Monday, September 16, 2013

इच्छाशक्ति की भी इच्छाशक्ति आवश्यक है !


इच्छाशक्ति से खुलते हैं असंभव व अदृश्य दरवाजे 

मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं, उनका आवास मेरे आवास के नजदीकी लोकेलिटी में ही है,अतः प्रायः सप्ताहांत पर हमारा पारस्परिक मिलना जुलना होता है व हमारी पारिवारिक आत्मीयता हो गई है ।

कल शाम वे सपत्नीक मेरे घर पधारे ।बातचीत के ही सिलसिले में उन्होंने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि व्यक्ति के अंदर इच्छाशक्ति हो तो उसके द्वारा अपने जीवन में कोई भी कार्य व उपलब्धि संभव है , वैसे भी मेरी लापरवाह जीवनशैली, नियमित व्यायाम, खेल कूद का अभाव व शारीरिक वजन औसत से अधिक होने, अपना सप्ताह की छुट्टी में भी कहीं बाहर, मंदिर इत्यादि घूमने न जाने और बस मोबाइल से चिपके रहने व बस कुछ कुछ लिखते पढ़ते रहने की आलसी आदत, पर वे मुझे प्रायः उलाहना देते व अपनी आउटडुर एक्टिविटी बढ़ाने की नसीहत देते रहते हैं ।ऐसा नहीं कि वे मात्र जुबानी नसीहत बाज हैं, बल्कि वे स्वयं जीवन में बड़े अनुशासित, नियमित डाइटिंग, खेलकूद व्यायाम, आउट डोर गतिविधि में काफी सक्रिय रहते हैं, परिणाम स्वरूप हमारे हमउम्र होने के बावजूद उनका शारीरिक वजन बिल्कुल नहीं बढ़ा है व बिल्कुल संतुलित व फिट हैं । 

उनकी यह मित्रवत सलाह मुझे नितांत प्रभावी व अच्छी तो लगती है परंतु दुर्भाग्य से मैं उनकी सलाह को निजी जीवन में व्यवहार में ला नहीं पाया, उनकी इतनी अच्छी सलाह उनके कहने व मेरे मात्र सुनने तक ही सीमित रह जाती है और मेरे जीवन व मेरी दिनचर्या की आदतें यथास्थिति ही चल रही हैं ।

वैसे देखें तो उनकी यह इच्छाशक्ति वाली सीख तो सौ प्रतिशत सत्य और सिद्ध तथ्य है ।मेरे मित्र का स्वयं का जीवन भी इस सत्य कथन का सजीव उदाहरण है, उन्हीं के अनुसार अपने स्कूली जीवन में वे एक अति साधारण छात्र थे, उन्हें गणित विषय से अत्यंत भय लगता था, फिर अपने पिता जी की प्रेरणा व मार्ग दर्शन द्वारा व अपने कठिन परिश्रम से वे अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर, इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी सफलतापूर्वक पूरी कर सके।नौकरी मिलने में शुरुआती अड़चनों व संघर्ष,नौकरी न मिलने के कारण निजी उद्यम व व्यवसाय शुरू करने व इसमें भी काफी संघर्ष व संतोषजनक सफलता न हासिल होने, का धैर्य पूर्वक सामना कर अंततः अपने एक मित्र की सलाह पर कम्प्यूटर क्षेत्र में अतिरिक्त व्यावसायिक प्रशिक्षण से अपने को और काबिल व योग्य बनाकर एक महत्वपूर्ण कम्प्यूटर कंपनी में नौकरी हासिल की । फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, वे देश विदेश की कई महत्वपूर्ण कंपनियों में कार्य किये, कई वर्ष विदेश यूरोप, अमरीका व आस्ट्रेलिया के प्रमुख शहरों में रहे, कुछ वर्ष विप्रो जैसी महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर कंपनी में भी महत्वपूर्ण पद पर रहे व वर्तमान में आई बी एम जैसी महत्वपूर्ण कंपनी में एक उच्च प्रबंधन पद पर कार्यरत हैं ।उनका बंगलौर के अति कुलीन एरिया व अपॉर्टमेंट में निजी फ्लैट है, बड़ी और मँहगी सी कार है, ईश्वर की कृपा से पारिवारिक जीवन भी अति सुखमय व संपूर्ण है, पत्नी जी अति सुशिक्षित व सुघड़ गृहिणी हैं, एक पुत्री व एक पुत्र हैं जो बड़े होनहार बच्चे हैं ।माताजी भी साथ रहती हैं, बस दुर्भाग्य से कुछ समय पूर्व पिताजी का देहावसान हो गया ।

इस प्रकार मेरे मित्र निःसंदेह एक अति सफल व चहुँ मुखी रूप से परिपूर्ण जीवन के स्वामी हैं ।और निश्चय ही, जैसा कि उनका बातचीत के दौरान कथन था, यह उनकी इच्छाशक्ति व जीवन में अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ संकल्प का ही सुपरिणाम है ।

वैसे भी देखें तो यह कथन यथासिद्ध है कि आज तक संसार में महान से महान पुरुषों द्वारा जितनी महान उपलब्धियां हुई हैं उसमें दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रमुख योगदान रहा है, चाहे वह विज्ञान व तकनीकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुसंधान व खोज हो, चाहे किसी उत्पाद,कंपनी या व्यवसाय की व्यावसायिक व आर्थिक सफलता हो, चाहे प्रशासनिक, राजनैतिक व सामाजिक नेतृत्व व क्रांति की सफलता के उदाहरण रहें हो, यहाँ तक कि ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध व सफल माने जाने वाले विश्व विजय व सामरिक अभियानों में भी उनके नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति का स्थान प्रमुख है ।

परंतु निश्चय ही अपने उद्देश्य व लक्ष्य के प्रति दृढ़ इच्छाशक्ति युक्त यह महान पुरूष विरले व अपवाद स्वरूप ही होते हैं ।इसी प्रकार हमारे जैसे साधारण मनुष्यों में भी मेरे मित्र जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति के व्यक्ति भी विरले व अपवाद स्वरूप ही होते हैं ।अन्यथा तो साधारण व्यक्तियों के जीवन की समीक्षा करें तो पायेंगे कि दृढ़ इच्छाशक्ति की बात कहना जितना आसान है, उसका अनुपालन साधारण व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन व अपने उद्देश्य के प्रति उतना सहज नहीं ।

सिर्फ किसी उद्देश्य व लक्ष्य को सोचने, चाहने अथवा उसकी चर्चा करने एवं इसके विपरीत उसे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सफलता पूर्वक प्राप्त करने व उसे व्यवहार में लाने में एक साधारण मनुष्य हेतु जमीन आसमान का अंतर होता है ।यही कारण है कि मेरे जैसे साधारण व्यक्ति अपनी परिस्थिति के अधीन ही जीवन जीते रहते हैं, उसमें अपनी इच्छा व ख्वाहिस के अनुरूप परिवर्तन लाने में असमर्थ होते हैं, और यथास्थिति में ही सारा जीवन काट देते हैं।शायद यही कारण यानि इच्छा शक्ति की कमी ही है कि मैं चाह कर भी नियमित व्यायाम करने, अपने खानपान पर और संयम रखने, अपना शारीरिक वजन कम कर सकने , फेसबुक पर या इधर उधर की पुस्तक पढ़ने में समय नष्ट करने के बजाय अपने घर व परिवार के साथ ज्यादा गुणात्मक समय, जैसे बच्चों की पढ़ाई में सहायता जैसे महत्वपूर्ण कार्य में , बिताने में असमर्थ रहता हूँ, चाहकर भी अपनी दिनचर्या में परिवर्तन लाने व ज्यादा संतुलित व होलिस्टिक रहनसहन व खानपान अपनाने में स्वयं को अभी तक सक्षम व आत्मबल युक्त नहीं पाया हूँ ।

इस प्रकार देखें तो प्रायः साधारण व्यक्ति अपनी कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अपने जीवन व वर्तमान परिस्थिति में सार्थक बदलाव नहीं ला पाते व प्रायः अपनी इस कमजोरी पर आवरण रखते अपनी परिस्थिति को अपनी नियति समझते उसे स्वीकार व उससे समझौता कर लेते हैं ।

सच कहें तो साधारण इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति को जागृत अथवा इसके महत्व को ही समझने में असमर्थ होते हैं ।इस प्रकार कह सकते हैं कि मेरे जैसे साधारण या कमजोर इच्छाशक्ति वाले व्यक्तियों के अंदर अपने उद्देश्य व लक्ष्य के प्रति इच्छाशक्ति को दृढ़ व मजबूत करने हेतु एवं इसके महत्व को अंतर्चेतन में स्थापित करने हेतु ही सर्वप्रथम एक विशेष इच्छाशक्ति व समर्पण की आवश्यकता होती है यानि इच्छाशक्ति विकसित करने हेतु भी एक विशेष इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है ।काश मेरे मित्र इस हेतु कुछ सार्थक सलाह दे सकें !

Saturday, September 14, 2013

हिंदी के सेवक

सितंबर माह का पहला पखवाडा सरकारी तौर पर हिंदी पखवाडा के रूप में मनाते हैं जिसका समापन १४ सितंबर को हिन्दी दिवस के रूप में होता है ।सभी सरकारी दफ्तरों, विशेष कर केंद्र सरकार अधीनस्थ विभागों, संस्थानों व कंपनियों में यह अनिवार्यतः मनाया जाता है ।जैसा कि हम सबको पता ही है कि हर सरकारी कार्यालय ,संस्थान में वाकायदा हिंदी विभाग होता है,जिसे प्रशासनिक भाषा में राजभाषा विभाग कहते हैं,  जिसका काम ही है हिन्दी का प्रचार प्रसार करना ।

सरकारी नौकरी की शुरुआत में मुझे यह नहीं समझ में आता था कि आखिर हिंदी को हिन्दी न कहकर राजभाषा क्यों कहते हैं, जबकि हकीकत में  राजकीय कामकाज से तो इसका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं (मेरे इस कथन से आप असहमत हो सकते हैं परंतु मैं जो यथार्थ अनुभव किया हूँ वही लिख रहा हूँ ।) फिर धीरे धीरे समझ में आया कि दरअसल हिंदी शब्द से धर्म विशेष की बू आती है जो देश की आजादी के बाद सत्ता में आये  हमारे तथाकथित धर्म निरपेक्ष नेताओं की छवि की चकमक सफेदी पर सांप्रदायिक  धब्बा लगा सकती थी, इसलिए राजनीतिक सहूलियत हेतु उन्होंने  हिंदी के बजाय इसका नाम राजभाषा रख दिया।राजनैतिक व सामाजिक कारणों से इसी प्रकार के अनेक पाखंड हमारे जीवन में अंतरंग स्थान रखते हैं अतः हमें हिंदी या राजभाषा नाम  को लेकर कोई आश्चर्य की आवश्यकता नहीं है ।
। 

हर सरकारी कार्यालय में तिमाही हिंदी बैठक,मेरा मतलब राजभाषा बैठक, नियमतः अनिवार्य है जिसमें हिंदी में कामकाज के प्रगति का व्यौरा दिया जाता है और हिंदी में कामकाज को और सुधारने की रणनीति पर चर्चा होती है ।यदि आप विगत बीस सालों से हिंदी की प्रगति  के आँकड़े सुनते रहे हों, तो मेरी तरह आप भी आश्चर्य करेंगे कि आखिर जब ९०-९५ प्रतिशत काम हिंदी में हो ही रहा है, फिर यह  बैठक व हिंदी में काम करने की बारबार दुहाई देने की आवश्यकता ही क्यों ?और फिर आप किसी सरकारी दफ्तर के कामकाज के रिकॉर्ड्स व फाइल  की जाँच कर लें आपको यह हकीकत स्पष्ट हो जायेगी कि सरकारी कामकाज अधिकांशतः किस भाषा में होता है, और निश्चय ही वह भाषा हिन्दी नहीं है, इस प्रकार हमारे सरकारी विभागों में हिन्दी में कामकाज की वस्तुस्थिति , हिंदी विभाग द्वारा इसका प्रचार प्रसार, इससे संबंधित तमाम बैठकें, दिये जाने वाले आँकड़े किसी घनचक्कर या मजाक  से कम नहीं है ।
 
सरकारी कार्यालयों में हिंदी  पखवाडा का आयोजन वैसा ही रोचक दिखता है जैसा कि वार्षिक गणेशोत्सव अथवा दुर्गा पूजा, कार्यालयों में जगहजगह बैनर पोस्टर जिसपर हिंदी में कामकाज हेतु प्रोत्साहन हेतु महान विभूतियों, जैसे महात्मा गाँधी, नेहरू, राजेंद्र प्रसाद इत्यादि, कई तो ऐसे नाम जिन्हें आपने हिंदी के कोर्स में  न तो कभी पढ़ा न सुना, इन महान विभूतियों के कथन पढ़ते तो यही अनुभव होता है कि मात्र हिंदी ही हमारे राष्ट्र की उद्धारक, रक्षक व स्वाभिमान है ।मुझे इन कथनों को पढ़कर उसी प्रकार की आत्म ग्लानि होती है जिसप्रकार महिलाओं की मर्यादा में जगह जगह लिखा यह कथन कि 'यत्र नार्यस्त पूज्यंते रमंते तत्र देवता' अथवा प्रायः पुलिस थाने में लिखा संदेश कि 'सत्यमेव जयते' अथवा  घूस देना या लेना दंडनीय अपराध है,जबकि वस्तुस्थिति है सर्वथा विपरीत  ।

सबसे बड़ी कोफ्त तो तब होती है जब हिंदी पखवाडा उत्सव के नाम पर ऑर्केस्ट्रा पार्टी, गीत संध्या, डीजे पार्टी, हास्य कविसम्मेलन व शेरो शायरी का आयोजन किया जाता है ।इन आयोजनों में कोई बुराई नहीं, परंतु इन्हें हिंदी समारोह से जोड़ना अजीब व अटपटा लगता है ।वैसे हो सकता है मेरी ही कम समझ का फेर हो क्योंकि जमाना ही मार्केटिंग का है और हो सकता है कि हमारे हिंदी प्रचारक प्रसारक  हिंदी के मार्केटिंग की यही रणनीति उचित समझते हों, परंतु मेरी एक बात से आप निश्चय ही सहमत होंगे कि इन साठ वर्ष से भी समय से लगातार हिंदी के प्रचार प्रसार के सरकारी   हथकंडों व टोटकेबाजी से हिंदी की कोई सार्थक प्रगति व उन्नति तो नहीं दिखाई देती ।

कई आधुनिक विचार धारा व जीवनशैली के लोगों को तो यह हिन्दी विंदी पढ़ना पढ़ाना, या हिंदी में बोलने या कामकाज करने का विचार  ही बकवास लगता है ।(मैं अहिंदी भाषी नहीं अपितु हिंदी भाषी भारतीयों की ही बात कर रहा हूँ ।) उनकी सोच में हमारे बच्चों की  पढ़ाई लिखाई अंग्रेजी में होने, अंग्रेजी बोलचाल से उनका  ज्ञान अंतर्राष्ट्रीय स्तर का, विशेष कर पाश्चात्य जगत के बराबरी का हो जाता है जिससे बच्चों के  विदेश में पढ़ने जाने   व विदेशी कंपनियों में रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं, अन्यथा तो हिंदी अथवा अन्य स्थानीय भाषा में पढ़लिख कर भी आदमी गँवार का गँवार ही रह जाता है, इस पढ़ाई का नौकरी व रोजी रोजगार में कोई लाभ नही होता ।परंतु हम यह भूल जाते हैं कि हमारी मातृभाषा हमारी नैसर्गिक ताकत व प्रतिभा होती है, वैज्ञानिक रूप से भी  यह सिद्ध है कि दो वर्ष की उम्र होने तक ही बच्चे की आधी शब्दावली व सामान्य परिज्ञान विकसित हो जाता है अतः मातृभाषा स्वाभाविक रूप से हमारी आधार भूत ताकत व क्षमता है जिसे नकार कर अथवा इसकी उपेक्षा करके हम अपने स्वाभाविक  ज्ञानार्जन व नैसर्गिक प्रतिभा के अनुसार व्यक्तित्व विकास से वंचित रह जाते हैं ।अततः हमारी यही कमजोरी सफल वैज्ञानिक, इंजिनियर,लेखक, व्यवसायी अथवा अन्य अनुसंधान क्षेत्र जिनमें नैसर्गिक प्रतिभा का विशेष महत्व होता है में पिछड़ेपन के परिणाम के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।

मुझे हिंदी अथवा हमारी अन्य भारतीय भाषाओं के असली मित्र व सेवक तो कंप्यूटर सॉफ्टवेयर व मोबाइल फोन की विदेशी कंपनियां,जैसे माइक्रोसॉफ़्ट, गूगल, एप्पल, सैमसंग और नोकिया  लगती हैं जिन्होंने कंप्यूटर व मोबाइल पर हिंदी व हमारी अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में लिखने, टाइपिंग करने, पढ़ने ,ऑनलाइन शब्दावली की फ्री व बहुत आसान  सुविधा उपलब्ध करायी है जिससे वर्तमान आधुनिक तकनीकी युग में हिंदी का हर प्रकार के कामकाज में सहूलियत के साथ उपयोग संभव है ।

हमारी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की गरिमा व मर्यादा की पुनर्स्थापना में मददगार ,इन सच्चे सेवकों को हिंदी दिवस पर शत शत नमन व इनका हार्दिक आभार ।

Tuesday, September 10, 2013

प्रकृति और अपरिग्रह

आज रात करीब तीन बजे ही नींद खुल गयी  और अनुभव हुआ कि पेट में भारी हलचल चल रही है, अभी कुछ ठीक से समझ भी पाता कि उल्टी जैसा अनुभव हुआ व मैं हड़बड़ी में भागता किसी तरह सिंक तक पहुँच सका, और फिर वमन का एक भारी दौर, पांच मिनट तक चले अपने शरीर के पाचनतंत्र की इस उत्छालन  प्रकिया में मेरे शरीर का तार-तार हिल गया, मुंह के स्वाद का तो यह हाल था मानो मैंने गलती से एसिड पी लिया हो।

अंततः शरीर के इस स्वतः संचालित परिमार्जन प्रक्रिया द्वारा शरीर के अंदर संचित हुए  विषादग्रस्त व अवांछनीय पदार्थों के निवारण से पेट को काफी राहत अनुभव हो रहा था व शरीर की अन्यमनस्कता भी धीरे-धीरे शांत हो रही थी।

कारण तो स्पष्ट ही था, पिछले दिन का असंयमित भोजन व खानपान, दो बार गणेश चतुर्थी पूजा का प्रसाद, फिर एक जन्मदिन की पार्टी में अतिरिक्त वसा व चीनी युक्त  खानपान व डिनर इस प्रकार अति भोजन का  ही यह दुष्परिणाम  था ।कई बार न चाहते हुए भी व अंतर्विवेक की चेतावनी के बावजूद भी हम औपचारिकता वश अतिभोजन के शिकार और बीमार पडते हैं।

यह स्वयं अनुभूत सत्य  है कि हमारा शरीर व इसके विभिन्न तंत्र की कार्यप्रणाली व  संचालन अपरिग्रह नियम पर आधारित है, शरीर वही स्वीकार कर सकता है जिसकी उसे अपरिहार्य आवश्यकता है, शरीर की मौलिक  आवश्यकता के इतर इसमें जो भी प्रविष्ट होता है वह इसके हेतु  अवांछित वैसे हानिकारक है। अतः हमारे शरीर व इसके विभिन्न नियंत्रण प्रणाली का निरंतर व अथक प्रयास यही रहता है कि अवांछित पदार्थ प्रथम तो शरीर में प्रविष्ट ही न करें, इसीलिए जरूरत से अधिक खाते ही तुरंत हमारे अंदर से सावधानी व खाने पर तुरंत  विराम देने हेतु संकेत आने शुरू हो जाते हैं, यह अलग बात है कि हम उन संकेतों की उपेक्षा करते खाना जारी रखते हैं, और आवश्यकता से अधिक यदि खा भी लिया तो यथाशीघ्र अवांछित पदार्थ का  शरीर से निवारण करें। इस प्रकार मेरे शरीर ने भी अपना मौलिक धर्म निभाते  अवांछित व अपचित अतिरिक्त भोजन पदार्थ  को वमन प्रक्रिया द्वारा शरीर से निवारण कर दिया  ।

सच कहें तो जब तक शरीर अपने अपरिग्रह नियम के पालन में सक्षम व सक्रिय  है तब तक हमारे शरीर में किसी प्रकार की व्याधि अथवा विकार नहीं होता, परन्तु जैसे ही इसका अपरिग्रह नियम भंग होता है, किसी भी कारण वश,  प्रायः तो हमारे स्वयं द्वारा ही  शरीरधर्म व इसके सदाचार के प्रति  अनुशासन हीनता व इनकी अवहेलना द्वारा ही , हमारा शरीर अनेक विकार व व्याधियों का शिकार बनता है।देखें तो हमारे शरीर के विभिन्न  विकार जैसे मोटापा, अतिरिक्त कोलेस्ट्रल इत्यादि, जो  अंततः गंभीर बीमारियों जैसे मधुमेह, रक्त चाप व अन्य हृदय संबंधी गंभीर रोग में रूपांतरित हो जाते हैं, के मूल में शरीर के अपरिग्रह नियम का भंग होना ही है ।

देखें तो हमारा शरीर ही नहीं अपितु प्रकृति का हर पक्ष अपरिग्रह सिद्धांत पर ही कार्य करता है, ग्रह नक्षत्रों,  हमारी पृथ्वी की गतिशीलता, सूर्य चंद्रमा एवं अन्य प्रकाश श्रोतों से हमें प्राप्त प्रकाश व ऊर्जा, पृथ्वी पर चर अचर सभी प्रकार का जीवन इसी अपरिग्रह नियम का पालन करते हैं। भौतिकी विज्ञान में विभिन्न सिद्धांत, चाहे वह प्रकाशिकी के हों, चाहे ध्वनितंत्र, चाहे  यांत्रिकी के हों अथवा हाइड्रालिक्स के सिद्धांत सभी का आधार अपरिग्रह नियम का अनुपालन है ।प्रकाश का परावर्तन, अपवर्तन अथवा विवर्तन सभी गुण अपरिग्रह के नियम के अनुपालन के ही परिणाम हैं ।

इसी प्रकार हमारे पशु पक्षियों के व्यवहार में भी अपरिग्रह धर्म का अनुपालन स्पष्ट गोचर होता है ।वे अपनी मौलिक आवश्यकताओं के इतर कोई भी सुविधा का निर्माण अथवा भविष्य हेतु संचयन नहीं करते ।शायद अपरिग्रह के सामान्य नियम के अनुपालन में अपवाद  मनुष्य मात्र ही हैं, मनुष्य अपने अतिरिक्त बुद्धि कौशल व जीवन व्यवहार चातुर्य की सहायता से न सिर्फ अपने जीवन यापन को सुगम बनाने का प्रयास करता है, अपितु वह अपनी व अपने भावी पीढ़ी की आवश्यकता हेतु भी सुविधा संचय करता है, और यही पर अपरिग्रह नियम भंग  होता है । आवश्यकता से अधिक अथवा भविष्य हेतु संचय अपरिग्रह सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है ।सुविधाओं का अतिरिक्त संचयन न मात्र उनके प्रबंधन की समस्या को बढ़ाता है, अपितु यह सुविधाओं व संसाधनों की सामान्य व सहज  उपलब्धता में भी गतिरोध उत्पन्न उत्पन्न करता है ।समाज में व्याप्त विभिन्न आर्थिक विषमताओं, व इनके परिणाम स्वरूप उत्पन्न जटिल सामाजिक विषमताओं के मूल में भी मनुष्य द्वारा  अपरिग्रह नियम की उपेक्षा ही है ।

प्रकृति के संतुलन का आधार उसके अपरिग्रह नियम का अनुपालन ही है।मनुष्य द्वारा इस प्राकृतिक नियम की अवहेलना के  परिणाम स्वरूप जो भी असंतुलन उत्पन्न होता है, प्रकृति अंततः उस संतुलन को वापस स्थापित करने का प्रयास करती है, जिसे हम प्रायः प्राकृतिक आपदा समझते हैं ।इस प्रकार  हमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमें जिन प्राकृतिक आपदाओं व संकटों का आज सामना कर रहे हैं इनके हेतु जिम्मेदार हम स्वयं हैं, इनके मूल में मनुष्य की अपरिग्रह नियम की घोर अवमानना ही है ।

Wednesday, September 4, 2013

दीप बन जलते रहो तुम

है अँधेरा गहन कितना ,
दीप बन जलते रहो तुम ।
पतझड़ों के दौर हों पर ,
पुष्प बन खिलते रहो तुम ।१।  

                          
कौन कहता है गगन का
विस्तार होता है असीमित ?
हौसला ग़र पास हो तो ,
नाप सकते छोर हो तुम ।२।

क्या असंभव, कल्पना क्या ?
कहते किसे दिन में सितारे ?
जो भी सोचो, घटित हो वह,
सोचकर देखो स्वयं  तुम ।३।

कौन कहता आ नहीं
सकते धरा पर चाँद तारे ?
वे सिमटते मुट्ठियों में ,जो
नभ ऊँचाई  उठ खड़े तुम ।४।

विस्तार इतना ! लहर कितनी !
गंभीर है अति  गर्भ सागर ।
फिर भी जो डुबकी लगाओ,
रत्नमणि निधि पा सको तुम ।५।

श्वेत,श्यामल,देश,मजहब,
भेद कितने , नफरतें सौ  ।
जो समझते मनुजता को ,
बंधु जग को  मानते  तुम ।६।

करतल लकीरों में छिपे हैं,
आगत समय के संकेत हलके ।
पढ़ते हृदय निज चेतना जो
जानते  भवितव्यता तुम ।७।

Being Powerfull but Strayed !

 
सब कुछ एक साथ करने की कवायद में  अंततः कुछ भी नहीं हो पाता



For some time I am noticing a serious pattern of scattering in my daily routine and time management. With smart phone in hand, it appears to be great being connected with outside world twenty four hours through facebook, emails and whattsapp,an easy access to my library, the online books collection, which is enlarging in terms of numbers and memory space on my device every day and gives great freedom to read my favorite books any where and anytime, great freedom about listening my favorite music and songs, here again my music and songs collection has swelled in recent time greatly, and the most importantly the great freedom now I enjoy to write and post my blogposts, straight through the Android blogger app downloaded on my mobile set. 

Also it's too handy for any required knowledge and information, anything means anything, any topic on science or maths to clarify doubts of my daughter in her study, to know about any topic, wordmeaning of any word, any general and current news and information about our hobbies, sports, movies, music, politics, what not? So overall to say I should feel wow to clutch this magic tool in my hand all the way, every single hour in my daily life.

How much it have been important for me and in my wife, that I could realiz when it slipped in water few days back accidentally and went dead for few hours and then I felt so incomplete, deprived and helpless without it's readily help available and granted.

But then in backdrop has been churning a whirlpool of reality check. When I audit my progress of last few months about my most priority and important domains of my work related either to my job or and especially to my personal and family life, I am shocked and seriously disappointed to learn that my progress in all the areas above has been poor, in fact it has been dipped badly, hardly I have finished reading any good book, hardly I have been able to listen my favorite Sanskrit bhajans and songs out of my golden collection in routine , hardly I listened any audio book on leader ship and motivation out of my great collection stored in the memory card of my mobile set, hardly I have written any beautiful poem for last some time, and worst and most regretting failing badly to spare important time to help my daughter in her studies, especially when her half yearly examination has been approaching fast.

My wisdom now shouts at me and asks hey man! what the hell you are doing,what about your time management, where is your focus, why you the hell  have been so scattered.

Yes, I can see how scattered I have been,appearing to do everything but actually doing nothing. It haunts where it goes  wrong.

Give a thought and then you realize that  you lack consistency, you lack single mindedness, trying to do everything at every time ultimately sums to accomplish nothing all along. A straight single mindedness, undertaking only one job at a time with all the focus and energy there till it gets over and seen the end is essential to accomplish any important task.To achieve anything remarkable like getting read a set of your favorite and selected books, listen your favorite music and the selected audio tapes to help in personally development, following your health and exercise regime, the daily morning walk and workout needs a sheer single mindedness, commitment and consistent efforts on one's part.

Having give with a tool in hand, however power full and smart it may be, but ultimately it only matters how the person has used it and accomplished the task in hand as well, some thing positive and usefull.

Monday, September 2, 2013

The Peak and Crest

Often the heart sinks,
of the difficulties that one faces in life,
it looks going so tough, like no way out.

And then one needs to stop a few moments ,
just to relax and shed it back,
to realize it's nothing unusual for the one.

It's nothing like feeling alone ,the unfortunate one,
as every  other as well  negotiating through
the tough path that life lays in front, the sideways implanted of trees laden with fruits,
some are sweet  and some are sour
what ever they are, for the time being they're your .

So much uncertain, so much fragile, but for the certainty every thing that is a while ,
sticks good or pinches the bad, tomorrow it has to change.
Only the way out is to keep on journying,
till the last step,the last breath .