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Monday, December 10, 2012
Tuesday, November 22, 2011
.......मैं अपनी ही धुन में गाता ।
मुखर मौन, विराम
शब्द जब,
कौन राग मैं गीत सुनाऊँ।
जगत यदि यह है भ्रमपूरित,
फिर किसको मैं सच कह पाऊँ।1।
रीता स्वरूप, आगमन अपूर्ण,
छाया क्या अभिव्यक्ति कहे?
क्रंदन के ऊँचे स्वर,फिर भी
वेदना मेरी अव्यक्त रहे।2।
अधरों का गतिमय होना क्या,
मौन रहे जो नयन तुम्हारे।
कलियाँ खिल सौरभ क्या दें
जो विमुख हुयीं बसंत-बयारें ।3।
संवेदना सहज क्या मिलती,
हृदय शुष्क जो तेरा रहता।
जल के बीच निरा व्याकुल
चातक बस प्यासा ही मरता।4।
नूपुर की घ्वनि में खो जाते
हैं आह वेदना हत-पग के स्वर ।
अंतर्दाह शांत क्या कर पाते
गतिमय वात डोलाते चँवर।5।
आश्वासन अपने क्या देते,
जब शब्द-तीर संघात किये।
कँवच मेरी क्या रक्षा करता,
निज खड्गों ने ही आघात दिये।6।
नियति- दिशा का अनुभव है पर
विषम पथों पर ही मैं चलता।
माना मेरे गीत अनसुने,पर
मैं अपनी ही धुन में गाता।7।
पतित हो रहा स्व-उलझन में ही,
माना मेरा तुम उपहास करोगे।
चोट मर्म से जो आंसू छलके,
(शायद) आँचल से आँसू भी पोंछोगे।8।
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