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Thursday, September 10, 2015

चोट कहीं और दर्द कहीं.....

(स्केच नंबर १)

ऐ तेज हवाओं!
माना तेरी तो यह फितरत ही है
कि एक सूखे पत्ते को उड़ा देना और पटकना!
मगर अपने इस खिलंदड़ेपन में
बस इतनी सी इंसानियत और जज्बात रखना कि
इस सूखे पत्ते के हालात को देखकर
उस टहनी की आह और ऑसू तो न निकलें!
जिसका यह कभी हिस्सा, लाडला और दुलारा हुआ करता था!

फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

Thursday, March 29, 2012

हवाओं मोड़ लो रुख अपना .............



भीगती रेत के दानों की तरह अहसास मेरे,
कुछ नम से, कुछ अंदर की अगन प्यास भरे,
मेरे जलते हुये वजूद से उठती हुई लौ को ,
यदि वे रोशन चिराग कहते हैं तो उन्हे कहने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख़ अपना कि तनहा मुझे रहने दो।1।

मैंने कब ख्वाइश की कि मुझे कायनात मिले,
उनकी आँखों की चमक में ही मेरे फूल खिलें,
जो उन्हें हकीकत के जहाँ में अब पा न सकूँ,
तो उनके ख्वाबों में ही मुझे चंद घड़ी जी  लेने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।2।

मेरे ही गीत जो हरपल यूँ गुनगुनाते थे,
मेरी हर साँस के संग जो मेरे दिल में उतर जाते थे,
उनके मुख मोड़ने से दिल जो है इक खाली बरतन,
उसमें अब गम औ मेरी आखों की नमी भरने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।3।

आज मेरे गीत का हर लफ्ज उन्हे शोर लगे,
मेरी हर साँस औ आहट में कोई गैर दिखे,
मेरी मुहब्बत मेरी वफ़ा का उन्हे यकीन न रहा,
मुझे समझे हैं बेवफ़ा  तो यही सही, समझने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।4।

Saturday, November 26, 2011

-गुफ्तगू गुलमोहर के पेड़ के साथ..






मेरे घर के पीछे, खिड़कियों के पार,
झील के किनारे गुलमोहर का पेड़,
आजकल मेरी उससे खूब छन रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।


होती है जब भी हवाओं की आहट
परदों से होती है सुर्ख सरसराहट,
मैं खिसक लेता हूँ ड्राइंग रूम से
किचन की लाँबी से देखता हूँ उसे
हवा में आँचल लहराते बल खाते
मस्त मस्त सी, हर अंग थिरकाते,
जैसे वह सालसा नृत्य कर रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू.............................

घर की छत पर गिरती हुई नभ से बूदें,
झमाझम बारिश तबले की तकधिन धुन दे,
मैं इस धुन को सुनते ही सजग होता हूँ।
भीगती लॉबी में भागता पहुँच जाता हूँ।
खुली बारिश में जो देखता हूँ उसे नहाते हुये,
उसके हरे पत्ते के गालों से मोती ढलकते हुये,
यूँकि कोई अप्सरा बादल के झरने के नीचे नहा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू......................................

मेरे बैठकखाने में एक खास चमक होती है,
बाहर जब भी चटकीली धूप खिलती है।
किचन की खिड़कियों से झाँकती हैं उजली किरनें,
बालकनी में धूप की चमक के मेले का न्यौता देने।
बेपरवाह सी पसर कर बैठी आँचल ढलकाये,
धूप से उसके वदन का हर कतरा यूँ खिल जाये,
गोया सद्यस्नाता अपने गीले बालों को धूप में सुखा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।