Monday, October 31, 2011

कर्तव्य व अधिकार


मेरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सहपाठी व रेलवे में सहकर्मी श्री सुरेश कुमार मिश्रा जी से लम्बे अंतराल के उपरांत कल फोन पर बात-चीत हुई।उनसे बात करना सदैव की तरह अति सुखद व ज्ञानवर्धक रहा।

मिश्राजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है- एक मेधावी छात्र-यूपी बोर्ड परीक्षा के मेरिट-होल्डर,सुदर्शन व्यक्तित्व, क्रिकेट व बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी,फिल्मों में गहरी अभिरुचि व अच्छी पार्टी व खान-पान के शौकीन,अच्छे पति,पिता व मित्र,दक्ष इंजिनियर व कुशल प्रशासक,बहुआयामी ज्ञान व चिंतन , अध्ययन अभिरुचि व ज्ञान - फिराक गोरखपुरी के गुल-ए-नग्मा से लेकर जे कृष्णामूर्ति के आध्यात्मदर्शन तक, अति संतुलित ,प्रभावशाली व आकर्षक व्यक्तित्व कि मेरे सहपाठी व मित्र के अलावा मेरे अवचेतन में भी वे सदैव एक 'आइडियल बडी' के रूप में स्थापित रहे हैं।

उनकी स्वर्गीया पत्नी अलका, जो दुर्भाग्यवश कुछ वर्ष पूर्व ही एक सड़क दुर्घटना में असमय ही काल-कवलित हो गयीं, भी अति सहृदय व हँसमुख महिला थीं,वे मेरी पत्नी की अच्छी सहेली थी व उनका सबके प्रति सौजन्यतापूर्ण व्यवहार सदैव जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करता था।

मुझे स्मरण है कि रेलवे में ट्रेनिंग पूरा करने के उपरांत मेरी पहली फिल्ड-पोस्टिंग जो एक सबडिवीजन में थी और आवास की अनुपलब्धता के कारण मैं येन-केन-प्रकारेण रेलवे रेस्ट हाउस के छोटे से कमरे में निर्वाह कर रहा था, और इसी आवास की असुविधा के कारण मेरी पत्नी जो उन दिनों गंभीर रूप से अस्वस्थ चल रही थीं, मेरे साथ नहीं थीं और वे गाँव पर मेरे माता-पिता के साथ रहती थीं, जिससे उनके नियमित उपचार में कठिनाई हो रही थी।

संयोगवश मिश्राजी, जो उन दिनों मेरे डिवीजनल ऑफिस में तैनात थे,दौरे पर मेरे पोस्टिंग-स्थान पर आये। वे मुझे परिवार को साथ न रख पाने व थोड़ा दुखी देखते हुये एक बड़ी अच्छी नसीहत दी- देखो मित्र! यह तो शुरुआत है,रेलवे की नौकरी के दौरान तो बीसों बार यह नौबत आयेगी जब तुम्हारा स्थानांतरण होगा और इस तरह की अस्थाई समस्या, कुछ दिन रेस्टहाउस में रह गुजारा करना तो लगा ही रहेगा, तो कितनी बार इस बात के लिये दु:खी व परिवार को छोड़कर रहोगे? इसलिये जहाँ रहो,जितने में रहो, पर पूर्णता में रहो।

उनका यह दिया मंत्र तब से मैंने जीवन में अपनाया है,और रेलवे की पिछली बीस साल की नौकरी और अपनी वर्तमान नौवीं पोस्टिंग इन अस्थाई मुद्दों व झंझटों को लेकर कभी कोई अवसाद नहीं हुआ। स्थानांतरण आदेश मिला,बोरिया-बिस्तर बाँधा सपरिवार कूच कर गये,जहाँ जो व्यवस्था मिली एड्जस्ट करके रह लिये,और बाकी सब समस्यायें-बच्चों का स्कूल एडमीसन इत्यादि भी जैसे तैसे निपट ही जाता था।इस तरह इन स्थानांतरणों को लेकर न तो कभी मन में कोई भय या आशंका ही रही, न तो इन छोटी-मोटी अस्थाई असुविधाओं को लेकर मन में कोई तनाव या अवसाद।इसके लिये मैं मिश्रा जी की दी हुई नसीहत के प्रति सदैव मन ही मन आभारी रहता हूँ।

आज एक लम्बे अंतराल के उपरांत हुई हमारी टेलीफोन पर बातचीत में उन्होने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही कि-किसी के कर्तव्य को जब हम अपना अधिकार समझने लगते हैं, खासतौर पर हमारे पारिवारिक सम्बन्धों के परिपेक्ष्य में, तो तनाव व विवाद ही उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ पुत्र पिता का आदर करे ,उन्हे प्रणाम करे यह तो उसका आचरण-कर्तव्य है,किन्तु पिता इसे अपना अधिकार समझता है तो यहीं आपसी व साम्बन्धिक समस्यायें जन्म लेने लगती हैं।हम जब तक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह अपना कर्तव्य समझकर निभाते रहते हैं, तब तक तो सब ठीक व सामान्य चलता है, पर जैसे ही हम इन सम्बंधों पर अधिकार जताने का आग्रह करते है ,समस्यायें व विवाद जन्म लेने लगते हैं। कर्तव्य का निर्वहन समष्टि व सलगाव उत्पन्न करता है,जबकि अधिकार व आग्रह जताना  व्यष्टि व विलगाव उत्पन्न करता है।सलगाव व सहृदयता की भावना ही तो हमारे दैवीय गुण हैं,अन्यथा आग्रह व विलगाव की भावना हमारे आसुरी गुणों का प्रतिनिधित्व करती है।

उन्होने इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुये कहा कि दूसरों, विशेषकर अपने परिवार के सदस्यों व बच्चों के ऊपर अपने विचार, ईच्छा, आकांक्षाओं को थोंपने व इनके ऊपर आग्रह करने के बजाय, प्रत्येक व्यक्ति को उसके नैसर्गिकता में सहज स्वीकार कर लेना ज्यादा कल्याणकारी व सुखदायी है, इससे विवाद व मतभेद तो न्यूनतम होते ही हैं, इससे सबका मूलभूत विकाश भी हो पाता है।

मिश्राजी की कही इन महत्वपूर्ण बातों को सुनने के उपरांत से ही उनपर मेरा मनन जारी है, आशा करता हूँ कि उनकी बातों के सार को ठीक-ठीक समझ व आत्मसात कर पाऊँगा, और मन व चिंतन में दैवीय गुणों की वृद्धि होगी।

करवट लेते रिश्तों के सिरहाने से.......


खाते थे  कसम कल मेरी जो 
अब ढोते  हैं  भारी मन से,
झुकते  कंधों पर, अनमन से,
हम-रिश्तों को सलीबों की तरह।1।

रिश्ते जो फूल से हल्के थे,
खुशहवाओं की तरह जो उड़ते थे,
वे भारी से हो लगते है अब
भीगी रुई के  बंडल की तरह।2।

संग आम-बगीचे में खेले थे,
संग दौड़े, नंगे पाँव पतंगे लूटीं,
अब वे और मैं मेले में खोये,
बन राहगुजर अजनबी की तरह।3।

जिन्हे हिज्जों और पहाड़ों को
सिखाने में मैंने थप्पड़ मारे थे,
उन्हे एक नसीहत भी आज मेरी
लगती है किसी नश्तर की तरह।4।

जिन्हे मुझपर भरोसा था,मेरी
बातों को ऐतिहात समझते थे,
उड़ा, गुम सा हुआ,जाने कब वो
दिली-अपनापन उड़नछूँ की तरह।5।

ऐ वक्त! मिलें तो उनसे कहना
अपने हिस्से की चाकलेट मैं
अपनी जेब में छुपाकर रखता हूँ
अब भी उनके लिये बचपन की तरह।6।

Sunday, October 30, 2011

चटकीली धूप से मेरी नयी जान पहचान....




आज छुट्टी का दिन,
अपराह्न जो घर से बाहर निकला,
दिखी एक चटकीली,खिली,और ताजी सी धूप
अचानक जो हुई उससे मुलाकात,
तो मुझे वह बड़ी नवी नवेली सी लगी,
मेरे मुहल्ले की सड़क पर,
मेरे फ्लैट के उस पार वाले पार्क,
सड़क के किनारे पेड़ों के हरे पत्तों पर,
हँसती,खिलखिलाती,नृत्य करती वह,
गोया मैंने उसे पहली पहली बार,
अपने मुहल्ले में आते,खिलखिलाते देखा है।

मुझसे रहा न गया,पूछ ही बैठा,
कहाँ से आयीकैसे आयीकब आयी?
तो आसमान में चमकते रवि की ओर,
इशारा करते, खिलखिलाते बोली,
वहीं तो है मेरा घर,
सात-अश्वों के रथ पर सवार
अरे मैं रोज तो यहाँ आती हूँ हर प्रभात,
तुम्हारे घर के पीछे वाली झील,
तुम्हारे घर के पिछवाड़े की खिड़कियों,
बाहर खड़े कतारबद्ध वृक्षों की फुनगियों,
तुम्हारे लॉन में फैली घास पर फैली ओस की बूँदों पर,
मैं ही तो चमकती हूँ हर सुबह हीरे की तरह।
तुम्हारे बेडरूम की खिड़की के शीशे के रास्ते,
मैं तो तुम्हारे कमरे में रोज ही सुबह-सुबह आ धमकती हूँ,
इक बिन बुलाये अतिथि की तरह।

फिर उलाहना देते हुये वह उदास सी बोली-
मगर तुम्हे फुरसत हो तब न !
अपने आलस्य,उन्माद, मन की उधेड़बुन से,
अपने लैपटॉप,मोबाइल और टेलीविजन से,
कि मेरे इस चमकते,खिलखिलाते,उजाला बिखरते,
नूर भरे चेहरे को प्रेम से इक बार निहार लेते।
और इस तरह शिकायत करती, झम-झम कदम पटकती,
मुँह फुलाये, बुदबुदाते, बादलों की शाल का आवरण डाल,
मुझपर नाराजगी दिखाते वह दूर भागती ओझल हो गयी।
मैं अचकचाया, उदासमना, एक अपराधबोध लिये,
अपनी हतासा लिये, चुपचाप उसे जाते हुये देखता रह गया ।

बस उसकी नसीहत भरी बाते, मेरे मन में गूँजती रह गयी हैं,
और इस उदासमन के कोने में एक उम्मीद सी वर्तमान हैं,
कि कल सुबह मुझे जगाने मेरे बेडरूम में
रोज की तरह  जब उसकी दस्तक होगी,
तो मैं उसके चमकते चेहरे को जी भर कर निहारूँगा,
उसकी बाँहों को हौले से पकड़ ,
दूर तक जाऊँगा उसके साथ-साथ टहलते,
घर की झील के उस पार तक।
दूर तक उसकी अगवानी में खड़े मुस्कराते वृक्षों के साथ,
मैं भी उसके फैले आँचल की भीनी-भीनी सुगंध ,
अपने मन-हृदय में आत्मसात कर,
प्रेम-धन्य हो जाऊँगा।

Thursday, October 27, 2011

साथ रहें हरपल जीवनभर……



 विश्वासों के दृढ़ बुनियादों पर
हमने निज प्रिय भवन बनाया।
तिक्त हुआ निज प्रेम भाव क्यों,
दृढ़ विश्वास क्यों छीज गया?

खायी थी मैंने जो कसमें,
खायी थी तुमने जो कसमें
क्या सब झूठे वादे थे वे ,
कि रहते इकदूजे के दिल में?

बिन शर्तों  हम तुमपर मरते
मुझपर तुम मरते बिन-शर्तों
कल तक उभय समाहित थे जो
बटते क्यों हम परतों-परतों?

माना राह कठिन जीवन की
कुछ दुख-काँटे मिले राहों में
प्रेमोष्मा वह भूल गये हम
जब सुख से पिघले थे बाहों में?

तुम मेरे अधरों की भाषा,और
मैं जाना तव नयन इशारे।
वह संवाद कहाँ खो-ओझल
क्यों अब मौन शब्द है सारे?

दिल पर हाथ रखा प्रिय मैंने
हूँ तेरी ही प्रतिध्वनि सुनता।
जीवन-साँसों की यात्रा में
तुझको ही गतिमय हूँ पाता ।

हर चलती श्वासों से दोनों
पुनः करें यह संकल्प अमर।
निजविश्वास के प्रेम-भवन में
साथ रहें हरपल जीवनभर।


  



  

Wednesday, October 26, 2011

हे दीप-प्रकाश !





हे दीप-प्रकाश!

हे शुभ-प्रकाश!

जीवन का पथ आलोकित

करते तुम, मेरे प्राण-आश
हे दीप प्रकाश

रवि जब विश्रामगमन होता,
शशि जब शाम बहक जाता,
तारे भी आकुल हो उठते,
तम-असुर निगलता जगत को जब,
तुम प्रभु-अवतार ज्योतिमय बन
उद्धार जगत का करते हो।
देते जग को जीवन-प्रभाष,
फैलाकर तव कोमल प्रकाश।
हे दीप प्रकाश।

तव ज्योति नृत्य का दर्शन कर,
जग आनंदित हो उठता है।
तुम समूह बन सजते जो,
घर-घर दीवाली-मय होता है।
तुम बल खाते,नाट्यम करते,
जग-सुख को इतराते बहलाते।
लाते जीवन में स्मित और हास,
बनकर तुम उत्सव प्रकाश।
हे दीप प्रकाश।

हे दीप मेरे!शुभ दीप मेरे!
साँसों-प्राणों की ज्योति मेरे!
तुम हो तो जीवन आलोकित है,
तुम मौन मेरा अस्तित्व व्यथित है।
जलते रहना सदैव प्रिय तुम।
मेरे मनहृदय में आवासित हो
स्निग्ध,शांत,करुणामय,विह्वल,
तेरा यह धवल चिर प्रकाश।
हे दीप प्रकाश।  

कर रहा अभिषेक इस त्रिभुवन जगत का.......


मैं नियति के भाल पर शिव तिलक बनकर
कर रहा अभिषेक इस त्रिभुवन जगत का।
सप्त धनुषी तूलिका ले मृदुल कर में ,
लालिमा से रंग रहा मैं सुपटल क्षितिज का।1।

पर फैलाये हरितवन,गह्वर अमर दल
बलभुजा से शीतल सुरभि के चँवर देता
चाँदनी की बह रही शीतल मधुर सरि,
शशिकलाओं की तरंगिनि को सहज पतवार देता ।2।

कमनीय वीणा बन हिमालय कस रहा
निज तंतुओं की रास को धुन पर सजाते
वादियों से हैं गुजरती कामिनी, चंचल सरित
धवल तन से केलि करतीं, प्रणयसुर में गीत गाते।3।

सूर्य-कर-राशि-साधन कर रहा मैं सारथी बन,
हाँकता हूँ सूर्य-रथ को मैं अथक निरंतर।
ऊंकार के अनुनाद से, करतल थाप से मेरे,
कंदुक सदृस यह नृत्य करती धरा गुरुतर।4।

Monday, October 24, 2011

तुम युग पुरुष हो....


(मेरी यह कविता उन महानुभावों को समर्पित है जो आज के जारी देशव्यापी आंदोलन के शिरमौर हैं, और जो स्वयं को युगपुरुष मानते हैं।)

तप्त अग्नि में जलो
स्वर्ण से कुंदन बनो।
निस्पृह रहो, निःस्वार्थ हो,
निष्काम तप योगी बनो।
तुम युगपुरुष हो।1।

तुम प्रश्न करते विश्व से तो
विचलित न हो खुद प्रश्न से।
जो उपदेश देते पार्थ को तो
बनो सारथी तुम कृष्ण से।
तुम युगपुरुष हो।2।

उदाहरण जो देते नीति का
न्याय का, आचार का।
प्रस्तुत उदाहरण प्रथम बनो
खुद आचरण-व्यवहार का।
तुम युग पुरुष हो।3।

बोझों तले हम सब दबे हैं,
पाखंड के, बहुवाद के।
अनुशासित करो स्वविकार तुम
आचरण प्रवचन विभेद के।
तुम युगपुरुष हो।4।

भवन-नींव,वट-वृक्ष बीज
करते न दंभाडंबर प्रदर्शन।
आधार बनते,स्वरूप देते
हो धरा में समाधिस्त-मौन।
तुम युगपुरुष हो।5।

बनो ज्ञेय तुम अविकार बनो,
करो स्नेह तुम सत्कार करो
संयम रखो,सक्षम बनो
प्रेमोदार तव व्यवहार हो।
तुम युग पुरुष हो।6।

Sunday, October 23, 2011

समय की वह धार हूँ मैं.......


खींचता प्रस्तर-पटल पर अमिट रेखा,
समय की वह धार हूँ मैं।



मन जलधि को मथ रहा ज्ञान वासुकी से
मस्तिष्क का चिंतन-विचार हूँ मैं।

वेदना के बादलों की कोख में घनीभूत हो,
नयन से छलकी  हुई अश्रु-बूँद हूँ मैं।



वादियों के शोर और तूफान से निरा अपरिचित,
खामोश सी कोमल तरंगित शीतल वात हूँ मैं।

युग-युगों की वेदना से मनुजता जो चित्कार करती,
अनसुनी,दिल में दबी वह आह हूँ मैं।



चल रहा कृत्य-अपकृत्य का संघर्ष निरंतर
मनुजता को खे रहा पतवार हूँ मैं।

Saturday, October 22, 2011

हर वादी में मोती बिखरे हैं...


जो मुरझाये,मलीन से सकुचे थे,
वे प्रात: किरणों में खिल-निखरे हैं।
रखना सहेज हर जर्रे को
हर वादी में मोती बिखरे हैं।1।

जिनको देखा था खुली आँख
अब वे ही सच्चे सपने हैं।
जिनको नजरअंदाज किया मैंने,
तंगहाल दिनों में वे  अपने हैं ।2।

जो मौन म्यान में सदियों से,
हथियार चमकते फड़के हैं।
जो बुझकर राख बने थे कल
वे शोले बनकर भड़के हैं।3।

कल दर से खाली लौटाये थे,
वे आज सजा सिंहासन देते हैं ।
जो साने पर हाथ न देते थे,
अब बाहों में भर लेते हैं।4।

खामोश अनसुने थे जो कल
वे अब आवाज बुलंदी नारे हैं।
हासिये पर जो बैठा तनहा था
कारवाँ बना संग सारे हैं।5।

इतिहास लिखा करते थे जो कल
इतिहास खुद बन गये आज
खुद जो बाजशिकारी बनते थे
चूहा बने, चोंच में लिया बाज।6। 

जो गूँथ रहा है मिट्टी को
खुद को मुशव्विर समझता है।
इक दिन गूथेगी मिट्टी हमको
'फक्कड़' कबीर यह कहता है।7।



Wednesday, October 19, 2011

कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को ?


सूर्य के आतप से वाष्पित जो,
जलधि से उच्छ्वासित हो,
करती वह संवेग उर्ध्व अनंत-यात्रा,
शून्य-आलिंगन-प्रेम में द्रवित वह
जलद का करती धारण स्वरूप ,
और अपने प्रेममद के भार से,
बूँद बन निकलती वह
एक और विरह यात्रा पर,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को ?



होती वह बूँद समाहित क्षुधित धरा में
और स्थापित होती उसके जल-गर्भ में,
प्रवाहित होती बन पाताल गंगा,
या प्रस्तरों के हृदय के शिराओं से मौन प्रवाहित हो
धारण कर लेती झरने का स्वरूप
और निस्तारित हो धारा में
बनती वह नदी का प्रवाह ,
एक संघर्षमय यात्रा की नियतिस्वरूप
मिलती वह अगाध जलधि में,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को?

मानों भावनाओं का तप्त उद्वेग हो
मन मे घुमड़ आये अनगिनत
वेदनाओं के गम्भीर बादल,
द्रवित हो जलबूँद बन
नयनों से बह निकली
धारा है आँसू की
कपोलों के पथ से
निभाने इक उदास
किंतु अविरल निरंतरमय यात्रा,
सिसकियों के मौन में
अनुनादित यही वेदनाध्वनि कि,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को?


Saturday, October 15, 2011

देने का सुख


मेरे सहकर्मी व प्रिय मित्र श्री प्रवीण पाण्डेय जी से सौभाग्यवश प्राय: जीवन के विभिन्न विषयों पर विशेष चर्चा व विचार आदान-प्रदान का सुख मिलता रहता है। कल बातचीत में ही उन्होंने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि- पितृत्व यानि किसी का पालन-पोषण व उसे शिक्षित कर मूल्यपरक जीवन जीने योग्य बनाना हमारे जीवन का श्रेष्ठतम् कर्तव्य-निर्वाह है।उनका यह चिंतन-प्रेरक विचार सुन, मेरे मन में कुछ खास विचारदृश्य मनपटल पर सहसा जागृत हो आये।


मेरा अनुभव है कि कुछ व्यक्तियों से मिलना या उनका दर्शन एक विशेष प्रकार की शांति,संतुष्टि व एक आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है- जैसेः अपने अबोध शिशु की देखभाल,उसके सुकुमार शरीर की सुश्रुषा व क्षुधा-पूर्ति में एकाग्रचित्त उसकी माँ, अपने छात्रों के प्रति सहृदय व पूर्ण समर्पित कुछ अध्यापकगण, मंदिर,चर्च या गुरुद्वारे के कुछ पुजारी , अपने मरीजों के प्रति पूर्ण समर्पित व सहृदय व आत्मीय कुछ डॉक्टर ।

इनसे मिलकर व इनके चेहरे पर दृष्टिपात करते ही ऐसा अनुभव व चुम्बकीय आकर्षण उत्पन्न होता है, मानों बस स्वयं ईश्वर से ही साक्षात्कार हो रहा है। इन व्यक्तियों की स्वच्छ आखों में एक विशेष प्रकार  का प्रकाश जो करुणा,प्रेम व संतोष की सम्मिलित शीतल चंद्र किरणों की आभा व शांति लिये होता है,इतनी आत्मीयता प्रदान करता है कि बस निगाहें इनके चेहरे से हटना ही नहीं चाहतीं.और मन  उनके इस दर्शन में इतना आत्मसात हो जाता है कि बस यही कामनामय हो जाता है कि यह दर्शन लगातार सामने बना रहे , कभी भी सामने से ओझल न होने पाये।कभीकभी तो झेंपने की स्थिति तक मैं एकटक इन व्यक्तियों के दर्शन होने पर उन्हे निराहने में आसक्त हो जाता हूँ।

तो प्रवीण जी के विचारों और मेरे इन विशेष व्यक्तियों की दर्शन से उपजी अनुभूति में एक विशेष सामंजस्य यह अनुभव होता है कि नि:स्वार्थ भाव से ,बिना किसी अपेक्षाभाव के सेवा,सुख या अन्य की जीवन-आवश्यक-आवश्यकताओं को पूरा करने का कर्तव्य निर्वाह ही श्रेष्ठतम् है, व इसका निष्पादन करके हमें अद्भुत संतुष्टि,आत्मिक शांति व एक आध्यात्मिक सुख मिलता है।

इस परम दैवीय सुख की प्राप्ति से हमारा रोम-रोम,शरीर की प्रत्येक कोशिका पुलकित व प्रफुल्लित हो उठती है,जिसकी आभा व कांति हमारे चेहरे पर प्रतिबिंबित हो जाती है।यही कारण है कि ये प्रासंगिक व्यक्ति विशेष आभा व प्रदीप्त मुखमंडल युक्त होते हैं, व इनसे मिलना व दर्शन शांति व अति प्रसन्नतादायक होता है।

जब निःस्वार्थ देने की प्रवृत्ति से कोई कर्तव्य निर्वाह होता है, तो स्वाभाविक रूप से उसमें शुभता व सुंदरता आ ही जाती है- यही कारण है कि हरे भरे छायादार व फलदार वृक्ष,बाग में खिले सुंदर व सुगंध बिखेरते रंग-बिरंगे पुष्प,खेत में लहलहाती फसलें, स्वच्छ नीर वाली बहती नदी,क्षितिज पर उदित हो रहा रवि,या पूर्णिमा की रात में धवल चाँदनी बिखेरता चंद्रमा हमारे लिये सुंदरतम्,मनोहरतम् ,व सुख-शांति की पराकाष्ठा प्रदान करने वाले दृश्य होते हैं।शिव का भी सुंदरतम् रूप इसी लिये माना गया है कि वे सबसे उदार होकर हमारी कामनापूर्ति करते हैं।

ईश्वर हमें निरंतर देते रहने, जीवन में हमें प्राप्त हुये शुभ प्रसाद को सबमें बाँटते रहने, की अक्ष्क्षुण क्षमता व सुख से सम्पन्न रखे, यही हार्दिक मनोकामना व प्रार्थना है।