्रायः 'टाइटैनिक' जैसा ही होता है।

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