Thursday, September 10, 2015

शिक्षक!स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

(पटरी और चक्का - स्केच - 3)

कितने लुंजपुंज से सिमटे
घोसले के तिनकों में दुबके
मां जो चुन कुछ चारा लाती
बस उस अवलंबन पर पलते।

कितने नाजुक रेशम रोमित,
तेरे पंख अभी अविकसित
जग से नभ से पूर्ण अपरिचित
क्या उड़ान यह भान न किंचित ।

एक सुबह,जब नहीं ठीक से
थीं आंखे तेरी खुलीं नींद से
मां ने तुमको चोंच उठाया,
छोड़ दिया हवा में ऊंचे से।

तुम घिघियाते, चिंचीं करते,
लगे बिलखने हवा में गिरते,
भय से मन और प्राण सूखते,
था नहीं पता कि कैसे उड़ते।

अंदेशा, गिरने की बारी,
संघर्षों के पल थे भारी,
नहीं जानते पंख फैलाना,
फिर भी उड़ना थी लाचारी।

मगर अचानक चमत्कार यह,
पंख कुशल गतिमय हो जाता,
खामखाह डरता था कितना,
वह पक्षी अब खुलकर उड़ता।

पक्षी तेरा वह शिक्षक अनुपम ,
जो डर के आगे विजय दिलाता,
नभ में खुला धकेलकर तुमको,
स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

-देवेंद्र
फोटोग्राफ - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा

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