मेरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सहपाठी
व रेलवे में सहकर्मी श्री सुरेश कुमार मिश्रा जी से
लम्बे अंतराल के उपरांत कल फोन पर बात-चीत हुई।उनसे बात करना सदैव की तरह अति सुखद
व ज्ञानवर्धक रहा।
मिश्राजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है- एक
मेधावी छात्र-यूपी बोर्ड परीक्षा के मेरिट-होल्डर,सुदर्शन व्यक्तित्व, क्रिकेट व बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी,फिल्मों में गहरी अभिरुचि व अच्छी
पार्टी व खान-पान के शौकीन,अच्छे
पति,पिता व मित्र,दक्ष इंजिनियर व कुशल प्रशासक,बहुआयामी ज्ञान व चिंतन , अध्ययन
अभिरुचि व ज्ञान - फिराक गोरखपुरी के गुल-ए-नग्मा से लेकर जे कृष्णामूर्ति के
आध्यात्मदर्शन तक,
अति संतुलित ,प्रभावशाली व आकर्षक
व्यक्तित्व कि मेरे सहपाठी व मित्र के अलावा मेरे अवचेतन में भी वे सदैव एक 'आइडियल बडी' के रूप में स्थापित रहे हैं।
उनकी स्वर्गीया पत्नी अलका, जो दुर्भाग्यवश कुछ वर्ष पूर्व ही एक सड़क दुर्घटना में
असमय ही काल-कवलित हो गयीं, भी
अति सहृदय व हँसमुख महिला थीं,वे
मेरी पत्नी की अच्छी सहेली थी व उनका सबके प्रति सौजन्यतापूर्ण व्यवहार सदैव जीवन
के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करता था।
मुझे स्मरण है कि रेलवे में ट्रेनिंग
पूरा करने के उपरांत मेरी पहली फिल्ड-पोस्टिंग जो एक सबडिवीजन में थी और आवास की
अनुपलब्धता के कारण मैं येन-केन-प्रकारेण रेलवे रेस्ट हाउस के छोटे से कमरे में निर्वाह
कर रहा था, और इसी आवास की
असुविधा के कारण मेरी पत्नी जो उन दिनों गंभीर रूप से अस्वस्थ चल रही थीं, मेरे
साथ नहीं थीं और वे गाँव पर मेरे माता-पिता के साथ रहती थीं, जिससे उनके नियमित
उपचार में कठिनाई हो रही थी।
संयोगवश मिश्राजी, जो उन दिनों मेरे डिवीजनल
ऑफिस में तैनात थे,दौरे
पर मेरे पोस्टिंग-स्थान पर आये। वे मुझे परिवार को साथ न रख पाने व थोड़ा दुखी
देखते हुये एक बड़ी अच्छी नसीहत दी- देखो मित्र! यह तो शुरुआत है,रेलवे की नौकरी के दौरान तो बीसों बार
यह नौबत आयेगी जब तुम्हारा स्थानांतरण होगा और इस तरह की अस्थाई समस्या, कुछ दिन रेस्टहाउस में रह गुजारा करना
तो लगा ही रहेगा, तो
कितनी बार इस बात के लिये दु:खी व परिवार को छोड़कर रहोगे? इसलिये जहाँ रहो,जितने में रहो, पर पूर्णता में रहो।
उनका यह दिया मंत्र तब से मैंने जीवन
में अपनाया है,और
रेलवे की पिछली बीस साल की नौकरी और अपनी वर्तमान नौवीं पोस्टिंग इन अस्थाई
मुद्दों व झंझटों को लेकर कभी कोई अवसाद नहीं हुआ। स्थानांतरण आदेश मिला,बोरिया-बिस्तर बाँधा सपरिवार कूच कर गये,जहाँ जो व्यवस्था मिली एड्जस्ट करके रह
लिये,और बाकी सब समस्यायें-बच्चों
का स्कूल एडमीसन इत्यादि भी जैसे तैसे निपट ही जाता था।इस तरह इन स्थानांतरणों को
लेकर न तो कभी मन में कोई भय या आशंका ही रही, न तो इन छोटी-मोटी अस्थाई असुविधाओं को
लेकर मन में कोई तनाव या अवसाद।इसके लिये मैं मिश्रा जी की दी हुई नसीहत के प्रति
सदैव मन ही मन आभारी रहता हूँ।
आज एक लम्बे अंतराल के उपरांत हुई हमारी
टेलीफोन पर बातचीत में उन्होने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही कि-किसी के कर्तव्य को जब
हम अपना अधिकार समझने लगते हैं, खासतौर
पर हमारे पारिवारिक सम्बन्धों के परिपेक्ष्य में, तो तनाव व विवाद ही उत्पन्न होते हैं।
उदाहरणार्थ पुत्र पिता का आदर करे ,उन्हे
प्रणाम करे यह तो उसका आचरण-कर्तव्य है,किन्तु पिता इसे अपना अधिकार समझता है तो यहीं आपसी व
साम्बन्धिक समस्यायें जन्म लेने लगती हैं।हम जब तक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह
अपना कर्तव्य समझकर निभाते रहते हैं, तब तक तो सब ठीक व सामान्य चलता है, पर जैसे ही हम इन सम्बंधों पर अधिकार
जताने का आग्रह करते है ,समस्यायें व विवाद जन्म लेने लगते हैं। कर्तव्य का
निर्वहन समष्टि व सलगाव उत्पन्न करता है,जबकि अधिकार व आग्रह जताना व्यष्टि व विलगाव उत्पन्न करता है।सलगाव व
सहृदयता की भावना ही तो हमारे दैवीय गुण हैं,अन्यथा आग्रह व विलगाव की भावना हमारे
आसुरी गुणों का प्रतिनिधित्व करती है।
उन्होने इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुये
कहा कि दूसरों, विशेषकर अपने परिवार के सदस्यों व बच्चों के ऊपर अपने विचार,
ईच्छा, आकांक्षाओं को थोंपने व इनके ऊपर आग्रह करने के बजाय, प्रत्येक व्यक्ति को
उसके नैसर्गिकता में सहज स्वीकार कर लेना ज्यादा कल्याणकारी व सुखदायी है, इससे
विवाद व मतभेद तो न्यूनतम होते ही हैं, इससे सबका मूलभूत विकाश भी हो पाता है।
मिश्राजी की कही इन महत्वपूर्ण बातों को
सुनने के उपरांत से ही उनपर मेरा मनन जारी है, आशा करता हूँ कि उनकी बातों के सार
को ठीक-ठीक समझ व आत्मसात कर पाऊँगा, और मन व चिंतन में दैवीय गुणों की वृद्धि
होगी।