(स्केच नंबर ७)
याद आ गया बचपन का वह पेड़ कागदी नीबू,
जो हराभरा रहता था मेरे घर के कच्चे आंगन की मिट्टी में।
तपती गरमी के दिन में जिसकी छाया में मां धूप चढ़े रखती थी
मिट्टी के छिछले से बर्तन में पानी नन्हीं प्यासी गौरेयों की खातिर,
जो सुबह फुदकतीं, मगर धूप में कितनी कुंभला सी थीं जातीं,
हलक सूखते छाया में आकर, पानी पीकर, अपनी प्यास बुझाकर ,
फिर से ताजा होकर वह उस छाया में भरी दुपहरी,
फुदक फुदक कर खूब चहकतीं, और शोर शराबे करतीं।
ढले धूप जब रोज शाम मां ताजे नीबू तोड़ चार छः लाती
कुयें के ताजे ठंडे पानी में वह मीठी शिकंजी बनाती!
और बड़ी गिलास में बड़े नेह से वह पीने को थी देती,
और बड़े मजे से पीते इसको तनमन आत्मा तृप्त हो जाती
और सारे दिन भर की तीखी गर्मी कहीं दूर भूल सी जाती।
दिन हो या हो रात,सभी मर्जों का वैद्यक था वह, और बनता वह हर व्याधि का नाशी
कभी नमक काले संग चूसें, और कभी शहद संग लेते थे इसको मुंह बासी।
मां मुझको दौड़ाती थी देने थैली में देकर हरे भरे कुछ नीबू,
जो सुन लेती चाचा, ताऊ के घर बीमारी , है बुखार या खांसी।
माह बीतते और हरे से हो जाते यह पीले,
तब मां इनको तोड़ बनाती कई अंचार रसीले
कुछ मिर्ची के इतने तीखे, जिनको खाते आंख से आंसू निकले,
और कुछ मीठे शीरे में डूबे, खट्टे मीठे, खाते आये मुंह में पानी।
मिट्टी के भी कैसे कैसे खेल अजूबे होते,
जहाँ धूप तपती में पत्ते और घास तृण तक जल जाते
वहीं पेड़ यह नीबू का और इसके नीबू फल रहते गरमी में भी लदके,
हरे भरे रहते यह कितने , कितने ताजे ताजे दिखते!
बहुत चमत्कारी होती हैं यह मिट्टी, और इसकी सौगातें,
नहीं पता कि कौन निधि कितने अनमोल कहां से आते
जो छोटा वह बड़ा और जो आज हरा वह कल पीला
बदले रूप-रंग कब कैसे केवल वक्त राज यह जानें, और क्या उसका खेला!
किसमें क्या गुण, और क्या कब अवगुण रहे पहेली समझ न आए !
जो खट्टा रस कल हो मीठा, जो मीठा वह सड़गल जाये, और मिट्टी में मिल जाये।
-देवेंद्र दत्त मिश्र
फोटोग्राफ - Shri Dinesh Kumar Singh द्वारा
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