Thursday, August 22, 2013

कब मनायेंगे हम वोट का भी त्यौहार?

वोट माडी !


कल बंगलौर रूरल संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव था ।मेरा आवास इसी क्षेत्र के अंतर्गत है, और भाग्यवश मेरा वोटर लिस्ट में नाम दर्ज है,अतः इसबार मैंने भी मतदान किया ।ईमानदारी की बात तो यह कि मैंने अपने जीवन में यह पहली बार मतदान किया , अन्यथा इसके पूर्व या तो कभी वोटर लिस्ट में नाम ही नहीं सम्मिलित था,यदि नाम था तो वोट देने गये तो पता चला कि मेरा वोट तो पहले ही डाला जा चुका है, या मतदान के दिन कोई आकस्मिक कार्य आ गया, या किसी उच्च विभागीय अधिकारी द्वारा निर्धारित निरीक्षण अथवा मीटिंग में फँस गये, और वोट देने नहीं जा सके, इस प्रकार कोई न कोई छोटा या बड़ा कारण वोट डालने में रोड़ा बन ही जाता है और मैं अपना वोट देने से चूक जाता रहा हूँ ।

हालांकि आमलोगों में सामान्य तौर पर यह एक बहस का मुद्दा रहता है कि आखिर वोट देने का फायदा ही क्या जब प्रायः राजनेता व राजनैतिक पार्टियाँ भ्रष्ट, धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर समाज को बाँटने और विवाद पैदा करने वाली, काम कम भाषणबाजी ज्यादा करने वाली, स्वार्थी, सत्ता लोभी इत्यादि इत्यादि हैं, हमारे राजनैतिक नेता देशहित में कम अपितु निजी सुविधा, व धनसम्पत्ति अर्जन व इसके तिकड़म में ज्यादा व्यस्त रहते हैं , और यदाकदा एकाध योग्य प्रत्याशी
होते भी हैं ,जिनसे जनता कुछ अच्छे कार्य व उन्नति की कुछ उम्मीद कर सकती है, तो ऐसे एकाकी लोगों का कोई राजनैतिक आधार ही नहीं है और जब वे चुनाव जीत ही नहीं सकते, और यदि जीत भी गये तो सत्ता में आने से रहे, तो ऐसे प्रभावहीन प्रत्याशी पर अपना वोट जाया करने का फायदा ही क्या?

इस प्रकार एक मतदाता के मन में इस चुनावी प्रक्रिया के प्रति इतनी नकारात्मक व कुंठादायी तस्वीर बन जाती है कि मतदान करने हेतु उसके हृदय में किसी भी प्रकार का उत्साह बचता ही नहीं, और नतीजतन स्वतंत्र सोच के अधिकांश मतदाता चुनाव को मात्र बकवास और ढोंग समझते इससे उदासीन होकर मतदान करते ही नहीं,और जो लोग मतदान में हिस्सा लेते भी हैं वे प्रायः किसी न किसी जाति, धर्म, समुदाय, गुट में आस्था रखने व उससे संबंधित पार्टी के प्रत्याशी को ही वोट देने में विश्वास रखते हैं, न कि निजी विवेक व अपनी स्वतंत्र सोच पर।यहीं कारण है कि संसदीय व एसेंबली जैसे महत्वपूर्ण चुनाव, जिनसे हमारे देश व राज्य की , और सच पूछें तो अपरोक्ष रूप से हमारी,आम जनता की, स्वयं की अगले पाँच वर्ष की किस्मत निर्धारित होती है, हमारा और हमारे बच्चों का भविष्य, रोजी रोजगार के अवसर इन पर निर्भर करता है, को भी आधी से ज्यादा जनता इसे गौड़ व फालतू समझते मतदान में भाग ही नहीं लेते ,और इस प्रकार देश में कुल औसत मतदान बामुश्किल पचास प्रतिशत रहता है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि लोकतंत्रीय प्रणाली में जहाँ सरकार और सत्ता केवल और केवल चुनाव के रास्ते व इस प्रक्रिया से ही निकलती है, वहाँ यदि हम वाकई में अच्छी व कार्यकुशल सरकार व प्रशासन की आकांक्षा रखते हैं ,और अपने देश व समाज की उन्नति हेतु संजीदा हैं,वर्तमान में किसी प्रकार का बदलाव व सुधार करना चाहते हैं, तो चुनाव प्रक्रिया को स्वीकार करने व इसमें भागीदारी करने के अतिरिक्त नागरिकों के पास विकल्प ही क्या है । ऐसे में हमारा ,आम जनता का, चुनाव प्रकृया की नकारात्मक स्थिति व वातावरण के कारण, इसके प्रति उदासीनता व इससे हमारे पलायन द्वारा भला कौन सा समाधान निकलने वाला है, बल्कि सच कहें तो हमारा यह पलायनवादी व्यवहार वैसा ही है जैसे बिल्ली को अपनी ओर आक्रमण करते देख कबूतर अपनी आँख मूंद और सिर नीचे गाड़ निष्क्रिय बैठ जाता है, और नतीजतन बिल्ली बड़ी सहजता से उसे अपना शिकार बना लेती है । क्या हम भारतीय भी मतदान से पलायन करके इसी अबोध कबूतर की भाँति इन धूर्त व कुटिल राजनैतिक व धार्मिक नेताओं के शिकार नहीं बन रहे हैं?
 
विषय से भटकने हेतु पाठकगण मुझे क्षमा करेंगे किंतु यहाँ मैं अपने भारतीय जनमानस का विभिन्न तीज त्यौहारों के प्रति तीव्र , सच कहें तो जुनून के स्तर तक, आकर्षण की चर्चा करना चाहूंगा ।अभी हाल ही में मैं अवकाश पर उत्तर प्रदेश अपने पैतृक स्थान गया, जहाँ कार्य वश विभिन्न स्थानों मीरजापुर, वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ इत्यादि जाना हुआ, यह देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि वहाँ सभी मुख्य सड़क
ें,राजमार्ग, रास्ते, गली, कूचे गेरुआ वस्त्र धारी जनशैलाब से अटे पड़े हैं, बताया गया कि यह सब काँवरिया हैं जो श्रावण माह में काँवर में गंगा जल लेकर प्रमुख शिवमंदिरों की पैदल यात्रा करते हैं, कहीं कहीं तो ये पचास किलोमीटर से लेकर दो सौ किलोमीटर तक की पैदल यात्रा करते हैं,सड़कों,राष्ट्रीय राजमार्गों, राजपथों, शहर के अंदर आवागमन की मुख्य सड़कों पर इनके उमड़ते शैलाब से सभी तरह का यातायात अवरुद्ध हो जाता है, इस धार्मिक जनशैलाब के अनियंत्रित व अराजक , व कभी कभी तो अप्रत्याशित रूप से हिंसक, व्यवहार से पुलिस और प्रशासन के सामने कानून व्यवस्था की भारी समस्या उत्पन्न हो जाती है, यहाँ तक कि मुख्य राष्ट्रीय राजमार्गों का एक साइड वाहनों के यातायात को अस्थाई रूप से रोककर इन काँवरियों के स्वच्छंद उपयोग हेतु छोड़ दिया गया है, इस प्रकार लगभग पूरे प्रदेश में इन काँवरियों के कारण सारा यातायात व कार्य रोजगार विगत एक माह से ठप सा हो गया है । इसी प्रकार बंगलौर में देखता हूँ कि विगत दो दिन रक्षा बंधन के त्यौहार के सिलसिले में बाजार और सड़कें खरीदारी करने वालों की भारी तादाद व उनकी गाड़ियों से अटे पड़े थे ।मिठाई की दुकान पर तो रेलवे के टिकट रिजर्वेशन सेंटर से भी ज्यादा भीड़ दिख रही थी ।

यह तो मात्र कुछ उदाहरण हैं, हमारे देश में कोई भी त्यौहार ले लें, क्या दशहरा क्या ईद, क्या दीवाली क्या बकरीद,क्या पोंगल क्या गणपति पूजा, क्या नमाज क्या मंदिर पूजा,क्या उत्तर क्या दक्षिण , हमारे शहरों के सभी प्रमुख मार्ग व रास्ते जन शैलाब से अटे रहते हैं, क्या बच्चे क्या बूढ़े ,क्या महिला क्या पुरुष सबमें इन अवसरों, त्यौहारों पर जबर्दस्त उत्साह और सबकी अनिवार्य भागीदारी देखने को मिलती है, प्रायः तो इन अवसरों, त्यौहारों पर कार्य और स्कूल में छुट्टी भी रहती है और इस प्रकार बिना किसी अवरोध के सभी इन्हें उल्लास से मनाते हैं, यदि किसी त्यौहार पर छुट्टी नहीं भी है, तो भी लोग काम पर न जाने बल्कि अपना त्यौहार उत्सव मनाने हेतु स्वतंत्र होते हैं ।

प्रश्न यह उठता है कि जिस देश के नागरिक अपने धार्मिक व सामाजिक तीज-त्यौहार के प्रति इतने जागरूक, इतने उत्साही हैं, भला वही नागरिक मतदान जैसे अपने मौलिक दायित्व, वह मतदान जिसके परिणाम पर देश का साथ ही साथ उनका निजी व परिवार का भी भविष्य निर्भर करता है, के प्रति इतने उदासीन क्यों रहते है?


लोकतंत्र की अच्छाइयों, बुराइयों, भारत के संदर्भ में लोकतंत्र की सार्थकता व इसके हानिलाभ पर बहस और विवाद चर्चा का एक पक्ष हो सकता है, किंतु इस स्थापित सत्य से किसी की भी असहमति नहीं हो सकती कि अंततः लोकतंत्र
ीय प्रणाली ही आम नागरिक की व्यक्तिगत आजादी व उसके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दे सकती है, अन्यथा तो भूत से लेकर वर्तमान तक पूरे विश्व में कितने ही प्रमाण हैं कि लोकतंत्र के इतर कोई भी अन्य प्रणाली की परिणति अंततः नागरिकों की आजादी पर कुठाराघात और उनके मौलिक अधिकारों के हनन में ही होती है।

इस प्रकार लोक तंत्र की अपरिहार्यता को ध्यान में रखते इसकी रक्षा व इसको जनहित में प्रभावी बनाने हेतु जनजन की मतदान में भागीदारी भी अपरिहार्य है ।लोकतंत्र की रक्षा व इसके प्रभावी बनने हेतु प्रत्येक नागरिक द्वारा मतदान उसके किसी धार्मिक पर्व व त्यौहार से किसी भी रूप में कम नहीं होना चाहिए ।हमारा भारतीय जनमानस अपने धार्मिक तीज त्यौहारों के प्रति जिस प्रकार जागरूक, सक्रिय व उत्साहित रहता है व इन्हें बड़े जोशखरोश के साथ मनाता है, वहीं जोश और खरोश उन्हें मतदान के अवसर पर भी दिखाना होगा, तभी सार्थक बदलाव संभव, तभी राजनैतिक व धार्मिक ठेकेदारों से हमारी आजादी भी संभव है । 


अब बस यही इंतजार व कामना है कि कब मनायेंगे हम वोट का भी त्यौहार?

Monday, August 19, 2013

जाने कब किससे हो यह अंतिम मुलाकात.......


कल अपने लम्बे समय से पेंडिंग कुछ   व्यक्तिगत काम पूरे कर लखनऊ से  देर रात करीब डेढ़ बजे मीरजापुर वापस लौटा, जहाँ मेरी पत्नी जी अपने पिताजी के घर  परिवार  व आत्मीयजनों के   साथ विगत एक सप्ताह से  रुकी हुई थी। चूँकि मेरे  अवकाश का एक ही दिन अवशेष बचा है और सोमवार की सुबह तक अनिवार्यतः बंगलौर पहुँचना है, अतःअब निर्धारित समय में बंगलौर पहुँचने हेतु,  दिल्ली से   हवाई यात्रा ही विकल्प शेष है  ।

मीरजापुर से दिल्ली जाने हेतु सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए हम देर रात ही स्टेशन पर स्थित  रेलवे रेस्टहाउस में सिफ्ट कर गये ।हमारा इस यात्रा का यह अनुभव रहा कि जहाँ हमारे हवाई अड्डे व हवाई जहाज कमोवेश किसी शारीरिक अक्षमता अथवा बीमार व्यक्ति हेतु ठीक ठाक सहूलियतपूर्ण और इस प्रकार की मानवीय अनिवार्य आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हैं, वहीं हमारे  रेलवे स्टेशन व हमारी ट्रेने न सिर्फ बिना पर्याप्त व उपयुक्त सहूलियत के हैं बल्कि हमारी  रेलवे व्यवस्था  इस दिशा में व इस प्रकार की  मानवीय आवश्यकताओं के प्रति कतई संवेदनहीन दिखती है ।

 मैंने पाया कि मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर किसी शारीरिक रूप से अक्षम,चलनेफिरने में असमर्थ व्यक्ति हेतु सहूलियत के नाम पर  मात्र  एक टूटीफूटी व्हील चेयर उपलब्ध  है, फिर एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म से जाने हेतु एक शारीरिक रूप से लाचार व चलने फिरने में असमर्थ व्यक्ति को भी  फुटओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ने उतरने के अलावा कोई विकल्प नहीं, यहाँ तक कि यदाकदा कुछ महत्वपूर्ण  स्टेशनों पर दिया जाने वाला  ट्रॉलीपाथ,ताकि व्हील चेयर पर व्यक्ति को एक से दूसरे प्लेटफार्म पर सिफ्ट किया जा सके, भी यहाँ अनुपलब्ध है ।मैं वाकई में इस दुश्चिंता में था कि वर्तमान में अस्वस्थता के कारण  चलने फिरने में असमर्थ अपनी पत्नी को कैसे रेलवे लाइन के उसपार स्थित  प्लेटफार्म पर और  फिर ट्रेन के इस स्टेशन पर बहुत कम समय के स्टॉपेज में कोच के अंदर सुरक्षित कैसे  ले जा पाऊँगा। वहरहाल मेरे एक घनिष्ठ  मित्र व वरिष्ठ  रेल अधिकारी की पहल  से दो रेल कर्मचारियों की हमें मदद मिल गयीं जिन्होंने   व्हील चेयर की सहायता उन्हे प्लेटफॉर्म पर लाया और  फिर उनको सहारा देते फुटओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ाऔर उतारकर येन केन प्रकारेण उन्हें दूसरे  प्लेटफार्म पर लाया और फिर ह्वील चेयर की सहायता से निर्धारित कोच तक पहुंचाया ।इस सहायता से हम ट्रेन  में समय से व सुरक्षित बैठ सके।

स्वयं एक रेल अधिकारी होने के नाते मुझे अपने  रेलवे स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाओं के अभाव व यात्रियों, विशेष कर  शारीरिक रूप से अक्षम व् चलने फिरने में लाचार व्यक्तियों, की मानवीय सहायता व जरूरतों के प्रति हमारे रेल व्यवस्था की संवेदनहीनता निश्चय न सिर्फ क्षोभदायी अपितु   अति झेंपकारी व शर्मनाक सी लगी।प्रायः हम मानवीय सहूलियत व सुविधाओं के प्रति संवेदनहीन है व उनकी व उनके रखरखाव की उपेक्षा करते हैं, हमें इनकी कमी का  अहसास तक नहीं होता जब तक की हम स्वयं अथवा हमारा कोई अपना परिवारजन इनके अभाव से होने वाली कठिनाई व दिक्कत के स्वयं भुक्तभोगी न हों।

ट्रेन में अपनी बर्थ पर पत्नी के  सुरक्षित व इत्मिनान से   बैठ जाने पर मैंने निश्चय ही राहत की साँस ली ।ट्रेन भी अब प्लेटफार्म से रवाना हो गयी थी ।कुल मिलाकर एक संतोष का अनुभव हो रहा था कि बंगलौर से चलते समय हमारे मन में अपनी  यात्रा के प्रति विभिन्न आशंकायें  धीरे धीरे दूर होती गयीं और  इसकी विभिन्न   परिस्थितियाँ कुल मिलाकर   सहजता से मैनेज हो गयीं ,सच पूछें तो इस यात्रा से मेरा और मेरी पत्नी का अब कहीं भी सहजता से जा सकने, अपने सगे संबंधियों के दुखसुख में किसी भी समय शामिल हो सकने के प्रति  आत्म विश्वास बढ़ गया है ।

 अपनी सीट पर बैठा जहाँ मैं अपने मोबाइल फोन पर अपने उन साथी अधिकारी व रेलवे स्टेशन के स्थानीय अधिकारी जिन्होंने हमारी  इस यात्रा में इतनी सहायता की, को धन्यवाद  संदेश लिख रहा था, कि अचानक दृष्टि पत्नी जी पर पड़ी, जो  उदास चेहरे से खिड़की के शीशे से गति पकड़ती ट्रेन से पीछे छूटते अपने बचपन के शहर , जहाँ उनके माता पिता भाई और कितने ही आत्मीय जन रहते हैं , को शांत निहार रही थीं ।उनकी आँखों के कोरों का गीला पन खिड़की से आती रोशनी में मोती की तरह चमक रहा था ।अपनों से लम्बे अंतराल के उपरांत ही मिल पाने,  मिलकर फिर कुछ ही दिन वापस दूर जाते समय उनके मन की उदासी व पीड़ा  को मैं समझ सकता था ,फिर भी मैं उनसे इस आशंका वश की कहीं फुट ओवर ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ने उतरने अथवा ट्रेन के डिब्बे में चढ़ते समय किसी इक्झर्सन अथवा हड़बड़ी में  किसी प्रकार की छोटी मोटी चोट से कहीं उनका दर्द तो अचानक  नहीं बढ़ गया, उनके दुख और  आँखों में आँसू का कारण  जानना  चाहा तो थोड़ी देर की खामोशी के उपरांत वे आह लेते बोलीं 'कौन जाने कब किससे हो यह अंतिम मुलाकात .......'।

मैं उनके हृदय की पीड़ा कि किस प्रकार विगत वर्ष उनकी सर्जरी के उपरांत उनकी  ताईजी उनसे मिलने बंगलौर आयी थीं और कुछ दिन हमारे साथ रुकी थीं तो हमें रंचमात्र यह कल्पना तक नहीं थी की उनसे हमारी यह अंतिम मुलाकात है ।मैं अपनी पत्नी जी के इस मर्मांतक कथन से एक क्षण हेतु चौंका व ठहक सा गया किंतु उनके कथन की सत्यता व यथार्थता को अंतर्मन की गहराइयों से अनुभव कर सकता था ।

फिर भी क्या कर सकते हैं, जीवन यात्रा है तो चलते तो रहना ही है, अंतिम क्षण तक, अंतिम पग तक।

Thursday, August 15, 2013

बच्चों की बुद्धिमान दुनिया..


एक लंबे अंतराल के पश्चात अपनी पत्नी के साथ यात्रा करने एवं उनके व अपने पैतृक स्थान आना हो पाया ।कल अपराह्न में बनारस अपने छोटे भाई के घर पहुँचा ।वह चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं व उनकी निजी प्रैक्टिस व कन्सल्टैंसी कंपनी है  ।उनका ऑफिस आवास से ही जुड़ा हुआ है ।  कुछ समय तो  भाई के साथ ऑफिस में बात चीत में  बिताया,फिर उनकी कार्य में  व्यस्तता देखकर, मैं यूँ ही वक्त गुजारने हेतु उनके घर की बाहर सड़क पर टहलने निकल गया ।

वैसे यहाँ  मौसम थोड़ा गरम अवश्य है परंतु पिछले दिन हुई बारिश व आसमान में बादल होने से वातावरण कुल मिलाकर सामान्य व सुखद ही अनुभव हुआ ।

घर के गेट के बाहर ही मेरा भतीजा रक्षित अपने पड़ोसी  मित्र प्रणय के साथ बातचीत, कुछ गपशप करते मिला ।स्कूल से वापस आने  , फिर घर पर दो घंटे ट्यूसन की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात , वह थोड़ा  रिलैक्स करता  दिख रहा था । मेरे अनुरोध पर वे दोनों भी मेरे साथ टहलने में शामिल हो गये।रक्षित कक्षा ६ का छात्र है  और प्रणय अपनी स्कूली पढ़ाई, कक्षा १२, इसी वर्ष पूरी किया है और कॉलेज में आर्ट्स और फिलॉसफी कोर्स में  दाखिला ले रहा है ।अपने भाई के घर आनेजाने के सिलसिले में मैं अपने भाई के पड़ोसी व प्रणय के पिता , पाठक जी , को जानता हूँ कि वे व उनकी पत्नी फाइन आर्ट के अध्यापक व एक कुशल चित्रकार हैं ।एक दो बार उनके विशेष आग्रह पर चाय पीने उनके घर जाना हुआ तो उनके छोटे पर सलीकेदार घर में एक छोटी सी आर्टगैलरी व उनकी बनायी विभिन्न ऑयल पेंटिंग देखकर बहुत अच्छा लगा ।कलाकार व गुणी व्यक्ति अपनी सुंदर रचना व कृति से अपने परिवेश को उसी प्रकार अति  सुंदर, विशिष्ट और अलौकिक बना देते हैं जैसे सुंदर व सुगंधित पुष्प से लदे वृक्ष से उसका परिवेश भी अति शोभायमान व सुगंधित हो उठता है ।

बच्चे जो कुछ समय पूर्व आपसी गपसप में मशगूल थे, मेरे साथ टहलते खामोश से लग रहे थे,जिसका कारण निश्चय ही उनके साथ मेरी विषम उपस्थिति थी ,  जो मुझे स्वयं ही  अटपटा व इन बच्चों की शाम को बेमज़ा कर देने के प्रति  अपराधबोध सा  लगा ।साथ टहलते इन बच्चों की खामोशी को विराम देते मैंने प्रणय से पूछा कि क्या वह भी अपने माता पिता जी की भाँति आर्ट्स व पेंटिंग में अभिरुचि रखता है,तो प्रणय ने बताया कि उसका पेंटिंग में तो इंटरेस्ट नहीं अपितु उसे  कम्प्यूटर पर ड्राइंग, डिजाइन और ग्राफिक्स बनाने का शौक है, वह फोटोशाँप तथा अन्य फोटो व डिजाइन सॉफ्टवेयर में कम्प्यूटर पर फोटोसंपादन,टूडी व थ्रीडी ग्राफिक्स व स्केच बनाता है।उसका यह शौक मुझे अति रोचक लगा व मेरे और पूछने पर उसने बताया कि उसका विशेष शौक, वर्तमान युवा पीढ़ी की भाषा में कहें तो पैसन या जुनून, है स्पोर्ट्स कार व उसके विभिन्न पार्ट्स के ग्राफिक्स व डिजाइन ।अपने शौक के बारे में विवरण देते उसने विभिन्न विश्व प्रसिध्द     स्पोर्ट्स कार कंपनियाँ जैसे बैकमोनो, लैम्बोर्गिनी, बुगाटी, शेर्वोलेट, निसान, वोल्क्सवैगन ,ऑडी इत्यादि व  इन कंपनियों के विभिन्न ब्रांड व डिजाइन जैसे लैम्बोर्गनी की  माटाडोर,गलार्डो,मर्सलागो,कब्रेरा, बुगाटी की वेरियॉन,पगानी की जॉन्डा,ह्यूरा,ऑडी की ऑर8, क्यू7,वोल्सवैगन की पोलो और वेंटो, शेर्वोलेट की कमेरो , निसॉन की जीटीआर इत्यादि की अपनी अपनी डिजाइन व तकनीकी  खासियत के बारे में बताता रहा  । उसने जर्मन, जापानी, फ्रांस और इटली में स्पोर्ट्स कार के शक्ति शाली इंजिन, विशेष एयरोडायनेमिक बॉडी डिजाइन , टर्बोचार्जर और नाइट्रो जिससे इन कारों  को अतिरिक्त शक्ति और अधिक गति मिलती है के अपनी अपनी खासियत के बारे में बताता रहा ।

मैं अचंभित सा उसकी दी गई जानकारी सुनता रहा व मेरे यह पूछने पर कि उसकी इतनी अच्छी व रोचक जानकारी को वह लिखकर संकलित व दूसरों से साझा क्यों नहीं करता  उसने  बताया  कि वह  ऑटोकार, आटोगेस्ट, पर इन कारों का रिव्यू लिखता है , फोटो शॉप, ब्लेंडर, आटोकैड जैसे कम्प्यूटर साफ्टवेयर पर गाड़ियों और उनके विभिन्न भागों की जो  थ्री डाइमेंसनल डिजाइन बनाता है उन्हें इन वेब साइट्स पर अक्सर पोस्ट करता रहता है।इस बाबत उसे  विदेशी गेम सॉफ्टवेयर  कंपनियों से कम्प्यूटर गेम्स में  सड़क व  नक्शे की डिजाइन, गेम के लिए कार की डिजाइन जैसे पेड ऑफर भी मिलते हैं, उसने बताया कि वह शीघ्र  अपनी 18 साल की उम्र  पूरा करने पर अपना  पेपैल एकाउंट खोलने के लिए योग्य हों जायेगा, तब  ये कंपनियां उसके रिव्यू व डिजाइन के काम के एवज में उसके पारिश्रमिक का सीधे भुगतान कर देंगी।प्रणय ने  बताया कि कम्प्यूटरगेम जीटीए 5 गेम में एनिमेशन व स्क्रिप्ट में भी योगदान दे चुका है  ।बच्चों के साथ टहलते व उनसे बातचीत करते पचास मिनट कैसे बीत गये पता ही नहीं चला।सच कहें तो बच्चों द्वारा दी गई जानकारी बिल्कुल नयी व अद्भुत थी। बच्चों की अपने शौक में इतनी उच्च कोटि की जानकारी से मुझे आश्चर्य के साथ संकोच का भी अनुभव हो रहा था कि मेरा अपने शौक अथवा अन्य किसी ऐसे क्षेत्र में कितना सीमित है ।मुझे यह गहराई से अनुभव हो रहा था कि यदि हम इन बच्चों की बातें ध्यान से सुनें, उनके शौक, उनकी अभिरुचि को ठीक से जानने का प्रयास करें तो ग्यात होता है कि बच्चे कितने ग्यान और समझदारी से,कितनी अद्भुत व विलक्षण रचनात्मकता से परिपूर्ण है।बच्चों की भी है अद्भुत बुद्धिमान दुनिया 

Monday, August 12, 2013

बादलों की दुनिया..

       
जैसे ही हमारा हवाई जहाज बंगलौर हवाई अड्डे की धरती को छोड़ आसमान की ऊँचाई हासिल करता बादलों के बीच पहुँचा, मेरी पत्नी जी ,जो खिड़की के बाहर के दृश्य को निहारने में खोई थीं जबकि मैं अखबार पढ़ने में मशगूल था, मेरे हाथ से अखबार को परे हटाते खिड़की से बाहर के दृश्य को देखने हेतु उत्प्रेरित किया ।

जैसे ही मेरी दृष्टि खिड़की के शीशे से बाहर गयी, वह दृश्य अलौकिक था, सामने फैला सफेद रूई का विस्तृत पटल, उसपर उभरी व गतिमान  विभिन्न आकृतियां, कहीं पशुओं का झुंड, कुछ शांत से घास चरते से, कुछ आपस में रगड़ते,भिड़ते,केलि,द्वंद्व,विनोद करते, सींग और माथा लड़ाते, अपने थुथुन लड़ाते, सूँघते से, कहीं मदमस्त गजराजों का झुंड जंगल को रौंदता तेज़ी से आगे बढ़ता सा, कहीं अपने साम्राज्य पर आधिपत्य की हुँकार देता सिंह सा स्वरूप ,कहीं सूर्य रश्मियों में दमकता सप्तअश्वों से जुता व तेज भागता रजत रथ,कहीं मानसरोवर जैसे विस्तृत नील स्वच्छ जलराशि, उनमें तैरते मँडराते से धवल राजहंसों के समूह,  इस प्रकार भाँति भाँति के अद्भुत दृश्य ।

इसी बीच इस दृश्य को निहारते पत्नी जी की यह प्रतिकृया सुनाई दी कि बादलों की भी अपनी दुनिया है ।जी यही यथार्थ इस समय साकार व सामने दिख रहा था, हमारी धरती की दुनिया की ही तरह, बल्कि इससे भी  ज्यादा अद्भुत और दिव्य है  यह  बादलों की दुनिया।धरती पर फैले विभिन्न प्राकृतिक रचना और विस्तार नदी, झील, झरने, पहाड़, हिमशिखर, वन, पशु, पक्षी,सड़क,रास्ते के सदृश बादलों के इस लोक में विभिन्न कृतियाँ वर्तमान हैं, विस्तृत धवल हिमशिखर, नदी, घाटी, पहाड़, झरने, नील मानसरोवर सदृश विस्तृत झीलें, जल सरोवर, पशु पक्षियों का स्वच्छंद विचरण व आनंदपूर्ण साहचर्य सब कुछ वर्तमान है इन बादलों के लोक में ।

इन बादलों के लोक में के दृश्यावलोकन में खोया मेरा ध्यान विमान पायलट के इस सुरक्षा संबंधी  उद्घोषणा से भंग हुआ कि विमान शीघ्र ही दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने वाला है।तब तक बादलों का लोक भी धीरे धीरे विलीन हो रहा था और अब उसके स्थान पर दृष्टिगोचर होने लगा था धरती का स्वरूप, मटमैले कंक्रीट के जंगल सदृश मकान व फ्लैट्स की तितर-बितर कतारें, अजगर जैसी लेटी सड़कें, व उनपर गोजर सदृश गतिमान वाहनों के झुंड, फिर से वापस हम लौट आये थे धरातल और इसके वास्तविक दृश्य पर।

 बादलों के लोक का वह अद्भुत दृश्य आँखों से तो ओझल हो गया परंतु मानस पटल पर उस चलचित्र के दृश्य बरबस ताजा व गतिमान हैं ।

Saturday, August 10, 2013

क्यों होता है दिमाग़ का सर्किट ब्रेकर ट्रिप ?

मस्तिष्क का जटिल सर्किट - इसकी अनावश्यक ट्रिपिंग से बचें 

कल रात तकरीबन तीन बजे बिस्तर में  पत्नी जी के सुबकने जैसी आहट से  अचानक मेरी  नींद खुली ।वैसे तो उनकी पिछले साल की हुई सर्जरी के बाद से ही बाँह और पीठ के दर्द,कभी कभी तो असहनीय पीड़ासे वे रात में ठीक से सो नहीं पातीं और फिर देर रात तक शरीर में पीड़ा व अकेले जगने की निराशा में दुखी मन से प्रायः  रोने लगती हैं ।उनकी परेशानी की आहट से प्रायः मेरी भी नींद खुल जाती है, फिर मैं उन्हें समझाने, आश्वस्त करने व उनका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करता हूँ ताकि उन्हें कुछ मानसिक सुकून मिले और नींद आ जाये ।

इस सिलसिले में मेरा यह अनुभव रहा है कि  बीमार व दर्द से परेशान  व्यक्ति को ज्यादा समझाना व सांत्वना देना भी कई बार मदद करने के विपरीत उल्टा चिड़चिड़ापन क्रोध व झुँझलाहट उत्पन्न करता है ।उनको समझाने, आश्वासन देने में कभी कभी मेरी कही किसी बात से वे आराम और राहत पाने  के बजाय और चिढ़ और दुखी हो जाती हैं । ऐसी परिस्थिति में मैं भी भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ सा हो जाता हूँ ,और कई बार मैं भी अकस्मात झुँझला उठता हूँ तो बात बनने के बजाय और बिगड़ जाती है ।

मेरी नींद खुलने पर पाया कि वे बहुत दुखी हैं व रो रही हैं ।मैं भी व्यग्रता पूर्वक उनके दुखी होने व रोने  का कारण जानना चाहा कि कहीं बाहों व पीठ  में ज्यादा दर्द होने अथवा किसी  अन्य कारण से वे इतना परेशान व दुखी हैं ।कई बार पूछने वह अपना दुख व नाराजगी  जतायीं कि रात में डिनर के बाद उनका मुझसे पूछने पर कि सुबह ऑफिस मुझे कितने बजे जाना है मैने उनके प्रश्न की उपेक्षा करते हुये कोई उत्तर नहीं दिया , इस बात से वे बहुत दुखी हैं

उनकी यह शिकायत और उनके दुखी होने का कारण मुझे इतना बेतुका और बचकाना लगा कि मैं उनकी सारी परेशानी, तकलीफ, दर्द को भूलते उल्टे स्वयं ही झुँझला उठा कि उनका यह क्या बचपना और बेबकूफी है ।नतीजतन उनको मेरी  बातों से किसी प्रकार का आराम और शुकून मिलने  के विपरीत उनका दुख और मन की पीड़ा और बढ़ गयीं ।

दरअसल दिन में  बहुत ज्यादा भाग दौड़, मंत्री जी के दौरे व उद्घाटन  को लेकर तैयारी के सिलसिले में झिकझिक के चक्कर में शाम को देर दस बजे घर वापस आने और फिर भोजन  के पश्चात बस बिस्तर दिख रहा था और मुझे ध्यान भी नहीं कि पत्नी जी ने मुझसे कब और क्या  सुबह के प्रोग्राम के बारे में पूछा? किंतु  उनको मुझसे अपने प्रश्न का  उत्तर न पाकर अपनी उपेक्षा का अनुभव हुआ और पहले से ही वे मार और शारीरिक रूप से  परेशान उनका मानसिक दुख और भी बढ़ गया ।

खैर फौरन ही हम दोनों को एक दूसरे के प्रति समवेदना का अहसास हुआ और बिना बात  को और बढ़ाये हम दोनों शीघ्र शांत हो गये, वे सो गयीं जिससे मैं भी आश्वस्त हुआ ।फिर शांत मस्तिष्क से विचार करते मेरे मन में यह चिंतन जागृत हुआ कि आखिर क्या कारण है कि सामान्य तौर से जीवन के सुख-दुख, उतार-चढ़ाव,सहूलियत-परेशानियों के बीच हम धैर्य व विवेक रखते संतुलन व शांति बनाकर चलते हैं परंतु कभी-कभार हम छोटी-मोटी बात पर ही अपना धीरज खोते, झुँझलाते, परेशान अथवा दुखी हो जाते हैं ।आखिर यह कभी-कभार हमारा अंतर्निहित विवेक व धीरज कहाँ कमजोर और विलुप्त हो जाता है कि हम इन दुख-विषाद के चक्रवातों में अनावश्यक उलझ जाते हैं?


देखें तो दिमाग जो अपने आप में एक जटिल तंत्र व प्रक्रिया होता है,वह एक विश्वसनीय विद्युत सर्किट की भाँति समुचित व लगातार कार्य करता रहता है, किंतु किसी अकस्मात स्पाइक अथवा इम्पल्स के कारण जैसे विद्युत सर्किट ट्रिप कर जाता है उसी भाँति हमारा दिमाग का सर्किट ब्रेकर भी अचानक किसी छोटी सी बात पर ट्रिप हो जाता है । प्रश्न तो यही है कि क्यों होता है दिमाग़ का सर्किट ब्रेकर ट्रिप ? 

Sunday, August 4, 2013

भोली भाली सरकार और चिक-चिक बाज जनता.......

यह टैक्स है या जिंदा रहने की कीमत ?

मेरे कुछ मित्र इस बात पर बहुत क्षोभ व एतराज जताते हैं कि सरकार ३० प्रतिशत इंकम-टैक्स हमारी सेलरी से सीधे काट ही लेती है, फिर घर चलाने के लिये भी जो सामान खरीदो, यहाँ तक सब्जी इत्यादि भी तो ऊपर से और २५ प्रतिशत का टैक्स और लगाती है , यह मेरे मित्रों को सरकार द्वारा जनता के ऊपर घोर ज्यादती लगती है। मेरे न मित्रों को इस बात का भी मलाल है कि हमारा इतने मेहनत से कमाया पैसा सरकार टैक्स में वसूल कर बस इधर इधर बेमतलब की चीजों मे खर्च करके वेस्ट (व्यर्थ) कर देती है, देश व जनता के लिये कोई ढंग का विकास कार्य भी नहीं करती।

अपने इन नासमझ मित्रों से मैं पूछना चाहता हूँ कि भला इसमें सरकार द्वारा वेस्टेज कहाँ से हो गया, लोग भी खामखाह बिचारी भोलीभाली सरकार पर झूठमूठ का कोई भी मनगढंत आरोप बिना सोचे समझे लगा देते हैं । अरे सोचो भाई , इसमें वेस्टेज कैसा? आखिर आपका टैक्स से वसूला पैसा सरकार द्वारा नरेगा जैसी पवित्र गंगा में ही तो बहाया जाता है, जिसमें स्नान व आचमन कर पूरा देश, विशेष कर ग्रामीण भारत, धन्य धन्य हो रहा है, फिर हमारे कर्मठ जनप्रतिनिधियों,जो तनमन से देश व जनसेवा करते रहते हैं, उनके रहनसहन, ऐसो-ऐयास, हवाई यात्रा इत्यादि जैसे पुनीत कार्यों का खर्चा वर्चा भी तो आखिर आपसे वसूले टैक्स से ही तो मैनेज हो रहा है ।अब तो सरकार ने एक और पुनीत यज्ञ फुड सिक्योरिटी बिल द्वारा शुरू कर दिया है, आखिर उसकी समिधा भी तो आपसे वसूले टैक्स से ही तो मैनेज की जायेगी, इसप्रकार आपसे वसूला टैक्स भला इतने पुनीत कार्यों में लगता हैं और आप वेस्टेज की बात करते हैं, भाई यह तो जिम्मेदार नागरिक के आचरण विपरीत बात हुई ना !

र रही बात ज्यादा टैक्स लगाने की तो आपको सरकार का शुक्रगुजार होना चाहिये कि वह आपकी साँस, उस हवा पर जो आप साँस लेते हैं , अभी तक कोई टैक्स नहीं लगायी है। यह अलग बात है कि आपको शुद्ध हवा साँस लेने के लिये नही मिलती, तो इसमें भला सरकार की क्या गलती ? अब आप मुफ्त में बिना टैक्स हवा ले रहे हैं ऊपर से शुद्ध हवा की अपेक्षा करते हैं, कितने लालची हैं आप। वैसे भी यदि आप की यह शिकायत है कि हवा भी शुद्ध नहीं मिलती है तो इसके प्रदूषण के लिये भी  भला सरकार थोड़े ही दोषी है , इसके लिये भी तो आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं 


इस प्रकार अपने इन चिक-चिक बाज मित्रों से मेरा यही विनम्र निवेदन है कि इस बेचारी, भोली-भाली व निर्दोष सरकार को बात बात में दोष देना व इसकी मीन मेख निकालना बंद करें। 

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