किसी परिस्थिति , घटना और वक्त को उसके स्वाभाविक तरीके व गति से होने व गुजरने देना चाहिये , न तो उनसे मुँह चुराना और टालमटोल उचित होता है और न ही उनके साथ कोई हड़बड़ी और जल्दबाजी , अलबत्ता यह दोनों ही अतिगामी अंदाज किसी अच्छे व अपेक्षित नतीजे के लिहाज से घातक सिद्ध हो सकते हैं । सुगढ़ व स्वस्थ नदी वही होती है जो अपने स्वाभाविकता के साथ प्रवाह करती हैं , अन्यथा उनका अतिरंजित प्रवाह , ज्यादा ही धीमा अथवा ज्यादा ही तीव्र , उनके स्वरूप व आकार को अनगढ़ व छिन्नभिन्न कर देता है । अतः परिस्थिति व घटना के सामान्य गति व प्रवाह के साथ सहजता से आगे बढ़ना ही उनके साथ मर्यादित निर्वहन और अपेक्षित परिणाम को सुनिश्चित करता है ।
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