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Sunday, November 4, 2012

सुख की रही अतृप्त प्यास अब तक!

अब तक जीवन मृगतृष्णा ही !

मन की अभिलाषायें हैं अनगिनत,
कुछ कामजनित,कुछ क्रोधजनित,
कुछ लोभजनित,कुछ मोहजनित,
रक्तबीज सी,हो रहीं निरंतर जनित।

भागता रहा हूँ इनके पीछे , अनवरत 
बहुकाल से प्यासित विकल मृग सा,
पीता हूँ जो कुछ घूँट इनकी,
कर कर्म कितने निकृष्ट और उच्चिष्ठ,
इस लालसा में ,
कि बुझ सके यह प्यास मन की,
शांत हो ज्वाला तन और मन की।

किंतु यह क्या!
कौन सी यह प्यास है! कौन सी है यह अगन!
जो हो रही है प्रज्वलित और है बढ़ती इसकी लपट,
जितना मैं इसे शांत करना चाहता हूँ।
मानों कर्म मेरे दे रहे हैं आहुति घृत सदृश।

है हो रही अनुभूति अब ,
कि हैं रहे मेरे सब कर्म निरर्थक,
घटती क्या,
बस बढ़ती रही मन प्यास अब तक ।
मेरे इस भटकते मन की अभिलाषाओं के इतर
कुछ और ही है,श्रोत शीतल आनंद का जल,
जिससे शांत हो सकती,ज्वाला तन और मन की,
जिससे तृप्त हो सकती प्यास जन्मों-जन्मांतरों की।

Tuesday, January 24, 2012

अनुभव के चार सोपान- अस्तित्व,अनुभूति,चिंतन और कर्म

डा. दीपक चोपड़ा मेरे कॉलेज के दिनों से ही मेरे प्रिय लेखक रहे हैं। मैंने पहली बार इनकी पुस्तक Return of the Rishi (1989) पढ़ी थी, जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष का छात्र था, और इससे बहुत प्रभावित हुआ था। बाद में इनकी - Unconditional Life: Mastering the Forces That Shape Personal Reality, Ageless Body, Timeless Mind, The Path to Love: Renewing the Power of Spirit in Your Life, Everyday Immortality: A Concise Course in Spiritual Transformation , How to Know God : The Soul's Journey into the Mystery of Mysteries  जैसी अद्भुत पुस्तकों को पढ़ने का सौभाग्य मिला। इन पुस्तकों को पढ़ने से मन व मस्तिष्क को एक नयी सोच व दिशा मिली।

सन् 2007 में इनकी पुस्तक Buddha: A Story of Enlightenment आयी, जो मेरी समझ में महात्मा बुद्ध के जीवन व आध्यात्मिक चिंतन व ज्ञान पर सबसे सुंदर व भावात्मक प्रस्तुति है। मैंने इस पुस्तक को दो-तीन बार पढ़ा है, किंतु मन में इसे दुबारा पढ़ने की उत्सुकता बनी ही रहती है।

डा. दीपक चोपड़ा आजकल जयपुर में आयोजित साहित्य समारोह ( Literary Festival) में भाग लेने भारत  आये हैं । इस समारोह में उनके सम्मान में आयोजित एक विशेष व्याख्यान श्रृंखला ‘The Return of the Rishi’ में कल उनके द्वारा दिया गया व्याख्यान वहाँ उपस्थित श्रोताओं- छात्रों,बुद्धिजीवी वर्गों हेतु एक अलौकिक बौद्धिक अनुभव था। उनके व्याख्यान की रिपोर्ट आज के Times of India में Focus on being, feeling, thinking and doing शीर्षक से छपी है।

डा. दीपक चोपड़ा ब्रह्मांड के हर सत्य की ऐसी अद्भुत व्याख्या करते हैं कि उस सत्य का हर पक्ष स्पष्ट दिखने व समझ में आने लगता है। " यह ब्रह्मांड अरबों आकाश-गंगाओं,खरबों सौरमंडलों से निर्मित है, जिसका हमारा निवास-ग्रह, पृथ्वी, का आकार दशमलव एक प्रतिशत से भी छोटा है, फिर कल्पना करें कि हमारे स्वयं के मानव शरीर का अस्तित्व व आकार इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सामने क्या है भला ? " इससे सुंदर व स्पष्ट व्याख्या हमारे सम्पूर्णता की विशालता  व हमारा स्वयं के शरीर के प्रति मिथ्या अहंभाव की क्या हो सकती है ?

वे बताते  हैं कि हमारा भौतिक शरीर सुपर नेबुला,जाइंट रेड स्टार्स और मृतप्राय सितारों द्वारा पुनर्नवीकृत कार्बन व हाइड्रोजन से निर्मित होता है। हमारा यह भौतिक शरीर निरंतर परिवर्तनशील है,आणविक स्तर पर,कोशिकीय स्तर पर। वे मजाकिया लहजे में बड़ी ही प्रभावी बात कहते हैं कि जब मैं पिछली बार भारत आया था तो मेरा शरीर कोई और था , बस मेरा सूटकेश ही समान था। वे कहते हैं कि केवल हमारी मूल चेतना ही अपूर्व व स्थाई स्वरूप है, हमारी यही मूल चेतना ही ब्रह्म अथवा आत्मा है।

डा. चोपड़ा के अनुसार हमें प्रकृति का सदैव अनुकरण करना व उसका अनुचर होना चाहिये। प्रकृति मौन साधे न्यूनतम और बस आवश्यक क्रियाकलाप करती है। प्रकृति के इस अनुकरण से हम ज्यादा प्रभावोत्पादक बन सकते हैं।जब हमारी क्रियायें शेष हो जाती हैं, तो हम सबकुछ करने व साधने में सक्षम होते हैं।

उनके अनुसार हमें बस अति सक्रियता का शिकार होने के बजाय, हमें अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु अपना सम्पूर्ण ध्यान केंद्रित करना चाहिये। अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु हमें अति सक्रिय होने के बजाय मौन, अंतर्मुखी होना होगा। जब कुछ क्षणों हेतु हम मौन में होते हैं, और उस मौन के प्रति सजग होते हैं, तो हमारा अस्तित्व आभाषित हो जाता है।प्रेम,समभाव एवं आनंद की अनुभूति ही हमारी वास्तविक व सहज अनुभूति है।चिंतन एक रचनात्मक क्रिया है,और कर्म के प्रकार है- राजयोग,कर्मयोग व ज्ञानयोग।

कृष्ण ने भी तो गीता में कर्म की व्याख्या करते हुये कहा है-

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवः।

अर्थात् जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।