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Saturday, November 26, 2011

-गुफ्तगू गुलमोहर के पेड़ के साथ..






मेरे घर के पीछे, खिड़कियों के पार,
झील के किनारे गुलमोहर का पेड़,
आजकल मेरी उससे खूब छन रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।


होती है जब भी हवाओं की आहट
परदों से होती है सुर्ख सरसराहट,
मैं खिसक लेता हूँ ड्राइंग रूम से
किचन की लाँबी से देखता हूँ उसे
हवा में आँचल लहराते बल खाते
मस्त मस्त सी, हर अंग थिरकाते,
जैसे वह सालसा नृत्य कर रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू.............................

घर की छत पर गिरती हुई नभ से बूदें,
झमाझम बारिश तबले की तकधिन धुन दे,
मैं इस धुन को सुनते ही सजग होता हूँ।
भीगती लॉबी में भागता पहुँच जाता हूँ।
खुली बारिश में जो देखता हूँ उसे नहाते हुये,
उसके हरे पत्ते के गालों से मोती ढलकते हुये,
यूँकि कोई अप्सरा बादल के झरने के नीचे नहा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू......................................

मेरे बैठकखाने में एक खास चमक होती है,
बाहर जब भी चटकीली धूप खिलती है।
किचन की खिड़कियों से झाँकती हैं उजली किरनें,
बालकनी में धूप की चमक के मेले का न्यौता देने।
बेपरवाह सी पसर कर बैठी आँचल ढलकाये,
धूप से उसके वदन का हर कतरा यूँ खिल जाये,
गोया सद्यस्नाता अपने गीले बालों को धूप में सुखा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।