Thursday, November 24, 2011

......फूलों को भी पत्थर बनते देखा है।


मैंने फूलों को भी पत्थर बनते देखा है,
पानी से भी लोहे को छिजते देखा है,
रहता हूँ मैं भी तो पत्थर के ही घर में,
पर इसको भी शीशे सा ढहते देखा है।1

रामायण भागवत पुराण, भरथरी कथा
बैताल पचीसी, पंचतंत्र और प्रेमचंद ,
सुनता आया इतनी सारी कथा कहानी 
अब खुद को ही एक कहानी बनते देखा है।2

लैला मजनू, शीरी फरहाद, जूलियट रोमियो
मुमताजों के ताजमहल बनते आये  हैं क्यों?
प्रेम कहानी में दोनों एक दूजे में खोते थे,पर
(अब) तितली को भी  फूलों को ताने  देते देखा है।3

पूर्णिमा शशि,कामधेनु,स्वाती नक्षत्र श्यामल सुमेघ,
केतकी पुष्प,रक्ताभ पद्म,प्रात: ओशों से ढकी दूब,
कहते हैं इन सबसे शीतल अमृत झरते रहते हैं,
पर अब तो मैंने  बादल से तेजाब बरसते देखा है।4

ये शीतल मंद हवायें,चंपा की सुरभि बयारें,
ये कलियों का खिल जाना,फूलों का मुस्काना,
कल तक जो थे मौनशांत जीते थे सायों के पीछे,
उनको अब रवि के रथ का संचालन करते देखा है।5

छुइमुई,जूही की कली,तितली के पंखों पर रंगकनी,
पंखुड़ियों के नाजुक तन पर धीरे सेँ अंगुली फेरी,
जो ऊष्ण किरण-लपटों से फूलों की तरह कुम्हलाते थे,
आज उन्हे भी दिप्तांगारों पर नाट्यम करते देखा है।6।

माँ की थपकी,बापू की स्वीकृति,भाई से छीनाझपटी,
प्रिय का आमंत्रण, वे नयन मिलन,दिवसरात्रि का सम्मेलन,
जो सब कुछ कह जाते थे पलकों के एक इशारे से,
उनको भी अब लफ्फाजों से  शोर मचाते देखा है।7

धर्मसूत्र और स्मृतियाँ कहती हैं भेदविभेद नियम,
जीवन जीने के सदाचरण,कितने ही सारे यज्ञहोम ,
जीवन भर जिन दुर्गों की हरहाल मरम्मत करते थे,
ऊंची इन प्राचीरों को निज हाथ ढहाते देखा है।8।

दीनदु:खी लाचार निबल दुनिया के सारे दुख उनके,
उनकी खाली है मुट्ठी फरियाद कहें भी तो किससे,
जन्मों की पीड़ा को वे करते हृदय गर्भ में धारण,
शांतमुखी जो थे शदियों से,अब आग उगलते देखा है।9

दो गज कपड़े,तुलसी के दल,गंगा की अमृत जलबूदें
ये तो हैं बस अंतगति,जीतेजी ये कब मिल पायीं।
जो मेरी राह बचाकर गुजरे,वे ही मेरे महाप्रयाण पर,
रामनाम को सत्य बताते,अर्थी को कंधा देते देखा है।10

Wednesday, November 23, 2011

मैं और मेरी परछाईं।


उनको जो एतराज कि मैं
यारों की महफिल जाता हूँ।
मैंने भी सब तोड़ दिये बुत
दिल के इस बुतखाने से।1

वे कहते मैं क्यों लिखता हूँ
वे कहते मैं क्यों हूँ गाता ।
तो गजलों से मैं रिश्ता तोड़ा
और जोड़ लिया मयखाने से।2

अरमान जितने भी मेरे थे
सब शोलों में तब्दील हुये।
दिल की आग बड़ी गहरी है
क्या खाक बुझे पैमाने से।3

मैं क्या उड़ता आसमान में
जब खुद के पंख हुये बेजार ।
लहरें तो मनमाफिक ही थीं
पर नाव डूबी पतवारों से।4

मेरे गीत नहीं तुम सुनते
मैं अचरज क्योंकर करता।
भाव रहे यूँ मौन साधते
बस चीख मचायी शब्दो से।5

मैं घायल था घायल मन था
मैंने चोट हजारों खायी।
घावों की तो पीर सहज थी
पीड़ा असह बनी तानों से।6।

कहते तुम तो खुद मर जाता
ख्वामखाह इल्जाम लिया।
खाली वार गये थे सारे
मौत हुई दिल सदमें से।7

मैं क्यों तुमसे शिकवा करता
कि गुजरे राह अजनबी जैसे
खुद ही अपना नाम मिटाया
मैं राह मील के पत्थर से।8

क्या लेना क्या देना मुझको
रोशन सुबह दुपहरी संझा
मैं तो कब का दहन हो चुका
हूँ दिखता खुद की परछाईं से।9

यादों की कुछ मुरझाई पंखुड़ियाँ.........


कोलाहल सा मन में क्यों मेरे रहता है।
सूखी रेतों में अंधड़ सा घिरता फिरता है।
मैंने कब दिया हृदय को अपने यह उत्पीड़न,
जिसकी पीड़ा को यह हरपल सहता है।1

नियमसमय से प्रात सबेरे आकर रहता है,
शाम खिड़कियों के रस्ते  मौन खिसक  लेता है।
विदा-इजाजत माँगे भी तो वह किससे,क्यों करके
वक्त भला क्या कभी कही पर भी रुकता है?2

मौन अधर बस पलक इशारे से ही कहता है।
मना किया पर बरबस ही आँखों से बहता है।
लाख नसीहत देता मैं महफिल से परे रह,
पर आने वाला तो आकर ही रहता है।3

जान गया मैं उनके दिल में पत्थर रहता है।
उनकी आँखों का तेवर ही सबकुछ कहता है।
मैंने समझा  घुलामिला रिश्ता है रक्त-लहू का,
उन्हे लगा कि मेरी शिराओं में बस पानी बहता है।4

उनसे मिलने की बेताबी से मन रौनक रहता है।
हँसता है, इतराता है, गुनगुन कर गाता है।
दिखती मुस्कानों में  मेरी है खैर खुशी खुशहाली
पर दर्द तो अक्सर सीने के अंदर रहता है।5

जो कब के भूले उनको भी अपना कहता है।
सुबह सबेरे दिन तारीख गिना करता है।
मन पगला है आशमयी, सदरी के अस्तर  में
यादों की कुछ मुरझाई पंखुड़ियाँ छुपा रखता है।6

Tuesday, November 22, 2011

.......मैं अपनी ही धुन में गाता ।


मुखर मौन, विराम शब्द जब,
कौन राग मैं गीत सुनाऊँ।
जगत यदि यह है भ्रमपूरित,
फिर किसको मैं सच कह पाऊँ।1।

रीता स्वरूप, आगमन अपूर्ण,
छाया क्या  अभिव्यक्ति कहे?
क्रंदन के ऊँचे स्वर,फिर भी
वेदना मेरी अव्यक्त रहे।2

अधरों का गतिमय होना क्या,
मौन रहे जो नयन तुम्हारे।
कलियाँ खिल सौरभ क्या दें
जो विमुख हुयीं बसंत-बयारें  ।3।

संवेदना सहज क्या मिलती,
हृदय शुष्क जो तेरा रहता।
जल के बीच निरा व्याकुल
चातक बस प्यासा ही मरता।4।

नूपुर की घ्वनि में खो जाते
हैं आह वेदना हत-पग के स्वर ।
अंतर्दाह शांत क्या कर पाते
गतिमय वात डोलाते चँवर।5।

आश्वासन अपने क्या देते,
जब शब्द-तीर संघात किये।
कँवच मेरी क्या रक्षा करता,
निज खड्गों ने ही आघात दिये।6।

नियति- दिशा का अनुभव है पर
विषम पथों पर ही मैं चलता
माना मेरे गीत अनसुने,पर
मैं अपनी ही धुन में गाता।7।

पतित हो रहा स्व-उलझन में ही,
माना मेरा तुम उपहास करोगे।
चोट मर्म से जो आंसू छलके,
(शायद) आँचल से आँसू भी पोंछोगे।8।

Monday, November 21, 2011

मन के विचार और समुद्र-जल-तरंगें




मोटरनौका पर सवार
जो निकलता हूँ मैं समुद्रयात्रा पर,
और दिखती है दूर-दूर तक
बस जल तरंगें ही तरंगें,
प्रायः सहजगति से
तो कभी असहज हो रहीं,
निरंतर सी आरोहित व अवहोरित,
मानों समुद्र के अनंत-विस्तृत
समतल अंक में केलि करती
प्रसन्न, स्मितमय ये समुद्रजल लहरें।


फिर होता है यह आभाष
कि मेरा स्वयं का मस्तिष्क ही
विस्तारित हो धारण कर लिया है
इस अनंतोदधि का स्वरूप,
जिसके पटल पर हैं संचालित
आरोह व अवरोहमयी, गतिमय
विचारश्रृंखलाओं की निरंतर लहरें,
हरपल नया स्वरूप धारण करतीं।
पर वास्तव में इनका कोई स्वरूप है?
या मस्तिष्क पटल पर आभाषित
मात्र कल्पनाओं का यह प्रतिरूप है?


यदि यह लहरश्रृंखला है
एक कल्पना,आभाष मात्र,
फिर सत्य है क्या ?
समुद्र समुद्र की गम्भीरता ?
समुद्र का विस्तार ? इसका विस्तृत सतह?
समुद्रजलराशि समुद्र-जल के अणु ?
या इन अणुओं के तत्व-परमाणु ?
या परमाणु के अंदर ऊर्जामय, निरंतर नृत्यमय इलेक्ट्रॉन ?
या इनसे भी परे,अलौकिक,
आभाष से रहित,अदृश्य मात्र,
इस निरंतरमय,गतिमय अध्याय में
आखिरी सत्य है क्या ?


सोचता हूँ यदि जान पाया,
इन समुद्रलहरों के सत्य को,
तो मिल पायेगा समाधान अवश्य ही
इन अनियंत्रित,आभाषित मनविचारों को।
तब शायद समझ पाऊँगा भी स्वयं को।

Saturday, November 19, 2011

एक पल जो तुम पुकारो........

अठखेलियाँ जो खेलती
चंचल लहर, के
चिर आलिंगन में बधा 
पतवार हूँ मैं।1।

उदधि का जलता हृदय
धधकती ज्वाला अनल
गहन तल में मौन स्थित
अदृश्य ऊष्मा-आह हूँ मैं।2।

आदि-अंत रहित,चलित
नियति के रेतावली पर
गतिमय समय की चाल
छीजता पदचाप हूँ मैं।3।

चंचल नयन,प्राची उषा
वेणियों को नित सजाती
गुंथित वेणी-पुष्प का
सुमधुर सुवास हूँ मै।4।

गगनथाली में सजती,
दीप्त तारों की अली
रात्रि की आँचल सजाता
जुगनूप्रकाश हूँ मैं। 4।

गा रहे जो गीत
तुम तन्मय स्वरों में
शब्दपट में मौन साधे
हृदय-पीर-दाह हूँ मैं।5।

तुम कहानी रोज कहते
और सुनता यह जगत
पर जिसे तुम मौन रखते
वे अनकहे हमराज हूँ मैं।6।

मैं अकेला बाट जोहा
तुम चले ,संग कारवाँ
जिन पथों से गुजरते तुम
वहाँ बना पदचिह्न हूँ मैं।7।

पग तो आगे बढ़ गये
पर शब्द पीछे रह गये।
एक पल जो तुम पुकारो,
प्रत्युत्तर बनी आवाज हूँ मैं।8।

Wednesday, November 2, 2011

यात्रा का अमरबीज- वर्तमान क्षण का एक पग





स्थित भविष्य के गर्भ में जो,
हजारों कदम दूर मंजिल है तेरी,
किंतु मंजिल की डगर में उठा,
तुम्हारा हर एक लघु पग ही,
वर्तमान पल का प्रतिनिधि है।1

यह एक लघु डग है स्वयं में,
तुम्हारी दूरमंजिल,यात्राडगर
तुम्हारे संकल्प.गति,कर्म,दृष्टि
सबको बीज सा खुद मे समेटे
भविष्य का भी नियतिनिधि है।2

इस क्षण जो तूने पग उठाया
यह एक डग ही सत्य है,
शिव भी यही डग है तेरा,
सौन्दर्य की अभिव्यक्ति बन
अस्तित्व का कल्याणनिधि है।3

जो आनंदमय हो यह पग धरो
यह पूर्णता अभिव्यक्त करता,
स्वयमात्मा की प्राप्ति पथ को
स्पष्टमय अवलोक करता,लघु
कदम ही चिर प्रकाश-निधि है।4

इस दीर्घ यात्रा के अंत में जो
क्षितिज पर मंजिल मिलेगी ,
पर वर्तमान क्षण का लघु कदम
स्वयं को जानने की अंतर्यात्रा का
उद्देश्य ,आत्मपूर्णता का निधि है।5। 

भूतकाल में भटका मन
हरपल मृत्यु को पाता।
वर्तमान में जो जी लेता,
पुनर्जन्म मिल जाता ।6।

This poem is based on the following excerpts from the wonderful book on enlightenment: 'The Power of Now' by Eckhart Tolle, the German Spiritual master and the renowned author on spiritualism.

Your outer journey may contain a million steps; your inner journey only has one: the step you are taking right now. As you become more deeply aware of this one step,you realize that it already contains within itself all the other steps as well as the destination. This one step then becomes transformed into an expression of perfection,an act of great beauty and quality. It will have taken you into Being, and the light of Being will shine through it. This is both the purpose and the fulfillment of your inner journey, the journey into yourself.