Tuesday, December 4, 2012

चरित्र व नैतिकता के चरित्र (Characteristics) – स्थाई (Immutable) या परिस्थितिजन्य(Circumstantial)?

प्रबंधन गुरु नितिन नोहरिया - फैकल्टी डीन, एच.बी.यस.
हाल ही में माह अक्तूबर 2012 की Business and Economy पत्रिका में श्री नितिन नोहरिया,विश्वप्रसिद्ध प्रबंधन गुरु व हार्वर्ड विजनिस स्कूल के वर्तमान डीन, का एक लेख How to Build Responsible Business Leaders? को पढ़ने का अवसर मिला जो प्रबंधन विज्ञान में चरित्र व नैतिकता से संबंधित वर्तमान चुनौतियों व विगत  में प्रकाश में आयी व्यवसाय जगत में कुछ  उथल-पुथल भरी घटनाओं के परिपेक्ष्य में अति सामयिक व विषयसंगत  है।

इस लेख द्वारा लेखक ने चरित्र व सदाचार के संबंध में हमारे पूर्वाग्रह व गलत धारणाओं पर प्रकाश डालते हुये , इस विषय में विभिन्न अध्ययनों द्वारा प्राप्त नतीजों के आधार पर वास्तविक तथ्यों को सामने रखने व नेतृत्वकर्ताओं द्वारा इस संदर्भ में सही सोच व धारणा को अपनाने व इसके माध्यम से संस्थानों में स्वस्थ व सकारात्मक वातावरण बनाते हुये कार्यउत्पादकता व दक्षता को बढ़ा सकने की बात कही है।

जब भी किसी नेतृत्वकर्ता,राजनीतिक ,व्यवसायिक, आध्यात्मिक या चाहे कोई भी अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र होका कोई कदाचार व नैतिकता के विरुद्ध कोई कार्य या क्रियाकलाप प्रकाश में आता है, तो प्राय: हमारी सामान्य प्रतिक्रिया यही होती की है वह व्यक्ति चरित्रहीन या खोटे आचरण का व्यक्ति था, इसीलिये उसने ऐसा दुष्कर्म या कदाचार किया।

लेखक का कहना है कि  यह तो दुनिया का चलन है कि हम संसार को दो हिस्से में बाँटने का प्रयाश करते है- एक तरफ अच्छे लोग,जो  स्थाइत्व व सदाचारपूर्ण जीवन जीते है व जिनका जीवन की कठिन परीक्षा व परिस्थितियों  में भी चरित्र अडिग होता है, व दूसरी तरफ बुरे लोग,जो अपने जीवन के कठिन परीक्षा व विषम परिस्थितियों  में अक्सर अपने चरित्र से फिसल जाते हैं।

हमारी इस प्रकार की बनी अवधारणा के अंतर्गत मनुष्य का चरित्र,चाहे अच्छा हो अथवा बुरा, और जो बचपन में पारिवारिक व मातापिता से संस्कारगत प्राप्त होता है, अपरिवर्तनीय होता है ।हमारी सामान्य धारणा है कि मनुष्य का रित्र अंतर्निहित होता है व जीवन में किसी विषम परिस्थिति में वहीं उजागर होकर धरातल पर आ ही जाता है।परंतु लेखक की मान्यता है कि यह अवधारणा त्रुटिपूर्ण है।इनके अनुसार तो मनुष्य के चरित्र का विकास भी मनुष्य  की बुद्धिमत्ता,सूझबूझ व किसी अन्य अर्जित कुशलता, व उनके आजीवन क्रमिक विकास प्रक्रिया के समान ही,  निरंतर व आजीवन विकसित व परिष्कृत होता रहता है।

जन-सामान्य धारणा के विपरीत चरित्र द्विचर(Binary) नहीं है।संसार को अच्छे-बुरे के दो धड़ में बाँटना कतई संभव नहीं,बल्कि अधिकांश मनुष्यों का चरित्र व आचरण,अच्छा अथवा खराब, परिस्थितिजन्य व हालात के संदर्भ में होता है।लेखक ने एक अति महत्वपूर्ण बात यह कही है कि प्राय: लोग अपने चरित्र की क्षमता का अति-प्राक्कलन,वास्तविकता से ज्यादा आकलन कर बैठते हैं,नतीजतन चरित्र के निर्धारित मापदंडों पर हम खरे नहीं उतरते तो अच्छे-बुरे की मुहर लगाने लगते हैं।

इस संदर्भ में लेखक ने अमरीकी विश्वविद्यालयों में किये गये कुछ अध्ययनों का भी उद्धरण दिया है।दो मुख्य अध्ययन जिसमें एक है प्रिन्स्टन युनिवर्सीटी में किया गया Good Samaritan Experiment व दूसरा है येल युनिवर्सीटी में किया गया Milgram Experiment.

प्रथम प्रयोग में करीब 70 धर्मशास्त्र के छात्रों को कई समूहों में बाँटकर एक दूसरे के ग्रुप को संक्षिप्त वार्ता प्रस्तुत करनी थी।आधे छात्रों को आध्यात्म के कैरियर संभावनाओं पर वार्ता देनी थी व आधे छात्रों को परकल्याण के दृष्टांतो पर।छात्रों को युनिवरसीटी में वार्ता हेतु निर्धारित कक्ष तक पहुँचने हेतु मैप उपलब्ध करा दिया गया व उनमें से कई को यह भी ऐतिहात कर दिया गया था कि वे वार्ता के निर्धारित सीडूल से लेट हैं अत: अपने निर्धारित कक्ष तक पहुँचने में शीघ्रता करें,कुछ को अलग से बता दिया गया कि अभी उनके पास अतिरिक्त समय है व अपनी सहूलियत से कक्षा में पहुँच सकते हैं।उनके जाने के रास्ते में एक बूढ़ा घायल दर्द से कराहता मदद माँग रहा था।अध्ययन का प्रश्न था कि क्या ये छात्र घायल व लाचार बूढ़े की सहायता करेंगे।अध्ययन में पाया गया कि जिन्हे निर्देश था कि वे कक्षा के लिये लेट हैं उनमें से केवल 10 प्रतिशत लोग बूढ़े की सहायता हेतु रुके,आध्यात्म कैरियर संभावना वार्ता ग्रुप के छात्रों में केवल 30% ही बूढ़े पर तवज्जो डाली अन्यथा तो अधिकाँश उसे अनदेखा किये चले गये,इसी प्रकार परकल्याण दृष्टांत वार्ता समूह के 50 प्रतिशत बूढ़े की सहायता हेतु बिना कक्षा-वार्ता की परवाह किये रुके।इस प्रकार इस अध्ययन के यह निष्कर्ष निकला कि एक ही समूह के छात्र जो सच्चरित्र हेतु वाकायदा प्रशिक्षित हैं  व जिनमें सच्चरित्र की स्थापना व स्थाइत्व सामान्य से ज्यादा अपेक्षित है, वे भी विषम व तनाव की परिस्थितियों में अपने अपेक्षित आचरण व चरित्र में कमजोर व्यवहार करते पाये गये।

दूसरे अध्ययन में कुछ लोगों को अध्यापक की भूमिका में कुछ छात्रों,जो वस्तुत: व्यावसायिक अभिनयकर्ता थे,को पढ़ाने का कार्य दिया गया,जिसमें छात्रों को वर्तनी के कुछ नये शब्द सीखने थे।अध्यापकों व छात्रों को अलग-अलग कक्ष में रखा गया जिससे एक दूसरे को देख नहीं सकते थे किंतु एक दूसरे की आवाज स्पीकर के माध्यम से सुन सकते थे।अध्यापकों को निर्देश था कि जब भी कोई छात्र वर्तनी सीखने में गलती करता है,तो अध्यापक एक डायल घुमाकर छात्र को बिजली का झटका देंगे।हर अगली गलती के लिये बिजली के करेंट को बढ़ा दिया जाता।वस्तुत: किसी को भी कोई वास्तविक बिजली का झटका नहीं दिया गया पर अध्यापक जैसे ही डायल घुमाकर करेंट बढ़ाते,अभिनय करते छात्र जोर से बिजली का झटका लगने का ड्रामा करके जोर से चीखते व दीवार से सिर मारते।बहुत से अध्यापक बिजली का बढ़ा झटका देने व छात्रों की दर्दभरी चीख सुन असहज अनुभव करते व छात्रों को यातना स्वरूप बिजली का झटका बढ़ाने से इंकार कर देते,किंतु उनको यह नसीहत देने पर कि यह उनके ड्यटी का हिस्सा है,वे छात्रों को बिजली का झटका देना जारी रखते।इस प्रकार इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अपने कर्तव्यवोध व ऊपर से मिले हुये निर्देशों के अनुपालन के दृष्टिगत लोग कोई जघन्य व अमानवीय कार्य भी कर सकते हैं,जो उनका सामान्य चरित्र व आचरण नहीं भी हो सकता है।

ऊपर वर्णित दोनों अध्ययन हमें यह स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य का चरित्र व आचरण बहुधा परिस्थिति जन्य होता है।अत: सामान्यअवधारणा के आधार पर अच्छे चरित्र के लोग अथवा बुरे चरित्र के लोग के दो दृढ़ समूह में लोगों को बाँटकर देखना एक अतिवादी व सत्य से परे का दृष्टिकोण है।

यथार्थत: हमें यह समझने की जरूरत है कि जहाँ नेतृत्व द्वारा लोगों को उनके यथास्थिति रूप में बिना किसी अच्छे या बुरे की ब्रांडिंग किये स्वीकार करते हैं,लोगों को उनकी गलतियों को मानवीय भूल समझते हुये अपनी भूल को सहज स्वीकार कर लेने का उपयुक्त ,एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक सुरक्षा, वातावरण दिया जाता है, उस संस्थान अथवा निकाय में स्वाभाविक रूप से लोगों की पारस्परिक विश्वसनीयता व कार्यदक्षता उच्चकोटि की होती है बनिस्बत कि ऐसे संस्थान जहाँ लोगों की गलतियों के लिये नेतृत्व द्वारा उनको अस्वीकार किया जाता है,उन्हें सच बोलने व अपनी गलतियों को स्वीकारने पर सजा का भय होता है,वहाँ अविश्वसनीयता पनपती है,पारस्परिक असहयोग व द्वेष बढ़ता है,व ऐसे में स्वाभाविक है कि संस्थान या निकाय की कार्यदक्षता धराशायी होता है

इस प्रकार जब किसी संस्थान या निकाय के नेतृत्वकर्ता जब अपनी टीम के लोगों को यह  मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थ होते हैं,तो सामान्यतया उपरोक्त वर्णित अध्ययन में पाये गये तथ्यों के अनुरूप ही लोग अपने अंतरात्मा की आवाज सुनने व सही-गलत के निर्णय हेतु अपने विवेक का इस्तेमाल करने के बजाय ऊपर से प्राप्त निर्देश पालन के आवरण में अपने सामान्य व अपेक्षित चरित्र व आचरण के विपरीत,अवांछनीय व्यवहार करते हैं ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे संस्थानों व निकायों, विशेषकर हमारे सरकारी संस्थान,अपने कर्मचारियों,लोगों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा का वातावरण प्रदान करने की अपनी असमर्थता के कारण उनको अपने कार्य के प्रति प्रोत्साहित करने  व कार्यदक्षता स्थापित करने में भारी विफलता मिलती है व हमारे निकाय व संस्थान सकारात्मक प्रगति व कार्यदक्षता की उपलब्धियाँ प्राप्त करने में बुरी तरह विफल सिद्ध हो रहे हैं।

इसीलिये लेखक के ही शब्दों में- जिम्मेदार नेतृत्व को सदैव अपने कर्मचारियों द्वारा हकीकत में सामना होने वाली परिस्थितियों व प्रलोभनों का भान व इनके प्रति जागरूकता होनी चाहिये।इसलिये उन्हें हमेशा ऐसे निकाय व संस्थानगत-चरित्र के निर्माण करना चाहिये जिसमें सभी को अच्छे आचरणशीलता हेतु प्रोत्साहन व पुरस्कार प्राप्त होता हो, जहाँ लोगों को निर्भीकता पूर्वक , बिना किसी आशंका के, अनुचित व अनैतिक कार्य व आचरण के विरुद्ध स्पष्ट बोलने व मना करने की आजादी हो। हममें से अधिकांश,जिन्हे अपने चरित्र व आचरण पर अति व जरूरत से ज्यादा विस्वास होता है, को यह समझना चाहिये कि यह हमारा मिथ्याभिमान है व यह हमारे विनाश का कारण बन सकता है। आशा है कि यह नव-विवेक व जागृति सभी नेतृत्वकर्ताओं में विकसित होगी व जिससे सभी प्रकार के निकाय व संस्थान, वह चाहे राजनीतिक हों या व्यवसायिक या आध्यात्मिक,सबमें विकसित होगी व इसमें सबकी बेहतरी निहित है।  


7 comments:

  1. सतत संवाद से बड़ा कोई प्रबन्धन नहीं।

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  2. सतत संवाद से बड़ा कोई प्रबन्धन नहीं।
    शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  3. देवेन्द्र जी, एक उपयोगी तथा सूचनाप्रद लेख के लिए धन्यवाद!
    साभार

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  4. शब्दों की जीवंत प्रस्तुति,,,उम्दा आलेख,,,बधाई,,

    recent post: बात न करो,

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  5. जिम्मेदार नेतृत्व को सदैव अपने कर्मचारियों द्वारा हकीकत में सामना होने वाली परिस्थितियों व प्रलोभनों का भान व इनके प्रति जागरूकता होनी चाहिये। bahut accha

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  6. सभी को अच्छे आचरणशीलता हेतु प्रोत्साहन व पुरस्कार प्राप्त होता हो, जहाँ लोगों को निर्भीकता पूर्वक , बिना किसी आशंका के, अनुचित व अनैतिक कार्य व आचरण के विरुद्ध स्पष्ट बोलने व मना करने की आजादी हो।

    ....बहुत सच कहा है.बहुत सारगर्भित और रोचक आलेख...

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