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Friday, July 13, 2012

क्या यही उत्सर्ग है?



धारणा है दृश्य इतना बन चुका
कि सत्य ही है बनगया अदृश्य है।
तलाशते थे प्रश्न जिनको युगयुगों से,
बन गये उत्तर वहीं अब पृक्ष्य हैं।1

भाव जो अभिव्यक्त थे अतिमुखर होकर,
शब्द एकांगी बने और अर्थ उनके मौन हैं।
कल बुलंदी पर चढ़ी जिनकी जवानी
आज  बनते वे कहीं छिन्नमय अबशेष हैं 2

निज करों से प्रकृति का , है मनुज  संहार करता,
करते धरा की माँग उजड़ी क्या यही उत्सर्ग है?
विभाज्य अनदेखा हुआ बस भाग्यफल की फिक्र है,
इस विभाजन के अनंतर क्या बचा अवशेष है ?3

अमृत कलस मिल बाँट पीते देव-दानव हिलमिले।
होता रहा है धरा का बस गरल से अभिषेक है।
आइने में ढूढ़ता था वजूद दिखता हमशक्ल सा,
समझता था जिसे अपना वह अक्स भी अब गैर है।4

हवा भी खामोश दिखती,शांत सब तरुवर खड़े,
खग दिखे विचलित, क्या यह तूफान का संदेश है?
मित्र उनको समझते  हम शांति-पद रचते रहे ,
लूटे गये अनजान रहते कि युद्ध का छलभेष है।5

Wednesday, November 30, 2011

......यह पिस रहा वर्तमान क्यों है ?


जूझता संघर्ष से यह,
नियति के प्रतिकर्ष से भी,
हो रहा अपकर्ष जग का,
क्या यहीं उत्कर्ष मेरा ?1?

साक्षी बने सब कृत्य के तुम,
किंतु रहते मौन साधे।
कह न सकते सच-असच क्या,
पर मानते अच्छी नियति है?2?

नींद मे तुम स्वप्न देखे,
जग रहे जो होश कब थी?
भूत-भव के सिल तले,
यह पिस रहा वर्तमान क्यों है?3?

उच्च तल पर सूर्य जलता,
भूतल सुलगती यह धरा।
सूरज-धरा के बीच विस्त्रित,
नीलमय यह शून्य क्या है?4?

जो दिख गया वह पाप होता,
है छिपा तो धर्म कहते।
पाप-धर्म के मध्य में यह,
करता मनुज अपकृत्य क्या है?5?

कर रहे निर्माण जो तुम
गर्भ में पलती प्रलय है।
सृष्टि-प्रलय अंतराल में यह
हो रहा उत्थान क्या है?6?

युद्ध में तलवार खिंचतीं,
संधि में प्रतिघात होते ।
युद्ध-संधि के बीच पलती,
स्याहमय यह शांति क्या है?7?