राजनीतिक इंद्रियाँ जो,
हुईं अनियंत्रित प्रबल।
क्यों कोसते हो तुम निरर्थक,
लोकतंत्र सी आत्मा को।1।
आत्मा तो अनादि है,
अजर अमर अप्रमेय है।
अदग्ध अक्षय अतिक्त है
अदृश्य अजन्म अज्ञेय है।2।
लोकतंत्र जन आत्मा है,
लोकतत्र जन चेतना है.
लोकतंत्र समाधान बनता
जो भी जन की वेदना है।3।
तरु-जडे ही जब विषैली,
पुष्प-फल को दोष कैसा?
स्वयं जब क्षलमयी जीवन
दूसरे से भरोष कैसा? 4।
स्वयं मिथ्याचार पर दूजा
सची हो , यह बडा पाखंड है।
सुविधानुसार नियमविग्रह
यह बडा ही प्रवंच है।5।
सत्य आंच रहित होता
निडर निस्पृह निभय होता
आचरण में हरिश्चंद होता
आदर्श में यह राम होता।6।
ज्ञान में यह बुद्ध होता
महावीर जैसा शुद्ध होता
नीति में करमचंद होता
प्रीति में नानकचंद होता।7।
पर-उपदेश देना बाद में
प्रथम स्वयं को निर्देश दो।
घृणा से बचकर रहो तुम
अब प्रेम का संदेश दो।8।
बढ़िया कविता.. ऐसी कविता से ही लोकतंत्र जीवित रहेगा...
ReplyDelete"पर-उपदेश देना बाद में
ReplyDeleteप्रथम स्वयं को निर्देश दो।
घृणा से बचकर रहो तुम
अब प्रेम का संदेश दो "
शानदार अनुपम अभिव्यक्ति जो सुन्दर प्रेरणा दे रही है.
बहुत बहुत आभार.
लोकतन्त्र का यही मन्त्र हो,
ReplyDeleteनहीं कहीं पर व्यथित तन्त्र हो,
स्वयं मिथ्याचार पर दूजा
ReplyDeleteसची हो , यह बडा पाखंड है।
सुविधानुसार नियमविग्रह
यह बडा ही प्रवंच है।5।
विसंगति बहुत प्रभावशाली ढंग से विवेचित किया आपने...
सार्थक , बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना...
स्वयं जब क्षलमयी जीवन
ReplyDeleteदूसरे से भरोष कैसा? 4।
मुझे आपके इस रचना की सबसे बेजोड़ पंक्ति यही लगी ..मेरा भी मानना है की क्षलमयी
व्यवहार व जीवन निरर्थक है किसी एक के भी भड़ोसे लायक बन सके तभी जीवन सार्थक है ..
हर एक के भड़ोसे लायक बन्ने का तो प्रयास ही किया जा सकता है ..
पर-उपदेश देना बाद में
ReplyDeleteप्रथम स्वयं को निर्देश दो।
घृणा से बचकर रहो तुम
अब प्रेम का संदेश दो।
bahut achchhe bhavon se bhari kavita badhai.