Wednesday, July 24, 2013

क्योंकि पिता भी कभी पुत्र है.....

यह मोह  या अवलंब तत्पर ?


कृपया लेख का शीर्षक पुराने बड़े पॉपुलर टीवी सोप ओपेरा के समानांतर नाम होने से इसको किसी परिहास अथवा अन्यथा में न लें, इसका टीवी सीरियल के अजीबोगरीब ड्रामा अथवा उसके किसी प्रकार की पैरोडी होने से इसका  कोई संबंध नहीं । यहाँ तो बस मैं स्वयं की पुत्र से पिता तक की जारी इस  जीवन यात्रा की कुछ  अनुभूतियाँ आपसे साझा कर रहा था ।

मेरा बेटा  पिछले सप्ताह अपने  इंजीनियरिंग चौथे सेमिस्टर की परीक्षा के बाद मिले समरब्रेक में वैष्णो देवी दर्शन हेतु अपने टूर की योजना बनाया  ।वैसे तो हमारे बिना साथ, ग्रुप में अथवा अकेले ही वह साल में एकाधबार अपने स्कूल के समय से ही बाहर घूमने विभिन्न स्थानों पर जाता  रहा है, विशेष कर  कभी स्कूल /कॉलेज का टूर, या दोस्तों के साथ किसी टूरिस्ट प्लेस  य़ा कभी कभार अकेले अपने दादा जी से मिलने बनारस जाना। परंतु वैष्णो देवी की दर्शन यात्रा पर अकेले जाने की उसकी योजना से मेरा पिता-मऩ थोड़ा बहुत हिचकिचा रहा था ,कारण था मेरे मन में  उसका स्वयं के प्रति जिम्मेदार होने के प्रति पूरा आश्वस्त न होना व कुछ आशंकायें जैसे  उसके बेफिक्र हो सोने  की आदत, अपने सर -सामान  की ताकीद के  प्रति लापरवाही की आदत  ,उसकी अपनी सुरक्षा संबंधी मेरी चिंता व घबराहट इत्यादि ।और फिर उसका  वैष्णो देवी की कठिन चढ़ाई व वहाँ दर्शन की जटिल  औपचारिकताओं को अकेले मैनेज करना, सच पूछें तो मैं इन सब बातों को लेकर थोड़ा नर्वस था और बेटे द्वारा सब कुछ अकेले अच्छे से मैनेज कर सकने में मैं  पूरा आश्वस्त नहीं था ।

हालाँकि मुझे एक जिम्मेदार पिता के रूप में  इस बात का पूरा अहसास व समझ है कि बेटा अब बड़ा हो गया है, और उसका  आत्म निर्भर होना, उसे आत्म विश्वास के साथ कहीं भी जाने में सक्षम होना उसके व्यक्तित्व के  पूर्ण विकास के मुख्य अंग हैं और उसकी इसमें उचित  ट्रेनिंग व सहयोग  एक पिता के रूप में मेरी मुख्य जिम्मेदारी व नैतिक दायित्व भी   है, इसी कारण मैं अपने मन की चिंता व घबराहट को उससे व्यक्त करने में संकोच कर रहा   था,परंतु जैसा पहले ही कहा मेरा पिता-मन उसके अकेले वैष्णो देवी दर्शन यात्रा के प्लान से निश्चय ही मैं अपने अंदर थोड़ा  घबराया व व्यग्र था।

मैंने बंगलौर से  दिल्ली तक फिर दिल्ली से जम्मू तक का उसका ट्रेन रिजर्वेशन व वहाँ रुकने इत्यादि की व्यवस्था कर दिया ।बंगलौर से उसके प्रस्थान के समय मेरे चेहरे पर व्यग्रता व फिक्र की रेखायें छुपी नहीं थीं, और मैं उसे टूर के दौरान उसे सावधानी व सुरक्षा की ढेर सारी ताकीद दे रहा था, वहीं पर मेरे इस व्यवहार की प्रतिकृया में मेरे बेटे के  चेहरे पर झुँझलाहट व हँसी मैं स्पष्ट देख सकता था।

मेरे लिये खुशी व राहत की बात रही कि  बेटे ने अपनी इस यात्रा में   सबकुछ अच्छे से और सकुशल  मैनेज कर लिया, यहाँ तक कि वह दिल्ली पहुँचकर अपने कुछ दोस्तों को भी अपने साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर ले गया, जो पहली बार वैष्णो देवी जा रहे थे, और उनकी यात्रा की  सारी व्यवस्था  ,ट्रेन में रिजर्वेशन, ठहरने, मार्ग दर्शन इत्यादि की जिम्मेदारी भी उसने बड़े आश्वस्त तरीके व जिम्मेदारी के साथ निभाया और आज वह वैष्णो देवी की यात्रा सकुशल पूरी कर दिल्ली वापस आ गया ।वहाँ से उसका प्लान बनारस जाकर अपने दादा दादी से मिलने व फिर अगले सप्ताह अपने कॉलेज खुलने के पूर्व  बंगलौर  वापसी का है ।

बेटे के द्वारा अपनी यह  यात्रा   अच्छे से मैनेज करने से मुझे खुशी व संतोष के साथ साथ स्वयं के अंदर के पिता की अनावश्यक व्यग्रता व अपने बेटे की काबीलियत पर पूरी तरह से आश्वस्त न होने का अपराधबोध व संकोच  का भी अनुभव हुआ ।बेशक माता पिता का अपने बच्चों की सुरक्षा व संरक्षण को लेकर चिंतित होना जायज़ व लाज़िमी है, परंतु विचार करें तो यह भान होता है कि बच्चों के प्रति हमारी कुछ अतिरिक्त ही  चिंता व उनके प्रति जरूरत से  अधिक  ,  दुराग्रह के स्तर तक, संरक्षण का भाव  के कारण कई बार हम , स्वयं माता पिता  ही, उनके आत्म निर्णय की योग्यता व आत्म विश्वास के विकास  में बड़े  बाधक बन जाते हैं ।

यदि हम बचपन से अब तक के अपने  निजी अनुभव की ही जाँच करें तो स्पष्ट पता चलता है कि हम अपने जीवन में  जो भी काम स्वयं कर सके, जो निर्णय स्वयं लिये,बेशक उसमें कुछ  गलत या सही कियेउनके अच्छे बुरे परिणामों को स्वयं  झेले हैं, हमारे वे ही अनुभव हमारे जीवन के सबसे ठोस व बुनियादी सीख  हैं और अंततः यही सीखें ही  हमारे व्यक्तित्व की सबसे मजबूत पक्ष  हैं,जिनमें हम स्वयं को  आत्मविश्वास से पूर्ण व सक्षम अनुभव करते हैं व अपने जीवन में आवश्यकता के अनुसार निर्णय लेने की योग्यता रखते हैं  

मैं अपनी बारहवी कक्षा तक स्कूल की पढ़ाई  अपने  गाँव,कस्बे में रहकर किया, फिर प्रथम बार घर से दूर  ग्रैडुएट कोर्स में दाखिला लेने शहर  अकेले गया तो अपने पिता जी की आंखों व आवाज़ में वहीं व्यग्रता व चिंता अनुभव किया था जो अब स्वयं पिता के रूप में बेटे के अकेले टूर पर जाने पर  अनुभव कर रहा था । फिर मैं शहर में विश्वविद्यालय में अपने दाखिले से लेकर, हॉस्टल में रहने की व्यवस्था जैसी अपनी छोटीमोटी  जरूरतें व जिम्मेदारियाँ खुद से मैनेज किया, कुछ गलत किया, कुछ सही किया, पर जीवन का यह शुरुआती निजी अनुभव निश्चय ही मेरे  आत्म विश्वास को बढ़ाने व अपने जीवन के विभिन्न जरूरतों हेतु स्वयं ही निर्णय ले सकने में आज भी मददगार सिद्ध होता है ।

हालाँकि मेरा अभी तीस वर्ष से भी अधिक समय से दूर विभिन्न स्थानों पर रहते व घूमते हो गया, पर मेरे पिता जी अब भी मेरे बारे में उतने ही व्यग्र व फिक्र मंद रहते हैं ,उन्हें मेरी अपने प्रति,अपने खानपान के प्रतिअपने सामान के  सुरक्षा के प्रति लापरवाही की सदा फिक्र रहती हैं, छुट्टियों में उनसे मिलकर गाँव से वापसी की मेरी यात्रा पर वे आज भी  मुझे ढेर सारी हिदायतें,जैसे गाड़ी में सँभल कर चढ़ना,अपने सामान का ध्यान रखना, किसी से झगड़ा झंझट मत करना,पहुँचने पर फोन जरूर करना  इत्यादिदेना नहीं भूलते जिनपर मुझे थोड़ी झुँझलाहट व हँसी दोनों आती है मुझे लगता है कि मैं तो बड़ा हो गया पर पिता जी अब भी  मुझे बच्चा समझते , यह क्या बेमतलब   हिदायतें देते हैं।


और अब मैं  स्वयं पिता  के रूप में अपने बेटे को अपनी उसके प्रति  पिता की स्वाभाविक फिक्रमंदी के तहत जब सीख व हिदायतें देता हूँ तो उसके चेहरे पर इसी जानी पहचानी झुँझलाहट व हँसी को देखता हूँ ,उसे भी मेरी हिदायतें व मेरी उसके प्रति चिंता बेमतलब व बिलावजह लगती है । बेटा अब बड़ा हो गया है, और मैं अब पूरा का पूरा पिता ।

2 comments:

  1. एक पिता भले ही व्यग्र रहे, पर वह चाहता अवश्य है कि उसका पुत्र अपने निर्णय स्वयं कर समाज में स्वयं को सुस्थापित करे। या तो पुत्र यह उत्तरदायित्व उठा ले या पिता उसे ऐसा करने के लिये प्रेरित करे। आप भाग्यशाली हैं कि आपको बच्चे को प्रेरित नहीं करना पड़ा है, मुझे तो पिताजी ने स्पष्ट बोल दिया था, कि अब समय आ गया है, अपना ध्यान स्वयं रखो। बहुत ही संवेदनीय विषय..आभार विचार प्रवाह जगाने का।

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  2. अक्सर आप जैसा ही सभी का अनुभव रहता है. शयाद यह पिता का गहन वातसल्य है जो वो कभी व्यक्त नही कर पाता किंतु पुत्र वातसल्य से पिता ओतप्रोत रहता है.

    बच्चे ने सब मेनेज कर लिया तो समझिये कि जीवन में आगे बढने का एक साहस उसे भी मिल गया और आपको भी.

    बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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