Wednesday, July 31, 2013

क्या पुलिस व प्रशासन के लिये धर्मनिरपेक्षता का मायने यही है ?

सत्यमेव जयते ?
क्या हमारे संविधान- शिल्पियों ने  इसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप  को वर्तमान विभत्सता हेतु ही गढ़ा था ?


लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता के प्रति सामान्य रूप से आस्थावान भारतीय बहुसंख्यक वर्ग की हृदय, आत्मा व सहनशीलता को झँकझोरती व चुनौती देती यह दो दिनों के अंदर हुईं देश के अंदर दो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं -

1.दिल्ली में एक किशोर युवा गौरव पांडेय को मोटरसाइकल स्टंटबाजी के गुनाह में पुलिस उसे निर्दयता व बेरहमी से सरेआम गोलियों से भून देती है, जबकि वही पुलिस एक खतरनाक आतंकवादी को भी उसके किसी धर्म विशेष से जुड़े होने के नाते उसे पकड़ने या उसके विरुद्ध कार्यवाही करने में हिचकिचाती और हीलाहवाली करती है ।

2.
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री एक युवा व कर्मठ आइ ए यस महिला अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को इसलिए निलंबित करते हैं कि उसने अपनी ड्यूटी ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा से करते एक विशेष समुदाय द्वारा सार्वजनिक सरकारी भूमि पर अवैध रूप से निर्मित पूजा भवन को तुड़वा दिया, जबकि उन्हीं मुख्य मंत्री महोदय की अपनी सरकार के ही एक मंत्री जो एक विशेष समुदाय से ताल्लुकात रखते हैं खुलेआम धर्म के नाम पर देश द्रोह तक कर देने की चुनौती देते हैं उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही तो दूर उन्हें ऐसा न करने का निर्देश या औपचारिक हिदायत तक नहीं देते। 

हमारे संविधान ने हमारे देश को धर्म निरपेक्ष रखा है ताकि सभी धर्म, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक, बराबर अधिकार व आजादी से रहें किंतु यह घटनाएं भारतीय बहुसंख्यक वर्ग की धर्म निरपेक्षता में उनकी आस्था को झँकझोर देने वाली हैं ।

यह धर्म निरपेक्षता है या धर्म भेदभाव पूर्णता , जबकि कानून व न्याय की शपथ लेने वाले व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के स्थान पर तैनात लोग व संस्था ही धर्मविशेष के आधार पर सही गलत का फैसला और सजा निर्धारित कर रहे हैं ?

बहुसंख्यक वर्ग के विरुद्ध सत्ता का इतना दुरुपयोग व भेद भाव का आचरण , विशेष कर न्याय व कानून के मामलों में, तो शायद मुगल व ब्रिटिश सल्तनत में भी नहीं हुआ था जबकि सत्तासीन विदेशी थे और वे बहुसंख्यक वर्ग के धर्म से गैर व इनके विरोधी थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि देश के वर्तमान सत्तालोलुप व स्वार्थी राजनीतिक वातावरण में हमारा स्वयं अपने देश व मातृभूमि में ही अपना जीवन व आस्था अब सुरक्षित व सुनिश्चित नहीं है ।

Tuesday, July 30, 2013

बेचारी गरीबी की जान के कितने दुश्मन !

उपेक्षित भारतीय दूतावास मास्को - भारतीय गरीबी या हमारी सब चलता है की प्रवृत्ति

म्रेरे एक मित्र हैं जो एक आधिकारिक दौरे पर हाल ही में मास्को की यात्रा पर गये थे। उनकी यात्रा बड़ी सुखद व सुंदर रही, उन्होंने वहाँ से कई सुंदर तस्वीरे भी साझा की जिन्हे देखकर मन आनंदित हुआ। परंतु मेरे मित्र को इस बात का बड़ा मलाल है कि मास्को में भारतीय दूतावास का रखरखाव कतई अच्छा नहीं है,लॉन में तितर बितर बढ़ी घास,चमकहीन व कहीं कहीं टूटी फर्सें, दूतावास का भवन बिना ठीक रखरखाव के बिल्कुल उजाड़ व उपेक्षित लगता है।उनको इस बात का बहुत दुःख लगा कि जहाँ विजया लक्ष्मी पंडित, धर , कौल जैसी महान व परम सत्ता परिवार के सदस्य व अति नजदीकी विभूतियाँ राजदूत पद को शुशोभित किया,उस भवन व गरिमामय केंद्र की ऐसी उपेक्षा की जा रही है। उनका यह दुख यह देखकर और भी  गहरा हो गया था कि वहीं पड़ोस के भवन, जिनमें फ्रांसीसी ,ईरानी दूतावास अवस्थित हैं, बड़े ही सलीके,शानदार , सुंदर व स्वच्छ रूप में मैंटेन हैं।

उनसे बातचीत में मैने अपना आश्चर्य व्यक्त करते उनसे कहा कि भला इसमें इतना दुख होने की क्या बात है,हम भारतीय तो अव्यस्था व अस्तव्यस्तता के लिये नामधारी हैं, इससे तो हमारी भारतीयता की पहचान ही विदेशों में अक्ष्क्षुण रही है, और इसमें हर्ज ही क्या है। किंतु मेरी बात पर उन्हें कोई संतोष  नहीं हुआ व उनका दुख कतई कम नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने और दुखी होते कहा कि सर, यही तो चुभता है कि आज भी, आजादी के 66 वर्षों के बाद भी , हमारा देश संसार में गरीब देश के रूप में जाना जाता है। मैंने उनको फिर आश्वस्त करना चाहा कि भला आप भारत और गरीबी की पहचान को क्यों खामखाह कोसते हो भाई। आखिर गरीबी तो भारत की विशिष्टता व खास पहचान पिछले सत्तर पचहत्तर साल की रही है। आखिर इसी गरीबी ने हमारे कितने ही महान भारतीयों के यशोगान व कीर्ति में कितना योगदान किया है, भला इसे आप कैसे नदरअंदाज कर सकते हैं।अरे गौर तो फरमाइये भाई साहब, अमार्त्य सेन नोबल पुरस्कार पा गये, सत्य जीत रे अपनी भारतीय गरीबी चित्रण करती फिल्मों से कितना नाम कमाये, अरुंधती रॉय इसी भारतीय गरीबी का वर्णन करते करते विश्वप्रसिद्थ लेखक व वक्ता बन गयीं, स्लमडॉग मिलिनेयर सुपर हिट रही , उसे ऑस्कर तक मिला, आखिर भारत विश्व भर में गरीब प्रोजेक्ट न होता तो इतना कुछ ये महोदय लोग हासिल कैसे कर पाते ।

मैंने उन्हे उलाहना देते कहा कि भाईसाहब अब क्या लीजिएगा,  इस बेचारी गरीबी की जान? वैसे भी हमारे नीति निर्धारक व हमारा योजना आयोग बेचारी गरीबी के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, उन्होंने एक कलम घुमाई और १० करोड़ गरीब छलांग लगाकर रातों रात अमीर बन गए ।अब तो कई सांसद भी इस गरीबी के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं ।अब १२ रुपये थाली भोजन उपलब्ध कराइयेगा तो गरीबी बेचारी कहाँ से जिंदा रहेगी ।ऊपर से सरकार फुड सिक्योरिटी बिल भी जल्द से जल्द लाने के फिराक में है, फिर तो रही सही गरीबी भी गायब।इस गरीब व लाचार गरीबी के पीछे सब हाथ धोकर पड़ गये हैं, और अब आप भी ।


अंत में मैं उनको सांत्वना व उलाहना सा देते यह भी कहा कि भला हमारी भारत सरकार ने भी इन महान विभूतियों द्वारा भारत की गरीबी के प्रचार प्रसार के महान कार्य के लिये एक बाबू मोसाय को राष्ट्रीय सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार भारतरत्न से नवाजा,और एक आप हैं इस गरीबी से भारत की इमेज को धक्का लगने की बात करते हैं।मैं तो उनको राय दिया कि इस बात पर दुखी मत होइये बल्कि गर्व कीजिए कि आप इतने महान व गौरवशाली गरीब देश के हँसते-मुस्कराते जिंदा नागरिक हैं।

Friday, July 26, 2013

बीती बातें बीत चुकी हैं........

विगत विचारों की वन वीथि , उनमें भटका मन खोया सा 


बीती बातें बीत चुकी हैं , उनको लेकर क्या सिर धुनना ।
मन माला जो टूटी बिखरी, चुनकर दाने पुनः पिरोना ।१।


सुस्ता लो पर रुको नहीं तुम , चलते रहना ही जीवन है ।   
तेज समय की गति आज मुश्किल जो है वह कल आसाँ है।२।

  
उदित हुआ जो अस्त हुआ है, दुनिया है बस आना जाना ।
एक प्रेम स्थाई  रहता , बाकी तो बस पाना खोना ।३|


सारे सुख हैं अपने भीतर , बाहर से  दुःख पर क्या रोना ।
जब है अपना हृदय समागम,क्या कहना और क्या है सुनना।४|


कुछ  बातें दिल को चुभ जातीं मन  को भारी ठेस पहुँचती ।
वक़्त लगाता  मरहम इनपर, बीती बात कहानी बनती ।५|


आप करो जो कर सकते हो, होना जो है कहाँ टला है !
हो मनमाफिक बहुत भला है, ना-मन-माफिक और भला है ।६|

Wednesday, July 24, 2013

क्योंकि पिता भी कभी पुत्र है.....

यह मोह  या अवलंब तत्पर ?


कृपया लेख का शीर्षक पुराने बड़े पॉपुलर टीवी सोप ओपेरा के समानांतर नाम होने से इसको किसी परिहास अथवा अन्यथा में न लें, इसका टीवी सीरियल के अजीबोगरीब ड्रामा अथवा उसके किसी प्रकार की पैरोडी होने से इसका  कोई संबंध नहीं । यहाँ तो बस मैं स्वयं की पुत्र से पिता तक की जारी इस  जीवन यात्रा की कुछ  अनुभूतियाँ आपसे साझा कर रहा था ।

मेरा बेटा  पिछले सप्ताह अपने  इंजीनियरिंग चौथे सेमिस्टर की परीक्षा के बाद मिले समरब्रेक में वैष्णो देवी दर्शन हेतु अपने टूर की योजना बनाया  ।वैसे तो हमारे बिना साथ, ग्रुप में अथवा अकेले ही वह साल में एकाधबार अपने स्कूल के समय से ही बाहर घूमने विभिन्न स्थानों पर जाता  रहा है, विशेष कर  कभी स्कूल /कॉलेज का टूर, या दोस्तों के साथ किसी टूरिस्ट प्लेस  य़ा कभी कभार अकेले अपने दादा जी से मिलने बनारस जाना। परंतु वैष्णो देवी की दर्शन यात्रा पर अकेले जाने की उसकी योजना से मेरा पिता-मऩ थोड़ा बहुत हिचकिचा रहा था ,कारण था मेरे मन में  उसका स्वयं के प्रति जिम्मेदार होने के प्रति पूरा आश्वस्त न होना व कुछ आशंकायें जैसे  उसके बेफिक्र हो सोने  की आदत, अपने सर -सामान  की ताकीद के  प्रति लापरवाही की आदत  ,उसकी अपनी सुरक्षा संबंधी मेरी चिंता व घबराहट इत्यादि ।और फिर उसका  वैष्णो देवी की कठिन चढ़ाई व वहाँ दर्शन की जटिल  औपचारिकताओं को अकेले मैनेज करना, सच पूछें तो मैं इन सब बातों को लेकर थोड़ा नर्वस था और बेटे द्वारा सब कुछ अकेले अच्छे से मैनेज कर सकने में मैं  पूरा आश्वस्त नहीं था ।

हालाँकि मुझे एक जिम्मेदार पिता के रूप में  इस बात का पूरा अहसास व समझ है कि बेटा अब बड़ा हो गया है, और उसका  आत्म निर्भर होना, उसे आत्म विश्वास के साथ कहीं भी जाने में सक्षम होना उसके व्यक्तित्व के  पूर्ण विकास के मुख्य अंग हैं और उसकी इसमें उचित  ट्रेनिंग व सहयोग  एक पिता के रूप में मेरी मुख्य जिम्मेदारी व नैतिक दायित्व भी   है, इसी कारण मैं अपने मन की चिंता व घबराहट को उससे व्यक्त करने में संकोच कर रहा   था,परंतु जैसा पहले ही कहा मेरा पिता-मन उसके अकेले वैष्णो देवी दर्शन यात्रा के प्लान से निश्चय ही मैं अपने अंदर थोड़ा  घबराया व व्यग्र था।

मैंने बंगलौर से  दिल्ली तक फिर दिल्ली से जम्मू तक का उसका ट्रेन रिजर्वेशन व वहाँ रुकने इत्यादि की व्यवस्था कर दिया ।बंगलौर से उसके प्रस्थान के समय मेरे चेहरे पर व्यग्रता व फिक्र की रेखायें छुपी नहीं थीं, और मैं उसे टूर के दौरान उसे सावधानी व सुरक्षा की ढेर सारी ताकीद दे रहा था, वहीं पर मेरे इस व्यवहार की प्रतिकृया में मेरे बेटे के  चेहरे पर झुँझलाहट व हँसी मैं स्पष्ट देख सकता था।

मेरे लिये खुशी व राहत की बात रही कि  बेटे ने अपनी इस यात्रा में   सबकुछ अच्छे से और सकुशल  मैनेज कर लिया, यहाँ तक कि वह दिल्ली पहुँचकर अपने कुछ दोस्तों को भी अपने साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर ले गया, जो पहली बार वैष्णो देवी जा रहे थे, और उनकी यात्रा की  सारी व्यवस्था  ,ट्रेन में रिजर्वेशन, ठहरने, मार्ग दर्शन इत्यादि की जिम्मेदारी भी उसने बड़े आश्वस्त तरीके व जिम्मेदारी के साथ निभाया और आज वह वैष्णो देवी की यात्रा सकुशल पूरी कर दिल्ली वापस आ गया ।वहाँ से उसका प्लान बनारस जाकर अपने दादा दादी से मिलने व फिर अगले सप्ताह अपने कॉलेज खुलने के पूर्व  बंगलौर  वापसी का है ।

बेटे के द्वारा अपनी यह  यात्रा   अच्छे से मैनेज करने से मुझे खुशी व संतोष के साथ साथ स्वयं के अंदर के पिता की अनावश्यक व्यग्रता व अपने बेटे की काबीलियत पर पूरी तरह से आश्वस्त न होने का अपराधबोध व संकोच  का भी अनुभव हुआ ।बेशक माता पिता का अपने बच्चों की सुरक्षा व संरक्षण को लेकर चिंतित होना जायज़ व लाज़िमी है, परंतु विचार करें तो यह भान होता है कि बच्चों के प्रति हमारी कुछ अतिरिक्त ही  चिंता व उनके प्रति जरूरत से  अधिक  ,  दुराग्रह के स्तर तक, संरक्षण का भाव  के कारण कई बार हम , स्वयं माता पिता  ही, उनके आत्म निर्णय की योग्यता व आत्म विश्वास के विकास  में बड़े  बाधक बन जाते हैं ।

यदि हम बचपन से अब तक के अपने  निजी अनुभव की ही जाँच करें तो स्पष्ट पता चलता है कि हम अपने जीवन में  जो भी काम स्वयं कर सके, जो निर्णय स्वयं लिये,बेशक उसमें कुछ  गलत या सही कियेउनके अच्छे बुरे परिणामों को स्वयं  झेले हैं, हमारे वे ही अनुभव हमारे जीवन के सबसे ठोस व बुनियादी सीख  हैं और अंततः यही सीखें ही  हमारे व्यक्तित्व की सबसे मजबूत पक्ष  हैं,जिनमें हम स्वयं को  आत्मविश्वास से पूर्ण व सक्षम अनुभव करते हैं व अपने जीवन में आवश्यकता के अनुसार निर्णय लेने की योग्यता रखते हैं  

मैं अपनी बारहवी कक्षा तक स्कूल की पढ़ाई  अपने  गाँव,कस्बे में रहकर किया, फिर प्रथम बार घर से दूर  ग्रैडुएट कोर्स में दाखिला लेने शहर  अकेले गया तो अपने पिता जी की आंखों व आवाज़ में वहीं व्यग्रता व चिंता अनुभव किया था जो अब स्वयं पिता के रूप में बेटे के अकेले टूर पर जाने पर  अनुभव कर रहा था । फिर मैं शहर में विश्वविद्यालय में अपने दाखिले से लेकर, हॉस्टल में रहने की व्यवस्था जैसी अपनी छोटीमोटी  जरूरतें व जिम्मेदारियाँ खुद से मैनेज किया, कुछ गलत किया, कुछ सही किया, पर जीवन का यह शुरुआती निजी अनुभव निश्चय ही मेरे  आत्म विश्वास को बढ़ाने व अपने जीवन के विभिन्न जरूरतों हेतु स्वयं ही निर्णय ले सकने में आज भी मददगार सिद्ध होता है ।

हालाँकि मेरा अभी तीस वर्ष से भी अधिक समय से दूर विभिन्न स्थानों पर रहते व घूमते हो गया, पर मेरे पिता जी अब भी मेरे बारे में उतने ही व्यग्र व फिक्र मंद रहते हैं ,उन्हें मेरी अपने प्रति,अपने खानपान के प्रतिअपने सामान के  सुरक्षा के प्रति लापरवाही की सदा फिक्र रहती हैं, छुट्टियों में उनसे मिलकर गाँव से वापसी की मेरी यात्रा पर वे आज भी  मुझे ढेर सारी हिदायतें,जैसे गाड़ी में सँभल कर चढ़ना,अपने सामान का ध्यान रखना, किसी से झगड़ा झंझट मत करना,पहुँचने पर फोन जरूर करना  इत्यादिदेना नहीं भूलते जिनपर मुझे थोड़ी झुँझलाहट व हँसी दोनों आती है मुझे लगता है कि मैं तो बड़ा हो गया पर पिता जी अब भी  मुझे बच्चा समझते , यह क्या बेमतलब   हिदायतें देते हैं।


और अब मैं  स्वयं पिता  के रूप में अपने बेटे को अपनी उसके प्रति  पिता की स्वाभाविक फिक्रमंदी के तहत जब सीख व हिदायतें देता हूँ तो उसके चेहरे पर इसी जानी पहचानी झुँझलाहट व हँसी को देखता हूँ ,उसे भी मेरी हिदायतें व मेरी उसके प्रति चिंता बेमतलब व बिलावजह लगती है । बेटा अब बड़ा हो गया है, और मैं अब पूरा का पूरा पिता ।

Thursday, July 18, 2013

स्वयं के प्रति प्रेम व सहृदयता का महत्व



कल शाम ऑफिस से वापस घर आया तो मेरी पत्नीजी की एक मित्र, जो हमारे ही एपार्टमेंट में ऊपर वाली मंजिल के एक फ्लैट में रहती हैं,पधारी थीं व उनकी मेरी पत्नीजी के साथ कुछ वार्तालाप चल रहा था।इन मोहतरमा के पतिदेव किसी बैंक में कार्य करते हैं व इनके दो छोटे व बड़े ही प्यारे बच्चे हैं। कुछ महीने पहले उनके छोटे बेटे के जन्म की पार्टी में हमलोग सपरिवार आमंत्रित थे और तब उनके घर पहली बार जाना हुआ उनका विस्तृत व व्यस्थित पुस्तक संग्रह देखकर बड़ा अच्छा लगा व उनकी पुस्तकों व पाठन के प्रति विशेष अभिरुचि जानकर मन बड़ा प्रभावित व प्रसन्न हुआ ।

कल शाम भी वे मेरी पत्नी जी से एक महत्वपूर्ण पुस्तक की ही चर्चा कर रही थीं जो उन्होने हाल में ही पढ़ी है । वे यह पुस्तक अपने साथ लायी थीं व मेरी पत्नी जी को यह पुस्तक जरूर पढ़ने की हिदायत देने के साथ विदा हुईं।उनकी यह आत्मीयता बड़ी अच्छी व सुखद लगी।

यह पुस्तक प्रसिद्ध अमरीकी लेखक व मेटाफिजिक्स विशेषज्ञ लुइस एल हे ( Luiese L Hay) की लिखी तीन प्रसिद्ध पुस्तकों-You can heal your life, Heal your body and The power is within you  का संकलन है और यह अपने नाम The Golden Collection के अनुरूप वाकई में ही आत्मग्यान व आत्म समृद्धि व शारीरिक व मानसिक उपचार के परिज्ञान का एक स्वर्णिम संकलन है ।

हालांकि अभी मैंने यह पुस्तक पढ़ना शुरू ही किया है व इसके कुछ शुरुआती चैप्टर ही पढ़ पाया हूँ, परंतु इस पुस्तक में लिखी बातें व सुझाव  बड़े ही प्रभावी व इसे पढ़ते समय आपके अतर्मन की परत दर परत खुलते से अनुभव  होते है ।लेखक ने पुस्तक की भूमिका व शुरुआती चैप्टर में इस तथ्य को पाठकों की जेहन में स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि हमारे भूतकाल के विचार ही हमारी वर्तमान स्थिति व हमारे वर्तमान के विचार ही हमारे भविष्य की स्थिति  का निर्माण व निर्धारण करते हैं । इस प्रकार हमारे जीवन में शारीरिक, मानसिक ,आर्थिक अथवा व्यवसायिक जो भी मसले और परेशानियों व फसाद हैं उनके लिये जाती तौर पर जिम्मेदार हमारे खुद के अपने विचार ही हैं 

सेखिका मोहतरमा ने अपनी पुस्तक की भूमिका व प्रथम चैप्टर में यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर रचित यह सृष्टि हमारे विचारों के अच्छे-बुरे होने की कोई विवेचना नहीं करती, उनपर कोई उचित अनुचित की मुहर नहीं लगाती, बल्कि वह तो हमारी ख्वाहिस के ही मुताबिक बड़े तठस्थ भाव से एक स्वामिभक्त जिनी के माफिक, आपकी ख्वाहिश ही मेरे लिये हुक्म है मेरे आका का मंत्र पढ़तेउसे पूरा करने में पूरी ताकत और शिद्दत से जुट जाती है । लेखिका महोदया तो यहाँ तक कहती है कि हम अपनी तकदीर, यहाँ तक कि अपने पैदाइशी हालात,अपने मातापिता का चयन, अपने जीवन  के अच्छे बुरे अवसर, सफलता अथवा असफलता सभी स्वेच्छा से अपने विचारों के अनुरूप ही चुनते हैं । हमारी बीमारी, शारीरिक या मानसिक समस्यायें सबकी  जड़ में हमारे खुद के विचार ही है ।हम बीमार भी इसलिए ही होते हैं क्योंकि हम ऐसी ख्वाहिस रखते हैं ।उनके अनुसार तो मात्र अपने विचार प्रणाली के नियंत्रण से ही हम किसी भी प्रकार की बीमारी व समस्या  से निजात पा सकते हैं ।

लेखिका का यह भी कथन है कि हमारे जीवन की समस्यायों मिलने वाली अड़चनों का दूसरा जाती कारण है हमारा  स्वयं के प्रति प्रेम व सहृदयता का कतई अभाव जिसके कारण हम प्रायः अवसाद, निराशा व दुख वैसे अंततः किसी गंभीर बिमारी से ग्रस्त होते हैं । लेखिका महोदय ने स्पष्ट व पाठकों को एक प्रकार से ऐतिहात करते हुए लिखा है कि स्वयं से प्रेम का तात्पर्य अहंकार, आत्मश्लाघा अथवा स्वार्थपरता कतई नहीं है, बल्कि ये तो हमारी कमजोरी व भयपरता के लक्षण हैं, बल्कि इसका तात्पर्य आत्म सम्मान व स्वयं के शरीर, मन, विवेक व अपने सद्गुणों के प्रति आत्मकृतज्ञता व स्नेह से  है। यह एक प्रकार से हमारी स्वयं के प्रति हमारी अंतर्निष्ठा व सहृदयता से है यानि हमारी निरंतर कृतज्ञता व सहृदयता - अपने शरीर में अंतर्संचालित जीवनप्रकृया व जीवनतंत्र के  प्रति यानि अपने शरीर व मन के तंत्र की अद्भुत कार्य प्रणाली व उनके स्वतः   संचालन के प्रति,अपने जीवित-प्राणयुक्त होने के प्रति, अपने परिवेश , उसमें उपस्थित हरियाली व जीवन  की उपस्थिति के प्रति व उकी अंतर्निहित सुंदरता के प्रति, ,अपने चारों ओर फैली प्रकृति व इसकी जीवंतता के प्रति ,एक पूर्ण समर्पित कृतज्ञता व सहृदयता का भाव, यही तो है स्वयं से यथार्थ  प्रेम ।

इस के विपरीत हमारे अंदर आत्म ग्लानि, अपराध बोध, क्रोध, हिंसा, घृणा चाहे स्वयं के प्रति
अथवा किसी अन्य के प्रति, का भाव ही स्वयं के प्रति हमारे प्रेम का अभाव दर्शाता है, परिणाम स्वरूप यह अभाव अंततः हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं, आर्थिक अभाव के रूप में, शारीरिक स्वास्थ्य को अभाव के रूप में, मानसिक सुख व शांति को अभाव के रूप में, जीवन में सुअवसरों व सफलता का अभाव,  इस प्रकार जीवन के विभिन्न पक्षों में ही अभाव के रूप में दृष्टिगोचर व अनुभव होता है ।

लेखक के अनुसार आत्म सम्मान, अपने श्रम व योग्यता का सही मूल्यांकन, व आत्म विश्वास भी स्वयं के प्रति प्रेम व सहृदयता के  प्रमुख व उतने ही महत्वपूर्ण अंग हैं । लेखक ने उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार बड़े योग्य व प्रतिभासंपन्न व्यक्ति भी अपनी योग्यता व प्रतिभा को समुचित सम्मान न देने के कारण प्रायः अपने जीवन में यथोचित सफलता से वंचित रह जाते हैं।लेखक के अनुसार स्वयं के योग्यता  व मूल्य की अवहेलना भी एक प्रकार से हमारा स्वयं के प्रति प्रेम व सहिष्णुता का अभाव ही दर्शाता है, जो पुनः हमारे जीवन विभिन्न प्रकार के अभावों व समस्याओं के रूप में अंततः परिलक्षित होता है।


इस प्रकार लेखक का यह स्पष्ट सुझाव है कि अपने भाग्यविधाता हम स्वयं हीं हैं, साथ ही साथ अपने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ अपने जीवन में यदि हमें निरंतर सुख और समृद्धि को सुनिश्चित करना है तो हमें प्रथमतया स्वयं से प्रेम व सहिष्णुता रख कर जीना सीखना होगा  यही जीने की कला है ।

(सभी चित्र गूगल के सौजन्य से)