Tuesday, July 16, 2013

सुधार व बदलाव के पहल की जिम्मेदारी – व्यक्ति की, नेता की अथवा समाज की ?




फेसबुक पर मेरे एक मित्र हैं संजीव सिंह जी जो बिहार से हैं व दिल्ली में रहते हैं । संजीव जी के लेख व विचार चिंतनपूर्ण, गम्भीर व  अर्थपूर्ण होते है। जैसा की हमारे देश की वर्तमान राजनैतिक व सामाजिक स्थिति व इनमें निहित मूल्यों में निरंतर गिरावट हो रही है , जिससे हर आम आदमी व उसका जीवन प्रभावित हो रहा  है और इससे हर विवेकशील व्यक्ति चिंतित है, संजीव जी ने भी इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं कि किस प्रकार चुनाव आने की बयार के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के सफेदपोश नेता भी गाँव की ओर मँडराने व अपने लोक लुभावने नारों व वादों से वोटरों को अपने पक्ष में प्रभावित  करने हेतु प्रयासरत हो गये हैं । 

हालाँकि मैं इस विषय पर ज्यादा कुछ लिखने अथवा कहने की परिस्थिति व कुशलता नहीं रखता , और इस विषय पर किसी प्रकार की चर्चा, जो कि फेसबुक पर आजकल बहुत जोरशोर पर है, में किसी भी प्रकार की सक्रियता नहीं रखता परंतु संजीव जी के दिये विचार के परिप्रेक्ष्य में मैं भी अपना विचार अभिव्यक्त करने से स्वयं को नहीं रोक पाया। संजीव जी व मेरे बीच इस विषय में हुए पूरे वार्तालाप का अंश यहाँ प्रस्तुत है -

संजीव सिंहः सफेद पजामा और कुर्ता पहने नेता अब गाँव में दिखने लगे है। दूर से उड़ती धूल दिखे तो जरूरी नहीं गाँव वाले उसे अब बबंडर समझे। वह जान गए है कोई नेता की गाड़ी होगी। चुनाब के बादल घिरने शुरू हो गए है। नेता आश्वासनो से भरा थैला पकड़े गाँव में धमकने को है। चाटुकार अपनी जुबान को मीठे शब्दों से भर लें। राजनीतिक मर्यादा और देश की हालात पर अब गंभीर भाषण होगी। भ्रष्टाचार,सांप्रदायिकता और मँहगाई डाइन पर तनातनी होगी। अब गाँव से दूर नहीं रह गए है। बस वे आने वाले ही है। हमारे गंगौर में तो आने भी लगे है।
कुँवर बेचैन का एक मशहूर गीत है, उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से। जितनी दूर नयन से सपना, जितनी दूर अधर से हँसना, जितनी दूर किनारा, टूटी नाव से। उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से। मेरे ख्याल से देश के नेता अब उतनी ही दूर रह गए है। जितनी दूर भीड़ से धक्का, जितनी दूर धोनी से छक्का। जितनी दूर यूपीए अपनी झूठ से, उतनी दूर एनडीए अपनी फूट से। जितनी दूर दलाल खड़ा है 2 जी से, जितनी दूर खड़ी है कैटरिना, सलमान से, जितनी दूर माईक से भाषण, उतनी दूर नेता तुम मेरे गाँव से।

मैं- वैसे देखा जाये तो राजनीतिक नेता हमारे समाज के मानसपुत्र ही हैं ।जैसी समाज की मानसिकता व सोच होगी वही तो नेतृत्व इसे मिलेगा, जो हम बोते हैं वही तो काटते हैं ।अभी देखिए चुनाव के पहले सब मँहगाई, भ्रष्टाचार, खराब कानूनव्यस्था, रुका विकास जैसी समस्याओं पर कितना भाषण दे रहे हैं पर जब असली चुनाव की बारी आयेगी तो अधिकांशतः तो हम वोट ही नहीं देंगे या देंगे भी तो उसका मुख्य आधार हमारी जाति या हमारा मजहब होता है, न कि विकास या अच्छी सरकार, विशेष कर उत्तरप्रदेश व बिहार के परिप्रेक्ष्य में तो यह सत्य शत्प्रतिशत् लागू होता है । राजनीतिक व्यवस्था को छोड़ भी दें तो हमारा निजी व सामाजिक आचरण भी इन मसलों पर क्या कम पाखंड पूर्ण है । सच कहने- करने व अपने सुविधाजनक कहने-करने में बड़ा ही फर्क होता है ।मुझे तो लगता है हमारी समस्या की जड़ में राजनीति व नेता -परेता  नहीं अपितु मूलतः हमारा स्वयं का  व हमारे समाज का पाखंडपूर्ण आचरण व व्यवहार है ।हर व्यक्ति व समाज आखिर वही  तो वापस पाता है जिसका वह हकदार होता है , और हमारा हक वही तो होगा जैसा हमारा कर्म व आचरण होगा। बोवे पेड़ बबूल का आम कहाँ से होये ?

संजीव सिंह- आप सही कह रहे है।मूलत: समस्याओं की जड़ यही है। अगर समस्या सामाजिक है तो उसका हल भी वहीं होगा।

मैं- मसला यह है कि व्यक्ति से ही समाज बनता है ।हालाँकि व्यक्ति का स्वयं का आचरण कमोवेश समाज की दशा व पर्यावरण के अनुरूप अवश्य निर्धारित होता है , परंतु समाज के अति व्यापक व सामूहिक होने के कारण उसकी पैमाइश व अकाउन्टबिलिटी मुश्किल है, बनिस्बत व्यक्ति के स्तर पर ही सही सोच, सही निर्णय व सही आचरण से स्थिति के बदलाव व सुधार में जाती तौर पर फर्क लाया जा सकता है, ऐसी मेरी समझ व मेरा मानना है ।

संजीव सिंह- दरअसल यह पूरी की पूरी समस्या ही सामाजिक है। व्यवस्थागत ढ़ांचा कमजोर हुआ है।सामाजिक कानून अपना काम करना बंद कर दिया है। डंडे से तो,सामाजिक कानून बहाल होने से रहा। छोटी छोटी मर्यादाएँ भंग हुई जा रही है । वैकल्पिक सोच और आधार का अकाल है। अपनी सहूलियत और सुविधा प्राथमिकता में आ गई। हम जवाब राजनीति में ढ़ूढ़ते है।समस्या जबकि सामाजिक है।फिर परिणाम से क्या उम्मीद। विशेषज्ञों की अपनी सीमाएँ है।हर संदर्भ में तकनीकि जानकारी मांग नहीं सकते।ना ही यह सामाधान है। तकनीकी से विज्ञान चलता है समाज नहीं।अगर होता तो सरकारी हर काम आज दुरूस्त चलता। तकनीकि कमेटी और प्रशासनिक तौर पर सक्षम लोग वहाँ बैठे है। दरअसल स्वार्थ और सुविधा मूल समझ का हिस्सा बन गया है। मुझे आपकी बातों के आलावे यह कारण प्रमुख लगते है।

मैं- स्वार्थ व सुविधापरता व्यक्तिगत स्तर पर शुरू होकर संकलित स्वरूप में ही एक सामाजिक समस्या बन जाती है ।चूँकि समाज की दशा व सोच व्यक्ति हेतु प्रेरणा श्रोत (अच्छी प्रेरणा अथवा बुरी प्रेरणा भी ) का कार्य करते है अतः समाज में व्याप्त स्वार्थपरता व सुविधापरता निश्चय ही व्यक्ति हेतु उत्प्रेरक का कार्य करती है, कह सकते हैं कि व्यक्ति व समाज दोनों ही इस दुष्चक्र के शिकार हैं ।चूँकि समाधान की जड़ें सदैव इकाई में निहित होती है अतः व्यक्ति के समाज की इकाई होने के नाते सामाजिक बुराइयों का निराकरण व समाधान भी तकनीकी तौर पर व्यक्ति के स्तर पर ही निहित है ।इस प्रकार हम सभी ही व्यक्तिगत स्तर पर इस परिस्थिति के निवारण व बदलाव हेतु जिम्मेदार व उत्तरदायी हैं, यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी है ।

संजीव जी अथवा आप पाठकग मेरे इस विचार से कितना सहमत होंगे मुझे नहीं मालूम परंतु मेरी समझ में किसी भी क्षेत्र में ,चाहे वह प्रशासनिक क्षेत्र हो या राजनीतिक क्षेत्र हो या  सामाजिक क्षेत्र हो, किसी सुधार  की पहल प्रथमतया व्यक्तिगत स्तर पर, खासतौर उन व्यक्तियों द्वारा जो अधिकार संपन्न, आर्थिक राजनैतिक प्रशासनिक अथवा सामाजिक  , हैं व संबंधित क्षेत्र में नेतृत्व की भूमिका में हैं, होनी चाहिये । सुधार की पहल मात्र लफ्फेबाजी व भाषण तक सामित न होकर व्यक्ति के कर्म,आचरण व व्यवहार में भी परिलक्षित होनी चाहिये । कोई भी सुधार व बदलाव त्याग व कठिन प्रयास से संभव होता न कि कोरे भाषणों व नारेबाजी से, जो कि दुर्भाग्य से आज न सिर्फ राजनीतिक  पार्टियों का शगल है अपितु सोशल मीडिया व पत्रकारिता जगत भी कमोवेश इसी ढर्रे पर ही चल रहे हैं।

Friday, July 12, 2013

ठंडे व शांत मष्तिक का कौशल व विजय- पराक्रम.....

शांत व संयत मष्तिस्क मगर हौंसला और हिम्मत जबरदस्त

रात के तकरीबन दो अथवा सवा दो बज रहे होंगे जब पत्नी जी ,जो अपनी अस्वस्थता व इसकी पीड़ा के कारण ठीक से सो भी नहीं पातीं,की कराह वह आहट से नींद खुली ।उनकी पीड़ा से मेरा भी मन व हृदय भारी व विचलित  सा हो जाता है परंतु स्वयं को अपनी जिम्मेदारी व कठिन परिस्थिति में अपना  धीरज रखने के विवेक के संग्यान से सहजता व शांति रखते उनको आश्वस्त करने व उनका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करता हूँ ताकि उन्हें कुछ नींद व आराम मिले ।

इसी बीच वेस्ट इंडीज़ में चल रहे ट्राई-सीरीज क्रिकेट प्रतियोगिता  के फाइनल मैच, जो भारत व श्रीलंका के बीच चल रहा था, उसके परिणाम को जानने की उत्सुकता हुई।करीब रात ग्यारह बजे मेरे सोने जाने  के पूर्व श्री लंका की पारी 201 पर सिमट चुकी थी और तब यह पूरी तरह से आश्वस्त लग रहा था कि भारत तो यह फाइनल निश्चित ही व आसानी से  जीत लेगा ।

किंतु इस समय जब  मोबाइल फोन में मैच का लेटेस्ट स्कोर जाँच किया तो यह  चौंकाने वाला व अति निराशाजनक था ।पारी के अढ़तालीसवें ओवर में भारत का स्कोर 9 विकेट खोकर 183 पर अटक रहा था जबकि धोनी बैटिंग छोर पर संघर्ष करते मलिंगा की खतरनाक व तेज  स्लिंगर्स गेंदबाजी का सामना कर रहे थे। दूसरे नानबैटिंग छोर पर थे इशांत शर्मा ।यह हाल जानकर निराशा व झुँझलाहट दोनों साथ साथ अनुभव हुई कि इतना आसान व हाथ में आता दिखता मैच  अब भारत के हाथ से फिसल सा गया है  व अब तो इसमें  निश्चित हार दिख रही है ।

फिर भी एक शुद्ध भारतीय की तरह किसी चमत्कार की उम्मीद में मैं मोबाइल पर अपडेटेड स्कोर देखना जारी रखा।उनचासवें ओवर के शुरू में  जीत के लिए 17 रन चाहिए थे और  बैटिंग छोर पर इशांत शर्मा थे,और तब सब समाप्त प्राय ही दिख रहा था कि  कोई भी अगली गेंद इस खेल की  समाप्ति व भारत के लिए हार ला सकती है ।इस ओवर में किसी प्रकार से दो रन बन सके पर शुक्र यह कि इशांत शर्मा बालबाल बचे रह गए ।

इस प्रकार अब था बचा मात्र एक  अंतिम ओवर, जीत के लिए चाहिए था 15 रन और अब बैटिंग की बारी थी भारतीय कप्तान धोनी की।वैसे जब धोनी बैटिंग छोर  पर  हों तो कोई भी चमत्कार संभव सा लगता है परंतु फिर  भी अंतिम ओवर में जीत का यह अति कठिन समीकरण मन में भारी असमंजस उत्पन्न कर रहा था ।फिर जैसे अचानक सूर्य के प्रकाश से अँधेरा छण मात्र में ध्वस्त हो जाता है ,उसी प्रकार धोनी के तीन लगातार तेज तर्रार बाउंडरी सॉट ने सारे संशयों को  छणभर में समाप्त करते भारत को इस महत्वपूर्ण प्रतियोगिता  में खिताबी विजयश्री  दिला दी।

इसमें सबसे महत्वपूर्ण व ध्यान देने की बात यह है कि ऐसी कठिन परिस्थिति व किसी  प्रतियोगिता के फाइनल जैसे महत्वपूर्ण मैच में जीतना  भारत जैसी टीम के लिए प्रायः यदि  असंभव नहीं तो अपवाद की ही बात मानी जाती रही है ,किंतु जब से धोनी ने भारतीय टीम का नेतृत्व सँभाला है तब से उन्हों ने ऐसे कई कठिन साथ ही साथ फाइनल   जैसे  महत्वपूर्ण अवसर पर सामने दिख रही निश्चित  हार के मुँह से टीम को  बाहर खींचते अपनी टीम को विजय दिलायी व भारत को गौरवान्वित किया है। उदाहरण के लिए 2007 का टी ट्वेंटी वर्ल्ड कप , या 2011 का आई सी सी वर्ल्ड कप  या हाल ही में संपन्न आई सी सी चैम्पियनशिप ,प्रत्येक ही महत्वपूर्ण प्रति- योगिता जिसमें भारतीय टीम को ऐतिहासिक  विजयश्री मिली वे  एक चमत्कारिक खिलाड़ी व कप्तान सिद्ध हुए हैं ।

इसमें भी खास बात यह है कि जहाँ सामान्यतया  विपरीत परिस्थितियों  व सामने दिख रही हार  की दशा में दूसरे कप्तान या खिलाड़ी माथे पर चिंता की लकीरें लिये व परेशान व हताश हो जाते  है वहीं धोनी ऐसी परिस्थितियों में भी कतई शांत निश्चिंत व आत्मनियंत्रित रहते हैं, जब सामने दिखती हार के समक्ष अन्य अपनी टीम व खिलाड़ियों में विश्वास खोते हुये निराशा में डूबते  व बिना लड़े ही अपनी  पराजय  स्वीकार कर लेते हैंवैसे में भी धोनी अपनी टीम व अपने साथी खिलाड़ियों में अपना अटल विश्वास कायम रखते हैं व अंतिम समय तक जूझने का हौसला दिखाते हैं, शायद यही कारण है कि धोनी और उनकी टीम असंभव दिखते को भी संभव कर दिखाते हैं ।

स्मरण आता है कि विगत चैम्पियनशिप के फाइनल में जब अंतिम ओवरों में इशांत शर्मा के बॉलिंग की इंग्लैंड के बैटर्स द्वारा बुरी  तरह धुनाई हो रही थी और तब सभी दर्शकों व खेल  विशेषग्यों को उनसे बॉलिंग कराते  जारी  रखना एक मूर्खतापूर्ण व आत्मघाती कप्तानी प्रतीत हो रही थी, ऐसे में  धोनी एक योगी की तरह शांत वह आत्मविश्वासपूर्ण दिखते अपने निर्णय पर कायम व इशांत शर्मा में अपना भरोसा रख  उनसे बॉलिंग कराना जारी रखे  और नतीजतन सबकी आशंकाओं को ध्वस्त करते व अपने कप्तान के इस विश्वास पर खरे उतरते ऐन मौके पर इशांत शर्मा ने अपनी टीम को वह सफलता दिला दी जो कि अंततः टीम के लिए  जीत का कारण भी  सिद्ध हुई।

इसी तरह  सामने दिखती जीत  अथवा जीत की प्राप्ति पर प्रायः कई खिलाड़ी व कप्तान उत्साहातिरेक में भी अपना संयम खो देते हैं, जबकि धोनी अपनी  जीत  में भी समान रूप से संयत व शांत दिखते हैं ।

इस प्रकार धोनी ने भारतीय क्रिकेट टीम को आज की यह अविश्वसनीय  जीत दिलाकर  यह  पुनः सिद्ध व करके दिखाया है  कि जो व्यक्ति  कठिन व विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धीरज नहीं खोता, मन की शांति रख विचलित नहीं होता और स्वयं व अपनी टीम में अटल विश्वास रखता है, वह निश्चय ही इन विषम परिस्थितियों से बाहर निकलने में सदा सक्षम व सदैव  विजयी होता है।महेंद्र सिंह धोनी व भारतीय क्रिकेट टीम को शत् शत् बधाई

Thursday, July 11, 2013

जीवन......एक कहानी.



दिन छलिया है कब तक इसका साथ रहेगा बन आलम।
कुछ उगने में यह खो जाता, बीते कुछ यह ढलने में ।1।

रात बेवफा साथी कब तक, ना जाने कब होती ओझल, 
कुछ कटती सपनों के आलम, कुछ करवट कई बदलने में ।2। 

ताने बाने ऐसे बिखरे, लगे जिंदगी एक कहानी ।
कुछ कट जाती कहने में और कुछ कट जाती सुनने में ।3।

मेरी किस्मत मुझे सुनी कब, करती मुझसे आँख मिचौली ।
कभी पलक हाथों से ढकती, खुले आँख फिर पल भर में ।4।

इसको भला समझ क्या पाता , जीवन पूरा है घनचक्कर।
केंद्र विंदु में है कुछ पैठा ,कुछ वृत्तों के घेरों में ।5।

नाटक दृश्य बदलते रहते,पात्र बने हम अभिनय करते ।
समय मूक दर्शक बन देखे, हम हँसने में रोने में ।6।