Monday, August 19, 2013

जाने कब किससे हो यह अंतिम मुलाकात.......


कल अपने लम्बे समय से पेंडिंग कुछ   व्यक्तिगत काम पूरे कर लखनऊ से  देर रात करीब डेढ़ बजे मीरजापुर वापस लौटा, जहाँ मेरी पत्नी जी अपने पिताजी के घर  परिवार  व आत्मीयजनों के   साथ विगत एक सप्ताह से  रुकी हुई थी। चूँकि मेरे  अवकाश का एक ही दिन अवशेष बचा है और सोमवार की सुबह तक अनिवार्यतः बंगलौर पहुँचना है, अतःअब निर्धारित समय में बंगलौर पहुँचने हेतु,  दिल्ली से   हवाई यात्रा ही विकल्प शेष है  ।

मीरजापुर से दिल्ली जाने हेतु सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए हम देर रात ही स्टेशन पर स्थित  रेलवे रेस्टहाउस में सिफ्ट कर गये ।हमारा इस यात्रा का यह अनुभव रहा कि जहाँ हमारे हवाई अड्डे व हवाई जहाज कमोवेश किसी शारीरिक अक्षमता अथवा बीमार व्यक्ति हेतु ठीक ठाक सहूलियतपूर्ण और इस प्रकार की मानवीय अनिवार्य आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हैं, वहीं हमारे  रेलवे स्टेशन व हमारी ट्रेने न सिर्फ बिना पर्याप्त व उपयुक्त सहूलियत के हैं बल्कि हमारी  रेलवे व्यवस्था  इस दिशा में व इस प्रकार की  मानवीय आवश्यकताओं के प्रति कतई संवेदनहीन दिखती है ।

 मैंने पाया कि मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर किसी शारीरिक रूप से अक्षम,चलनेफिरने में असमर्थ व्यक्ति हेतु सहूलियत के नाम पर  मात्र  एक टूटीफूटी व्हील चेयर उपलब्ध  है, फिर एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म से जाने हेतु एक शारीरिक रूप से लाचार व चलने फिरने में असमर्थ व्यक्ति को भी  फुटओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ने उतरने के अलावा कोई विकल्प नहीं, यहाँ तक कि यदाकदा कुछ महत्वपूर्ण  स्टेशनों पर दिया जाने वाला  ट्रॉलीपाथ,ताकि व्हील चेयर पर व्यक्ति को एक से दूसरे प्लेटफार्म पर सिफ्ट किया जा सके, भी यहाँ अनुपलब्ध है ।मैं वाकई में इस दुश्चिंता में था कि वर्तमान में अस्वस्थता के कारण  चलने फिरने में असमर्थ अपनी पत्नी को कैसे रेलवे लाइन के उसपार स्थित  प्लेटफार्म पर और  फिर ट्रेन के इस स्टेशन पर बहुत कम समय के स्टॉपेज में कोच के अंदर सुरक्षित कैसे  ले जा पाऊँगा। वहरहाल मेरे एक घनिष्ठ  मित्र व वरिष्ठ  रेल अधिकारी की पहल  से दो रेल कर्मचारियों की हमें मदद मिल गयीं जिन्होंने   व्हील चेयर की सहायता उन्हे प्लेटफॉर्म पर लाया और  फिर उनको सहारा देते फुटओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ाऔर उतारकर येन केन प्रकारेण उन्हें दूसरे  प्लेटफार्म पर लाया और फिर ह्वील चेयर की सहायता से निर्धारित कोच तक पहुंचाया ।इस सहायता से हम ट्रेन  में समय से व सुरक्षित बैठ सके।

स्वयं एक रेल अधिकारी होने के नाते मुझे अपने  रेलवे स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाओं के अभाव व यात्रियों, विशेष कर  शारीरिक रूप से अक्षम व् चलने फिरने में लाचार व्यक्तियों, की मानवीय सहायता व जरूरतों के प्रति हमारे रेल व्यवस्था की संवेदनहीनता निश्चय न सिर्फ क्षोभदायी अपितु   अति झेंपकारी व शर्मनाक सी लगी।प्रायः हम मानवीय सहूलियत व सुविधाओं के प्रति संवेदनहीन है व उनकी व उनके रखरखाव की उपेक्षा करते हैं, हमें इनकी कमी का  अहसास तक नहीं होता जब तक की हम स्वयं अथवा हमारा कोई अपना परिवारजन इनके अभाव से होने वाली कठिनाई व दिक्कत के स्वयं भुक्तभोगी न हों।

ट्रेन में अपनी बर्थ पर पत्नी के  सुरक्षित व इत्मिनान से   बैठ जाने पर मैंने निश्चय ही राहत की साँस ली ।ट्रेन भी अब प्लेटफार्म से रवाना हो गयी थी ।कुल मिलाकर एक संतोष का अनुभव हो रहा था कि बंगलौर से चलते समय हमारे मन में अपनी  यात्रा के प्रति विभिन्न आशंकायें  धीरे धीरे दूर होती गयीं और  इसकी विभिन्न   परिस्थितियाँ कुल मिलाकर   सहजता से मैनेज हो गयीं ,सच पूछें तो इस यात्रा से मेरा और मेरी पत्नी का अब कहीं भी सहजता से जा सकने, अपने सगे संबंधियों के दुखसुख में किसी भी समय शामिल हो सकने के प्रति  आत्म विश्वास बढ़ गया है ।

 अपनी सीट पर बैठा जहाँ मैं अपने मोबाइल फोन पर अपने उन साथी अधिकारी व रेलवे स्टेशन के स्थानीय अधिकारी जिन्होंने हमारी  इस यात्रा में इतनी सहायता की, को धन्यवाद  संदेश लिख रहा था, कि अचानक दृष्टि पत्नी जी पर पड़ी, जो  उदास चेहरे से खिड़की के शीशे से गति पकड़ती ट्रेन से पीछे छूटते अपने बचपन के शहर , जहाँ उनके माता पिता भाई और कितने ही आत्मीय जन रहते हैं , को शांत निहार रही थीं ।उनकी आँखों के कोरों का गीला पन खिड़की से आती रोशनी में मोती की तरह चमक रहा था ।अपनों से लम्बे अंतराल के उपरांत ही मिल पाने,  मिलकर फिर कुछ ही दिन वापस दूर जाते समय उनके मन की उदासी व पीड़ा  को मैं समझ सकता था ,फिर भी मैं उनसे इस आशंका वश की कहीं फुट ओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ने उतरने अथवा ट्रेन के डिब्बे में चढ़ते समय किसी इक्झर्सन अथवा हड़बड़ी में  किसी प्रकार की छोटी मोटी चोट से कहीं उनका दर्द तो अचानक  नहीं बढ़ गया, उनके दुख और  आँखों में आँसू का कारण  जानना  चाहा तो थोड़ी देर की खामोशी के उपरांत वे आह लेते बोलीं 'कौन जाने कब किससे हो यह अंतिम मुलाकात .......'।

मैं उनके हृदय की पीड़ा कि किस प्रकार विगत वर्ष उनकी सर्जरी के उपरांत उनकी  ताईजी उनसे मिलने बंगलौर आयी थीं और कुछ दिन हमारे साथ रुकी थीं तो हमें रंचमात्र यह कल्पना तक नहीं थी की उनसे हमारी यह अंतिम मुलाकात है ।मैं अपनी पत्नी जी के इस मर्मांतक कथन से एक क्षण हेतु चौंका व ठहक सा गया किंतु उनके कथन की सत्यता व यथार्थता को अंतर्मन की गहराइयों से अनुभव कर सकता था ।

फिर भी क्या कर सकते हैं, जीवन यात्रा है तो चलते तो रहना ही है, अंतिम क्षण तक, अंतिम पग तक।

8 comments:

  1. जीवन यात्रा है तो चलते तो रहना ही है, अंतिम क्षण तक,
    सुंदर सृजन ,,
    RECENT POST : सुलझाया नही जाता.

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  2. आपकी तरह आम लोगों को भी रेलवे की सुविधाएं मिलें .... बाकी तो जीवन है उसे तो यूं ही चलना है ।

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  3. बेहतरीन लिखा आपने, संगीता जी वाली बात ही हमें भी कहनी थी.

    रामराम.

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  4. यावत् कंठगतः प्राणः तावत कार्य प्रतिक्रिया ...
    और हम तो बस निमित्त मात्र भी हैं -एक असहाय द्रष्टा भर ......

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  5. अधिकारी, नागरिक बन कर कम ही सोच पाते हैं. अच्‍छा लगा.

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  6. chalti cheettm chalti beettm chalt jivn yauvn. chalachaletu sansare 1ko dharmh sthirh.

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  7. हर दिन जीवन अपनी यात्रा में थोड़ा खिसक लेता है, सबकी अपनी अपनी राहें, राहे तकेंगी किसकी राहें।

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  8. आप आम आदमी की दृष्टि से देखते हैं.. जानकर अच्छा लगा.. नहीं तो हम लोग तो केवल कोस ही सकते हैं.. काश कि सुविधाओं के अभाव को भरा जा सके.. ऐसे कितने ही लोगों से हम आखिरी बार मिल चुके हैं.. अब पता नहीं कि मिलना होगा भी या नहीं.. सार्वभौमिक सत्य है यह..

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