मेरी एक फेसबुक मित्र , जिनकी फेसबुक पोस्ट से उनके उच्चकोटि के ज्ञान व विद्वत्ता झलक मिलती है , ने आज एक बड़ी रोचक बात लिखी कि किस प्रकार फिल्में उनको अपने जानकारी को निखारने व बहुत सी महत्वपूर्ण बातों व तथ्यों को बेहतर ढंग से समझने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आयी हैं ।
अपने मन की बात साझा करते उन्होंने लिखा है कि कई मामलों में उनकी जानकारी कम थी , वे अबोध थीं , उनके मन में तमाम बातों को लेकर बड़ी भ्रांतियाँ थीं , परंतु कुछ खास तथ्यपरक अच्छी फिल्मों को देखकर उनकी विभिन्न विषयों में जानकारी बढ़ी और उनके मन की तमाम भ्रांतियाँ दूर हुईं । वे कई फिल्मों को अति प्रेरणादायी भी पाती हैं , जो जीवन में , विशेषकर किसी चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में , कई बार सही राह दिखाती हैं । उदाहरण के लिये उन्होंने कई उच्चकोटि की अंग्रेजी फिल्मों जैसे राबर्ट ब्राउनी जूनियर की चैपलिम , विल्स स्मिथ की एरिन ब्रोकोविच, लाइफ इज़ ब्यूटीफुल, फ्रीडम राइटर्स, कॉनविक्शन, द ऑवर्स, अ ब्यूटीफुल माइंड, कास्ट अवे जैसी तमाम फ़िल्में के नाम उद्धृत किये जो रियल-लाइफ़ कैरक्टर पर आधारित हैं, और उनके विचार से ये फिल्में उनकी आधारित किताबों से भी अधिक जानकारी दायक व प्रेरणादायी हैं ,और इनमें निहित विचार व भावनाओं को उस रफ़्तार से क़िताबों के माध्यम से नहीं जिया और अनुभव किया जा सकता है , जितना कि फ़िल्मों के द्वारा सुगमता से संभव हो जाता है ।
वैसे फिल्मों को लेकर उनका दृष्टिकोण भी कोई अपनी बात थोपने , या जानकारी के किसी माध्यम, पुस्तक या कोई अन्य को फिल्मों के बनिस्बत कमतर साब्त करने का नहीं लगता, उनका एक संतुलित दृष्टिकोण है कि यह बहुत कुछ आपकी दिलचस्पी और समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है, और यह बिलकुल वैसे ही है, कि पढ़ाने-समझाने के मेथड स्टूडेंट की समझ के हिसाब से बदल दिए जाते हैं. चुनाव पूरी तरह से जानने वाले के पसंद पर निर्भर करता है।
हालांकि फिल्मों के प्रभावी भावप्रेषण व जानकारी के एक प्रभावी माध्यम के बारे में अपने मित्र के विचारों से आंशिक रूप से अवश्य सहमत हूँ परंतु मेरा मानना है कि पुस्तकें व उनको स्वयं पढ़ना किसी विचार व भावना को समझने , अनुभव करने का सबसे गहरा व प्रभावी तरीका है ।मेरी जानकारी के आधार पर ज्यादातर फिल्में, विशेषकर पश्चिमी जगत की फिल्में , किसी न किसी प्रसिद्ध पुस्तक पर ही आधारित होती हैं , इस प्रकार पुस्तक का स्थान फिल्मों की अंतरनिहित भावना व तथ्य की जननी का है । और प्रायः उच्चकोटि की पुस्तकें पढ़ते समय पाठक की लेखक व उसके चिंतन के साथ एक व्यक्तिगत अंतरंगता स्थापित हो जाती है , किताबे पाठक से अपनी बात कहती, बोलती और अपनी सहज अनुभूति साझा करती हैं , लेखक के विचारों व भावनाओं के साथ निजी संवाद की यह सहजता फिल्म या किसी अन्य माध्यम में संभव नहीं होती ।मेरे विचार से तो पुस्तकों का संवाद आध्यात्मिक अनुभूति के दर्जे का होता है ।
हालांकि मैं मनोविज्ञान व मस्तिष्क के व्यवहार पर कोई इक्स्पर्ट नहीं हूँ . और इनकी बाबत मेरी कोई संस्थागत जानकारी तो नहीं है , परंतु विषय के सीमित जानकारी के आधार पर कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क किसी विचार को अंततः उसके संबंधित चित्र और आकृति के स्वरूप में ही ट्रांसफॉर्म करके समझता है , उदाहरण के लिये क को समझने के लिये क से संबंधित कोई आकृति मन में सहज उभरकी है . हाथी कहते मस्तिष्क में हाथी की आकृति उभर आती है । ( शायद यही कारण है कि एक अबोध शिशु को अक्षर ज्ञान के लिये चित्रपुस्तक का उपयोग करते हैं । ) अतः पुस्तक पढ़ते समय आप स्वयं ही उस पुस्तक के कथ्य विचारों व भावनाओं हेतु अपने मष्तिस्क में एक चित्रपट की रचना करते हैं , एक ऐसा चित्रपट जिसका निर्देशक स्वयं आपका मस्तिष्क ही है , जबकि फिल्म में निहित विचार व भावना आप उसके निर्देशक के सीमीत समझ व निर्देशित विचार व पात्रों द्वारा चरित्र निरूपण की सीमित सहजता से ही देख व अनुभव पाते हैं , इसमें लेखक के साथ व्यक्तिगत तारतम्यता का अभाव हो जाता है। अतः मेरी राय में लेखक के मौलिक विचाार व चिंतन को समझने का सबसे प्रभावी तरीका उसकी पुस्तक को पढ़ने के द्वारा ही संभव है ।उदाहरणार्थ - प्रेमचंद की अमर कृतियाँ गोदान या ईदगाह जितनी प्रभावी पढ़ने में अनुभव होती हैं , उन पुस्तकों पर फिल्में उनको समझने का दायरा सीमित रखती हैं । यहीं बात द बियुटीफुल माइंड और द पर्स्यूट ऑफ हैपीनेस पर भी लागू होता है ।
वैसे जो पाठक मेरी उपरोक्त समीक्षा से असहमत हैं उनकी जानकारी के लिये बताना चाहूँगा कि मेरी व्यक्तिगत सीमित जानकारी और समझ पुस्तक पढ़ने के माध्यम व दायरे में ही ज्यादा सीमित रही है , बनिस्बत कि मेरी सुजान मित्र के फिल्मों को देखने के माध्यम से अर्जित समृद्ध ज्ञान व जानकारी, और मेरे पुस्तक पढ़ने के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण का वजह भी संभवतया यही हो । :-)
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