है अँधेरा गहन कितना ,
दीप बन जलते रहो तुम ।
पतझड़ों के दौर हों पर ,
पुष्प बन खिलते रहो तुम ।१।
कौन कहता है गगन का
विस्तार होता है असीमित ?
हौसला ग़र पास हो तो ,
नाप सकते छोर हो तुम ।२।
क्या असंभव, कल्पना क्या ?
कहते किसे दिन में सितारे ?
जो भी सोचो, घटित हो वह,
सोचकर देखो स्वयं तुम ।३।
कौन कहता आ नहीं
सकते धरा पर चाँद तारे ?
वे सिमटते मुट्ठियों में ,जो
नभ ऊँचाई उठ खड़े तुम ।४।
विस्तार इतना ! लहर कितनी !
गंभीर है अति गर्भ सागर ।
फिर भी जो डुबकी लगाओ,
रत्नमणि निधि पा सको तुम ।५।
श्वेत,श्यामल,देश,मजहब,
भेद कितने , नफरतें सौ ।
जो समझते मनुजता को ,
बंधु जग को मानते तुम ।६।
करतल लकीरों में छिपे हैं,
आगत समय के संकेत हलके ।
पढ़ते हृदय निज चेतना जो
जानते भवितव्यता तुम ।७।
वाह! बहुत सुंदर प्रेरक गीत लिखा है आपने सर जी।
ReplyDeleteश्वेत,श्यामल,देश,मजहब,
ReplyDeleteभेद कितने , नफरतें सौ ।
जो समझते मनुजता को ,
बंधु जग को मानते तुम .... प्रेरक .... सुंदर
उत्साह से सराबोर करता यह गीत, बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteपतझड़ों के दौर हों पर ,
ReplyDeleteपुष्प बन खिलते रहो तुम
आपकी आशाएं फलीभूत हों ...मंगलकामनाएं !
सुन्दर और भावपूर्ण
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