कल शाम ऑफिस से वापस घर आया तो मेरी पत्नीजी की एक मित्र, जो हमारे ही एपार्टमेंट में ऊपर वाली मंजिल के एक फ्लैट में रहती हैं,पधारी थीं व उनकी मेरी पत्नीजी के साथ कुछ वार्तालाप चल रहा था।इन मोहतरमा के पतिदेव किसी बैंक में कार्य करते हैं व इनके दो छोटे व बड़े ही प्यारे बच्चे हैं। कुछ महीने पहले उनके छोटे बेटे के जन्म की पार्टी में हमलोग सपरिवार आमंत्रित थे और तब उनके घर पहली बार जाना हुआ । उनका विस्तृत व व्यस्थित पुस्तक संग्रह देखकर बड़ा अच्छा लगा व उनकी पुस्तकों व पाठन के प्रति विशेष अभिरुचि जानकर मन बड़ा प्रभावित व प्रसन्न हुआ ।
कल शाम भी वे मेरी पत्नी जी से एक महत्वपूर्ण पुस्तक की ही
चर्चा कर रही थीं जो उन्होने हाल में ही पढ़ी है । वे यह पुस्तक अपने साथ लायी थीं व मेरी पत्नी जी को यह पुस्तक जरूर पढ़ने की
हिदायत देने के साथ
विदा हुईं।उनकी यह आत्मीयता बड़ी अच्छी व सुखद लगी।
यह पुस्तक प्रसिद्ध अमरीकी लेखक व मेटाफिजिक्स विशेषज्ञ लुइस एल हे ( Luiese L Hay) की लिखी तीन प्रसिद्ध पुस्तकों-You can heal your life, Heal your body and The power is within you का संकलन है और यह अपने नाम The Golden Collection के अनुरूप वाकई में ही आत्मग्यान व आत्म समृद्धि व शारीरिक व मानसिक उपचार के परिज्ञान का एक स्वर्णिम संकलन है ।
हालांकि अभी मैंने यह पुस्तक पढ़ना
शुरू ही किया है व इसके कुछ शुरुआती चैप्टर ही पढ़ पाया हूँ, परंतु इस पुस्तक में लिखी
बातें व सुझाव बड़े ही प्रभावी व इसे पढ़ते समय आपके अतर्मन की परत दर परत खुलते से अनुभव होते है ।लेखक ने पुस्तक की भूमिका व
शुरुआती चैप्टर में इस तथ्य को पाठकों की जेहन में स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि
हमारे भूतकाल के विचार ही हमारी वर्तमान स्थिति व हमारे वर्तमान के विचार ही हमारे
भविष्य की स्थिति का निर्माण व निर्धारण करते हैं । इस प्रकार हमारे जीवन में शारीरिक, मानसिक ,आर्थिक अथवा व्यवसायिक जो भी मसले और परेशानियों व फसाद हैं उनके लिये
जाती तौर पर जिम्मेदार हमारे खुद के अपने विचार ही हैं ।
सेखिका मोहतरमा ने अपनी पुस्तक की भूमिका व प्रथम चैप्टर में यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर रचित यह
सृष्टि हमारे विचारों के अच्छे-बुरे
होने की कोई विवेचना नहीं करती, उनपर कोई उचित अनुचित की मुहर
नहीं लगाती, बल्कि वह तो हमारी ख्वाहिस के ही मुताबिक बड़े तठस्थ भाव से एक स्वामिभक्त जिनी के माफिक, ”आपकी ख्वाहिश ही
मेरे लिये हुक्म है
मेरे आका” का मंत्र पढ़ते, उसे पूरा करने में पूरी
ताकत और शिद्दत से जुट जाती है । लेखिका महोदया तो यहाँ तक कहती है कि हम अपनी तकदीर, यहाँ तक कि अपने पैदाइशी हालात,अपने मातापिता का चयन, अपने जीवन के अच्छे बुरे अवसर, सफलता अथवा असफलता सभी स्वेच्छा से अपने विचारों के
अनुरूप ही चुनते हैं । हमारी बीमारी, शारीरिक या मानसिक समस्यायें सबकी जड़ में हमारे खुद के विचार ही है ।हम बीमार भी इसलिए ही होते हैं क्योंकि हम ऐसी ख्वाहिस रखते हैं ।उनके अनुसार तो मात्र
अपने विचार प्रणाली के नियंत्रण से ही हम किसी
भी प्रकार की बीमारी व समस्या से निजात पा सकते हैं ।
लेखिका का यह भी कथन है कि हमारे जीवन की समस्यायों व मिलने वाली अड़चनों का दूसरा जाती कारण है हमारा स्वयं के प्रति प्रेम व सहृदयता का कतई अभाव , जिसके कारण हम प्रायः अवसाद, निराशा व दुख वैसे अंततः किसी गंभीर बिमारी से ग्रस्त होते हैं । लेखिका महोदय ने स्पष्ट व पाठकों को एक प्रकार से ऐतिहात करते हुए लिखा है कि स्वयं से प्रेम का तात्पर्य अहंकार, आत्मश्लाघा अथवा स्वार्थपरता कतई नहीं है, बल्कि ये तो हमारी कमजोरी व भयपरता के लक्षण हैं, बल्कि इसका तात्पर्य आत्म सम्मान व स्वयं के शरीर, मन, विवेक व अपने सद्गुणों के प्रति आत्मकृतज्ञता व स्नेह से है। यह एक प्रकार से हमारी स्वयं के प्रति हमारी अंतर्निष्ठा व सहृदयता से है यानि हमारी निरंतर कृतज्ञता व सहृदयता - अपने शरीर में अंतर्संचालित जीवनप्रकृया व जीवनतंत्र के प्रति यानि अपने शरीर व मन के तंत्र की अद्भुत कार्य प्रणाली व उनके स्वतः संचालन के प्रति,अपने जीवित-प्राणयुक्त होने के प्रति, अपने परिवेश , उसमें उपस्थित हरियाली व जीवन की उपस्थिति के प्रति व उनकी अंतर्निहित सुंदरता के प्रति, ,अपने चारों ओर फैली प्रकृति व इसकी जीवंतता के प्रति ,एक पूर्ण समर्पित कृतज्ञता व सहृदयता का भाव, यही तो है स्वयं से यथार्थ प्रेम ।
इस के विपरीत हमारे अंदर आत्म ग्लानि, अपराध बोध, क्रोध, हिंसा, घृणा
चाहे स्वयं के प्रति
अथवा किसी अन्य के प्रति, का भाव ही
स्वयं के प्रति हमारे प्रेम का अभाव दर्शाता है, परिणाम स्वरूप यह अभाव अंततः हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं, आर्थिक अभाव के रूप में, शारीरिक स्वास्थ्य को अभाव के रूप में, मानसिक सुख व शांति को अभाव के रूप में, जीवन में सुअवसरों व सफलता का अभाव, इस
प्रकार जीवन के विभिन्न पक्षों में ही अभाव के रूप में दृष्टिगोचर व अनुभव होता है
।
लेखक के अनुसार आत्म सम्मान, अपने श्रम व योग्यता का सही
मूल्यांकन, व आत्म विश्वास भी स्वयं के प्रति प्रेम व सहृदयता के प्रमुख व उतने ही महत्वपूर्ण अंग हैं । लेखक ने उदाहरण द्वारा यह
स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार बड़े योग्य व प्रतिभासंपन्न व्यक्ति
भी अपनी योग्यता व प्रतिभा को समुचित सम्मान न देने के कारण प्रायः अपने जीवन में यथोचित
सफलता से वंचित रह जाते हैं।लेखक के अनुसार स्वयं के योग्यता व मूल्य की अवहेलना भी एक प्रकार से हमारा स्वयं
के प्रति प्रेम व सहिष्णुता का अभाव ही दर्शाता है, जो पुनः हमारे जीवन विभिन्न
प्रकार के अभावों व समस्याओं के रूप में अंततः परिलक्षित होता है।
इस प्रकार लेखक का यह स्पष्ट सुझाव है
कि अपने भाग्यविधाता हम स्वयं हीं हैं, साथ ही साथ अपने शारीरिक
स्वास्थ्य के साथ अपने जीवन में यदि हमें निरंतर सुख और समृद्धि को सुनिश्चित करना है तो हमें
प्रथमतया स्वयं से प्रेम व सहिष्णुता रख कर जीना सीखना होगा । यही जीने की कला है ।
(सभी चित्र गूगल के सौजन्य से)
इस सिद्धान्त को पूर्णतया स्वीकार करता हूँ, मैं भी। जो हूँ, वह मेरा ही किया धरा है और जो आज कर रहा हूँ, वही मेरा कल भी बनायेगा।
ReplyDeleteयही सत्य है कि अपने भाग्यविधाता हम स्वयं हीं हैं,
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
यह सही है कि हम जैसा चाहते हैं .. वैसा करते हैं और वैसा फल मिलता है .. पर प्रश्न एक उपस्थित हो ही जाता है कि हम वैसा चाहते क्यों हैं ??
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