Tuesday, January 24, 2012

अनुभव के चार सोपान- अस्तित्व,अनुभूति,चिंतन और कर्म

डा. दीपक चोपड़ा मेरे कॉलेज के दिनों से ही मेरे प्रिय लेखक रहे हैं। मैंने पहली बार इनकी पुस्तक Return of the Rishi (1989) पढ़ी थी, जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष का छात्र था, और इससे बहुत प्रभावित हुआ था। बाद में इनकी - Unconditional Life: Mastering the Forces That Shape Personal Reality, Ageless Body, Timeless Mind, The Path to Love: Renewing the Power of Spirit in Your Life, Everyday Immortality: A Concise Course in Spiritual Transformation , How to Know God : The Soul's Journey into the Mystery of Mysteries  जैसी अद्भुत पुस्तकों को पढ़ने का सौभाग्य मिला। इन पुस्तकों को पढ़ने से मन व मस्तिष्क को एक नयी सोच व दिशा मिली।

सन् 2007 में इनकी पुस्तक Buddha: A Story of Enlightenment आयी, जो मेरी समझ में महात्मा बुद्ध के जीवन व आध्यात्मिक चिंतन व ज्ञान पर सबसे सुंदर व भावात्मक प्रस्तुति है। मैंने इस पुस्तक को दो-तीन बार पढ़ा है, किंतु मन में इसे दुबारा पढ़ने की उत्सुकता बनी ही रहती है।

डा. दीपक चोपड़ा आजकल जयपुर में आयोजित साहित्य समारोह ( Literary Festival) में भाग लेने भारत  आये हैं । इस समारोह में उनके सम्मान में आयोजित एक विशेष व्याख्यान श्रृंखला ‘The Return of the Rishi’ में कल उनके द्वारा दिया गया व्याख्यान वहाँ उपस्थित श्रोताओं- छात्रों,बुद्धिजीवी वर्गों हेतु एक अलौकिक बौद्धिक अनुभव था। उनके व्याख्यान की रिपोर्ट आज के Times of India में Focus on being, feeling, thinking and doing शीर्षक से छपी है।

डा. दीपक चोपड़ा ब्रह्मांड के हर सत्य की ऐसी अद्भुत व्याख्या करते हैं कि उस सत्य का हर पक्ष स्पष्ट दिखने व समझ में आने लगता है। " यह ब्रह्मांड अरबों आकाश-गंगाओं,खरबों सौरमंडलों से निर्मित है, जिसका हमारा निवास-ग्रह, पृथ्वी, का आकार दशमलव एक प्रतिशत से भी छोटा है, फिर कल्पना करें कि हमारे स्वयं के मानव शरीर का अस्तित्व व आकार इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सामने क्या है भला ? " इससे सुंदर व स्पष्ट व्याख्या हमारे सम्पूर्णता की विशालता  व हमारा स्वयं के शरीर के प्रति मिथ्या अहंभाव की क्या हो सकती है ?

वे बताते  हैं कि हमारा भौतिक शरीर सुपर नेबुला,जाइंट रेड स्टार्स और मृतप्राय सितारों द्वारा पुनर्नवीकृत कार्बन व हाइड्रोजन से निर्मित होता है। हमारा यह भौतिक शरीर निरंतर परिवर्तनशील है,आणविक स्तर पर,कोशिकीय स्तर पर। वे मजाकिया लहजे में बड़ी ही प्रभावी बात कहते हैं कि जब मैं पिछली बार भारत आया था तो मेरा शरीर कोई और था , बस मेरा सूटकेश ही समान था। वे कहते हैं कि केवल हमारी मूल चेतना ही अपूर्व व स्थाई स्वरूप है, हमारी यही मूल चेतना ही ब्रह्म अथवा आत्मा है।

डा. चोपड़ा के अनुसार हमें प्रकृति का सदैव अनुकरण करना व उसका अनुचर होना चाहिये। प्रकृति मौन साधे न्यूनतम और बस आवश्यक क्रियाकलाप करती है। प्रकृति के इस अनुकरण से हम ज्यादा प्रभावोत्पादक बन सकते हैं।जब हमारी क्रियायें शेष हो जाती हैं, तो हम सबकुछ करने व साधने में सक्षम होते हैं।

उनके अनुसार हमें बस अति सक्रियता का शिकार होने के बजाय, हमें अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु अपना सम्पूर्ण ध्यान केंद्रित करना चाहिये। अपने अस्तित्व के अनुभव करने हेतु हमें अति सक्रिय होने के बजाय मौन, अंतर्मुखी होना होगा। जब कुछ क्षणों हेतु हम मौन में होते हैं, और उस मौन के प्रति सजग होते हैं, तो हमारा अस्तित्व आभाषित हो जाता है।प्रेम,समभाव एवं आनंद की अनुभूति ही हमारी वास्तविक व सहज अनुभूति है।चिंतन एक रचनात्मक क्रिया है,और कर्म के प्रकार है- राजयोग,कर्मयोग व ज्ञानयोग।

कृष्ण ने भी तो गीता में कर्म की व्याख्या करते हुये कहा है-

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवः।

अर्थात् जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

Sunday, January 22, 2012

जीवन का हर क्षण हो उत्सव......


कुछ दिनों पूर्व टाइम्स ऑफ इंडिया के नियमित ऑर्टकिल The Speaking Tree में स्वामी सुखबोधानंद जी का एक विचार पढ़ा ।मेरी स्वामी सुखबोधानंद जी के बारे में इतनी व  अल्प ही जानकारी है कि वे दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मनस्वी ,योगी , विचारक व प्रवचक हैं।टेलीवीजन पर कभी-कभी उनका भगवतगीता व कर्मयोग पर प्रवचन व विचार सुनता हूँ तो मन व हृदय को अति प्रिय लगता है व शांति की अनुभूति होती है।

ऑर्टकिल में स्वामी जी ने Boredom indifference विषय पर चर्चा की है। स्वामी जी का विचार है कि हममें से प्रत्येक स्वयं को महत्वपूर्ण व अपरिहार्य समझता है,और इसकी अनुपस्थिति में हमें अपने कार्यपरिवेश के प्रति उदासीनता उत्पन्न होने लगती है। ऐसे में किसी और को मिलते ज्यादा महत्व व तवज्जो को देख मन में भारी डाह व ईर्ष्या उत्पन्न होती है, जिससे मन व हृदय में घोर अवसाद व अपने परिवेश के प्रति नकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।

स्वामीजी का कथन है कि हमारे जीवन में जो भी अवसाद या दुःख हैं, उनके कारण हमारे दैनिक जीवन की छोटी-मोटी परेशानियाँ, दूसरों का हमारे लिये खराब व्यवहार या हमारी खराब किस्मत जैसे वाह्य कारकों में नहीं होते, बल्कि हमारे अवसाद का कारण हमारे अपने ही अंदर- हमारा स्वयं का रवैया, मनोदृष्टि होता है। जब हमारी सोच सकारात्मक होती है, जब हम ऐसा सोचते हैं कि- हम यह काम कर सकते हैं,हमारे अंदर इस काम को करने का पूरा कौशल है, हम यह काम दूसरे से अच्छा कर सकते हैं , तो हमारी ऐसी सोच से हमारे शरीर व मन में नवीन उर्जा का संचार होता है।हमारे आत्म-उत्साह के कारण हमारे द्वारा सकारात्मक ऊर्जा का वाह्यसंचार होता है,उससे हमारे परिवेश, आसपास के लोगों में भी उत्साह व सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

स्वामीजी कहते हैं कि हमारे शरीर के परिवेश में बनने वाले प्रभावीमंडल के निर्माण हेतु तीन प्रधान कारक होते हैं- शरीर,मन और शरीर व मन से निरंतर निर्गत हो रही ऊर्जा-तरंगें अथवा कंपन।जब हम महान पुरुषों के मुखमंडल के चारों और प्रभामंडल या आभा की बात करते हैं, तो यह आभा उस महापुरुष के शरीर व मन से निकलती प्रकाश व ऊर्जा तरंगें ही होती हैं।
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इस संदर्भ में  स्वामी जी ने अपनी चर्चा में दो बड़े ही सटीक घटनाओं की चर्चा की है ।

उन्होने प्रथम जिस घटना की चर्चा की है, वह एक ज़ेन कथा से है।कथा के अनुसार एक संत थे जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त था व उन्हें इस जीवन व संसार के प्रति बौद्ध अवस्था प्राप्त हो गयी थी।वे( संत) प्रतिदिन समुद्र के सामने बैठकर योगध्यान करते व समाधिस्थ हो जाते।इन क्षणों में सीगल पक्षी उनके आस-पास निर्भीक होकर उड़ते और क्रीड़ा करते।कभी-कभी तो ये पक्षी संत के कंधों पर भी बेफिक्र बैठ      जाते।

एक दिन हमेशा की ही तरह संत समुद्रतट पर साधना हेतु गये।उसी समय वहाँ एक छोटा बालक खेलते-खेलते उनके पास  आया और अनुरोध किया- ये पक्षी कितने निर्भीक होकर आपके समीप आते हैं व खेलते हैं ।य़े कितने सुंदर व कोमल हैं। क्या आप एक सीगल पक्षी पकड़ सकते हैं व मुझे दे सकते हैं।
संत बालक के इस प्रेमपूर्ण छोटे से आग्रह को टाल न सके व बच्चे को एक सीगल पक्षी भेंट करने को राज़ी हो गये।किंतु  दूसरे दिन जब वे समाधिस्थ हो समुद्र किनारे बैठे तो सीगल पक्षी संत के सिर के काफी ऊपर मंडराते उड़ रहे थे, किंतु कोई भी पक्षी संत के इतने समीप नहीं आया कि वे उन्हें पकड़ सकें।

इस तरह पक्षी संत के मन में चल रहे विचारों व मंशा को उनके मन तरंगों की ऊर्जा से महसूस कर लिये , इसीलिये अपने प्रति खतरे को भाँप संत के नजदीक नहीं आये। इस तरह हमारी सोच व अंतर्विचारों की तरंगऊर्जा से हमारे आसपास लोग संपर्क में आते हैं व उनसे प्रभावित होते हैं,और उसी के अनुरूप वे हमारे प्रति प्रतिक्रिया व व्यवहार करते हैं। इसलिये य़ह आवश्यक है कि हम अपने परिवेश में अच्छे व सकारात्मक तरंग-ऊर्जा बनाकर रखें।

स्वामी जी ने दूसरी जिस घटना की चर्चा की है वह उनके एक परिचित धनी उद्योगपति की है जिसने अपने परिवार- पत्नी व बच्चों को सभी आधुनिक सुखसुविधायें व ढेर सारा रुपया-पैसा उपलब्ध कर रखा था, ताकि उन्हें कभी किसी प्रकार की परेशानी या तकलीफ न हो। किंतु उस उद्योगपति की पत्नी स्वामी जी से यह प्रायः शिकायत करती कि- उसके पति के पास उसके व उसके बच्चों के लिये कोई समय ही नहीं,यहाँ तक कि कभी वे बच्चों से एक बार उनके पढ़ाई के बारे में भी नहीं पूछते। इस तरह यदि उस उद्योगपति के परिवार की बात कहें तो उन्हें सुख-सुविधा या धन से ज्यादा अपेक्षा थी कि वे उनके साथ कुछ वक्त बिताते व अपनापन देते, यह उन्हें ज्यादा संतुष्टि व सुख प्रदान करता।

स्वामी जी ने अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही है कि हम कितने ही उत्साहपूर्ण व सकारात्मक दृष्टिकोण से भरे हों, व इसी तरह अपने आसपास के लोगों, सहकर्मियों को प्रेरित करते रहें, किंतु छोटी-मोटी असफलतायें ही  हमारे सारे उत्साह पर पानी फेर देती हैं और  प्रायः हमें अवसाद ग्रस्त कर देती हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम तत्काल की असफलता को मात्र स्थगित सफलता ही  समझें, क्योंकि  प्रायः हमारी असफलताओं में ही हमारी सफलताओं की उर्वराशक्ति व आधार होता है।

इसतरह अपने हर अनुभव को- चाहे वह सफलता के हों अथवा असफलता के, एक अनूठा व नया अनुभव समझते हुये उससे कुछ सीखते हुये बिल्कुल तनावरहित, आराम से रहें। इस लगातार सकारात्मक अनुभव से कभी भी हमें अपना जीवन अथवा इसके किसी तरह के अनुभव से किसी तरह का अँधेरापन अथवा निराशा नहीं होती। इस तरह जीवन का हर क्षण उत्सव और यह जीवन-यात्रा एक सुखद यात्रा बन जाती है।

Wednesday, January 18, 2012

रावन रथी बिरथ रघुबीरा........


मेरा आवास मेरे कार्यस्थल से दूर होने व बंगलौर में ट्रैफिक की भारी समस्या के कारण मुझे सुबह घर से कार्यालय आने व शाम को कार्यालय से घर वापस जाने में प्राय: घंटे सवा घंटे लग जाते हैं।वैसे तो प्रतिदिन का सुबह-शाम इतना लम्बा सफर किसी 'suffer' से कम नहीं किंतु इसका सकारात्मक पक्ष यह होता है कि यह समय मेरा अपना होता है,जिसमें मैं अपने मनपसंद गाने सुनता हूँ या अपने ब्लाग पर लिखता हूँ।

जब आप अपने मनपसंद तरीके से समय बिता रहे हों तो पता ही नहीं चलता कि वक्त कब और कैसे बीत गया।वैसे तो यफएम रेडियो पर भी अच्छे व नये गाने आते हैं और उन्हे सुनना अच्छा व मन को तनावरहित करता है, किंतु प्राय: मैं अपने मोबाइल फोन पर ही अपने पसंदीदा स्टोर गाने सुनता हूँ। मुझे संस्कृत के गीत विशेष रूप से विष्णु सहस्रनाम,भजगोविंदम,मधुराष्टकम्, रुद्राष्टकम्, जयगोविंद कृत अष्टपदी,सौन्दर्यलहरी इत्यादि पसंद हैं।प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों जैसे एम यस सुब्बुलक्ष्मी, बालामुरलीकृष्णा,घंटशाल,बॉम्बे सिस्टर्स,पंडित भीमसेन जोशी,पंडित जसराज के अद्भुत दिव्य स्वरों में गाये ये संस्कृत गीत मन व हृदय को अलौकिक शांति व सुख देते हैं।

इनके अतिरिक्त हिंदी के भजन विशेष रूप से संत कबीर के पद ,रामचरित मानस और मीरा के भजन सुनना  मुझे अति प्रिय है। मेरे मोबाइल फोन में राजनसाजन मिश्र द्वारा गाये इन भजनों के अच्छे संग्रह हैं जो मैं प्राय: सुनता हूँ। अभी हाल ही में छन्नू लाल मिश्र जी के गाये रामचरित मानस के कुछ प्रकरण जैसे केवट-संवाद, विभीषण गीता,उत्तर कांड में गरुड़-कागभुसुंडी संवाद मैंने अपने मोबाइल फोन में संकलित किया।

पद्मभूषण श्री छन्नूलाल मिश्रा जी प्रसिद्ध तबलावादक पद्मविभूषण स्वर्गीय श्री गुदई महाराज जी के     पौत्र  ( Grandson) व बनारस घराने के सुप्रसिद्ध शास्त्रीय खयाल गायक है।उनकी आवाज में दैवीय शांति व आकर्षण है।उनका गाया विभीषण गीता,जो रामचरित मानस के लंकाकांड में राम विभीषण संवाद पर आधारित है, अद्भुत भाव व प्रेरणाप्रद है। विभीषण गीता की पंक्तियाँ व भावार्थ इस प्रकार हैं।

दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि।1।
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।बंदि चरन कह सहित सनेहा।2।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।जेहि जय होइ सो स्यंदन आना।3।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।छमा कृपा समता रजु जोरे।4।
ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।बर बिग्यान कठिन कोदंडा।5।
अमल अचल मन त्रोन समाना।सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।एहि सम विजय उपाय न दूजा।6।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।जीत न कहँ न कतहुँ रिपु ताके।7।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।8।

इसका भावार्थ है-

दोनों दिशाओं में अपनी अपनी सेना की जयजयकार हो रही है।एक तरफ राम का नाम लेकर तो दूसरी ओर रावण की दुहाई देते दोनों सेना के वीर योद्धा परस्पर भिड़ रहे हैं।रावण रथ पर सवार है जबकि राम रथविहीन पैदल हैं, यह देख विभीषण अधीर हो उठता है।राम के प्रति अपने अति प्रेम व चिंता वश मन में उनके सुरक्षा के प्रति उपजी आशंका के कारण वह राम को प्रणाम करते हुये निवेदन  किया कि महाराज न आपके पास रथ है,न आपके पैरों मे सुरक्षा हेतु जूते हैं,किस तरह इतने बलशाली योद्धा से विजय प्राप्त करेंगे?यह सुनकर राम बोले कि मित्र जिस रथ से विजयश्री मिलती है वह एक सामान्य रथ जिसपर रावण आरूढ़ है नहीं होता, बल्कि वह कोई और रथ होता है। उस विजयश्री प्रदान करने वाले रथ के पहिये शौर्य व धैर्य होते हैं,उसकी पताका सत्य व मर्यादा होते हैं,बल बुद्धि व अनुशासन उसके घोड़े होते हैं जो क्षमता,कृपा व समता की रस्सी से आपस में जुड़े होते हैं,ईश्वर की आराधना ही उसका सारथी है, विरक्ति उसकी ढाल है और संतोष ही उसका कृपाण होता है,दान ही उसका फरसा,बुद्धि उसकी प्रचंड शक्ति है,विज्ञान कौशल ही उसका मजबूत धनुष है,निर्मल मन ही वह तरकस है जिसमें समता,यम व नियम के अनगिनत बाण संग्रह होते हैं।ब्राह्मण व गुरु की वंदना ही अभेद कवच है,और इससे योग्य विजय हेतु कोई साधन नहीं।राम ने कहा कि हे मित्र जिसके पास यह धर्ममयी रथ है,उसे इस संसार में कहीं भी व कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर सकता।

आपकी सुविधा के लिये मैंने यहाँ पर श्री छन्नूलाल मिश्रा जी के गाये इस गीत की MP3 फाइल  का लिंक संलग्न किया है। यदि समय अनुमति दे तो सुनने का कष्ट करियेगा,अवश्य यह आपको अच्छा लगेगा।


Tuesday, January 17, 2012

सब जीता किये मुझसे.....



स्वयं के अनुभव पर विचार करता हूँ तो दिखता है कि बालपन और स्कूल तक हर छोटे-मोटे खेलकूद- दौड़,फुटवाल,क्रिकेट, कबड्डी,पतंगबाजी इत्यादि खेलों में बेझिझक व जोर-शोर से हिस्सा लेता था।  सांस्कृतिक कार्यक्रम- नृत्य,गान,स्टेज नाटक, वादविवाद,भाषणबाजी में भी बड़े उत्साह से भाग लेता था।

हर खेलकूद या प्रतियोगिता  में प्राय: हारता ही था, किंतु इससे कतई मनोबल गिरना अथवा पुन: भागीदारी का उत्साह कम नहीं होता था।शायद इसका मुख्य कारण था कि खेल में हारजीत से ज्यादा महत्वपूर्ण होता था इसमें भागीदारी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि दूसरे मुझसे अच्छा खेलते हैं,मुझसे हर बार जीत जाते हैं, मैं जब भी उनके साथ खेलने का आग्रह करता हूँ वे मुझे उस खेल में कमजोर व फिसड्डी समझते हैं व मेरा मजाक उड़ाते हैं, बस खेल में भाग लेने का मौका मिल गया इसी में प्रफुल्लित व आनंदित हो जाते थे।

जैसे जैसे बड़े होते गये, और अब प्रौढ़ता को प्राप्त हो गये, और मन में हारने-जीतने, पाने-खोने,आदर-तिरस्कार,मान-अपमान का भाव व अपेक्षा बढ़ती व दृढ़ होती गयी, वह बचपन का  हर खेल में मात्र भाग लेने की सहजता क्षीणप्राय होती गयी, और हर चीज में बालसुलभ उत्साह का स्थान झिझक,संकोच,औपचारिकता व हार-जीत की आशंका ने ले लिया।

अब अवसर मिलने पर भी किसी खेल में भाग लेने,नृत्य करने,गाना गाने,बोलने में झिझक होती है,मन में संदेह आ जाता है कि खेल में हार न जाऊँ, मेरे खराब नृत्य पर लोग मेरा उपहास करेंगे,मेरे अच्छा न गाने अथवा बोलने पर मेरा मजाक बनायेंगे,मेरे ऊपर हँसेगें। बस यही सब सोचकर हमसब जीवन में हर खेल व उत्सव से अलग-थलग व एकांगी हो जाते हैं,जीवन के आनंदोत्सव से क्रमश: वंचित होने लगते हैं,नतीजन हमारा जीवन नीरस व अवसादमय होने लगता है।

अगर सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो इसका कारण हमारा उम्र के साथ बढ़ता अहंभाव (Ego) है।हमारे अहंभाव को निरंतर मिथ्या दंभ के पोषण की आवश्यकता होती है,इसकी तुष्टि हेतु हमें हमेशा दूसरों से प्रशंसा पाने की,वह भले ही झूठी हो, आवश्यकता होती है, जिससे मन में  सदा स्वयं के विजयी होने और श्रेष्ठता का भाव बना रहे।

अपनी अहं की ही तुष्टि के लिये हम अपने जीवन को एक दौड़ अथवा मैराथन प्रतियोगिता की तरह दौड़ते रहते हैं और इसलिये हमें हमेशा जीतने की लालसा व हारने की आशंका बनी रहती है। हमारी सारी ऊर्जा इसी सोच में छीजती रहती है कि कहीं हम किसी से पिछड़ न जायें। जब भी कोई हमें पिछाड़ देता है तो हमें बहुत चोट पहुँचती है और जब हम जीतते हैं और प्रथम आते हैं तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं होता।

स्पर्धा से महत्वपूर्ण है भागीदारी
किंतु जब मन में सिर्फ भागीदारी की भावना होती है तो यह संसार एक दौड़-प्रतियोगिता के बजाय एक स्टेज की भाँति अनुभव होता है, जहाँ अन्य सहभागियों के साथ हम स्वयं भी भाग ले रहे होते हैं। तब हम स्वयं के अच्छे से अच्छे प्रयाश व प्रदर्शन के साथ-साथ दूसरों को भी अपनी उत्कृष्ट भागीदारी करने देते हैं। इस तरह हमसे एक सकारात्मक उर्जा तरंगित होती है जो दूसरों के साथ पूर्ण सामंजस्य व समन्वययुक्त होने में सहयोगी होती है।

इस तरह इस जीवन-स्टेज के मात्र एक पात्र व भागीदार होने से इसकी लिखी स्कृप्ट व इसकी निर्धारित भूमिका निभाने में न तो कोई दु:ख होता है और न तो अति उल्लास ही। हमें समझना होगा कि अहंभाव आधारित जीवन सदैव एक मिथ्या पहचान पर निर्भर होता है। अपनी सच्ची पहचान अपने अंदर का अहंभाव त्याग करने व इस जीवन स्टेज के मात्र एक पात्र होने की सोच उत्पन्न होने से ही आती है। हमारी जो भी निर्धारित भूमिका है बस उसके साथ न्याय करना है, उसे अच्छे से निभाना है। इस तरह अपनी भूमिका के पूरा होने के पश्चात् इस स्टेज को एक दिन छोड़ने की कोई भी दुश्चिंता समाप्त हो जाती है, और हमारा यहाँ से एक दिन सुनिश्चित प्रस्थान भी गरिमापूर्ण होता है।      

Monday, January 16, 2012

लौकिक जीवन के छ: सुख


प्रवीण पाण्डेय जी की पिछली पोष्ट रघुवीर जी की कथा को पढ़ा तब से जेहन में मेरे कालेज के सहपाठी व घनिष्ठ मित्र केपी बाबू का व्यक्तित्व बरबस घुमड़ रहा है। वैसे तो केपी बाबू का नाम अति सुंदर,गंभीर व वृहत् है किंतु कालेज के दिनों से ही उन्हें हम केपी, केपीभाई या केपीबाबू ही बुलाते रहे हैं।प्राय: हमारे दोस्तों के बीच उपयोग होने वाले उपनाम या लघुनाम इतने प्रसिद्ध व स्वाभाविक हो जाते हैं, कि असली नाम  विस्मृत ही हो जाता है,और यह व्यक्तित्व का ऐसा स्थाई अंग बन जाता है कि  अकस्मात किसी ने यदि पूरे नाम से संबोधित किया तो  बड़ा अटपटा व अजनबी सा प्रतीत होता है।

तो जैसा मैं कहना चाह रहा था कि हमारे केपी बाबू का व्यक्तित्व प्रवीणजी के लेख के पात्र रघुवीर जी की छायामूर्ति है। रघुवीर जी के व्यक्तित्व के तीनों विश्व-आयाम केपी बाबू के व्यावहारिक जीवन में अति स्पष्ट व जीवंत दिखते है।

लगभग बाईस वर्षों से सफल आईटी इंजिनियर व विभिन्न महत्वपूर्ण बहुराष्ट्रीय संस्थानों में उत्कृष्ट कैरियर,सुंदर सुरुचिपूर्ण घर और गृहस्थी,अपने अति आधुनिक व आदर्श रेजिडेंसिल सोसाइटी के सचिव व सोसाइटी के आवासों व परिसर में विभिन्न सार्वजनिक सुविधाओं हेतु आधुनिक आईटी टेक्नालाजी व ग्रीनऊर्जा के सही अर्थों में सदुपयोग में अद्भुत योगदान व सतत प्रयाशरत, आर्ट ऑफ लिविंग के हर रचनात्मक कार्यक्रमों में नियमित व सतत सक्रिय, उत्तर प्रदेश के धुर ग्रामीण क्षेत्र में अपने मूलनिवास व सगेसंबंधियों  से बराबर का सानिध्य,उनके दुख-सुख ,उत्सव-समाराहों में पूर्ण तत्परता व सहयोगपूर्ण व सहर्ष भागीदारी, इस तरह प्रवीण जी की चर्चा के अनुसार हमारे अंदर स्थापित तीनों विश्व को बड़े ही सुंदर व संतुलित रूप में हमारे केपी बाबू सहजता व स्वाभाविक प्रसन्नता के साथ सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।

वे स्वयं ही नहीं, अपितु उनका पूर्ण परिवार,उनकी सुंदर पत्नी,उनकी अति सौम्य व प्यारी बिटिया व उनका नटखट प्यारा बेटा सभी उनके व्यक्तित्व के अद्भुत रूप व उनके इस त्रिविश्व के अभिन्न अंग व पूरक शक्ति के रूप में सतत सहयोगी व सक्रिय हैं।

ऐसा नहीं है कि उनका व्यक्तिगत जीवन किसी संघर्ष व कठिनाई से रहित रहा व उनके लिये सब कुछ सुगमता से संभव हो गया। पत्नी का युवावस्था में गम्भीर डायविटीज से ग्रस्त होना,परिणामस्वरूप वैवाहिक जीवन के शुरू के ही वर्षों में क्रमश: दो गर्भपात का आघात इनके शारीरिक व मानसिक दोनों स्तर पर अति वेदना व सदमापूर्ण रहे।

किंतु पति पत्नी दोनों का पारस्परिक अद्भुत सहयोग,प्रेम,आत्मबल व धीरज इन कठिन परिस्थितियों को स्वीकार व सामना करने में सहयोगी रहा।उसी के परिमाणस्वरूप व आधार पर आज उनका संतुलित व सर्वरूपेण समृद्ध त्रिविश्व स्थापित व उन्नत है।

एक दिन गृहस्थजीवन व इसके सुखदुख के विभिन्न आयामों  पर हमदोनों की आपसी  चर्चा में मैंने उनके सुखी गृहस्थ जीवन की व्खाख्या,चाणक्य के निम्नलिखित नीति-श्लोक के आधार  पर करने व समझने का प्रयाश किया-

अर्थागमो नित्य अरोगिता च
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च ।
वशस्य पुत्रोर्थकरीच विद्या,
षड्जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।

अर्थात् धन का नियमित आगम हो, शरीर स्वस्थ व रुग्णरहित हो,पत्नी प्रिय(सुंदर) व प्रियबोलने वाली हो,पुत्र आज्ञाकारी हों और अर्जित विद्या व ज्ञान सार्थक व जीवनउन्नति में सहयोगी हो, मनुष्य के यहीं छ: लौकिक जीवन सुख हैं।

केपीबाबू इन छ: लौकिक सुखों से परिपूर्ण सुंदर व सुखद गृहस्थजीवन अपने स्वाभाविक मुखस्मित के साथ निभा रहे हैं। कामना है उनका सुंदर संतुलित त्रिविश्व इसी तरह सदैव समृद्ध रहे व इसमें निरंतर उन्नति होती रहे।

Sunday, January 15, 2012

इज ऑल वेल? इज ऑल रियली वेल?


देश निश्चय ही खूब तरक्की कर रहा है, तमाम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अनिश्चितताओं व उथल-पुथल के बावजूद पिछले दशक में इसने उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है। दैनिक उपभोग की आमवस्तुओं व सुविधाओं  की गुणवत्ता व उपलब्धता दोनों में चमत्कारिक सुधार हुआ है।मोबाइल फोन,इंटरनेट,लेटेस्ट डिजाइन बाइक, मोटरकार से लेकर लेटेस्ट फैशन गार्मेंट्स या पिजा और केंटुकी फ्राइड चिकेन सबकुछ आज सहजता से शहर के आम नुक्कड़ व चौराहे पर उपलब्ध है।फिर हमारी युवापीढ़ी क्यों न अपना दैनिक जीवन इन सुविधाओं के बीच आनंद व उत्सव  से मनाये और 'ऑल इज वेल ,भैया ऑल इज वेल' का गाना गाते डांसपोडियम पर थिरके ।

इस लगातार जारी उल्लेखनीय आर्थिक विकास दर के बूते यदि भारत के भविष्यद्रष्टा यह स्वप्न देखने व खम ठोककर दुनिया को बताने की कोशिश करते हैं कि यह शताब्दी भारत की है व कुछ ही दशकों मैं ही भारत विश्व का सुपरपावर होगा, तो इसमें किसी को आश्चर्य व अतिशयोक्ति नहीं लगनी चाहिये।

किंतु जब सुबह-सुबह समाचारपत्र में आप यह रिपोर्ट पढ़ते हैं कि आपके इस भावी सुपरपावर की कोख में ही रहने वाले 23 करोड़ लोगों को दो जून की सूखी रोटी भी नसीब नहीं और उन्हे रोज भूखे पेट सोना पड़ता है , इस देश में प्रतिदिन औसतन पचास हजार नवजात या पाँच वर्ष से कम आयु के शिशु बिना उचित इलाज व पोषण के मरते हैं,प्रतिदिन तकरीबन पाँच हजार  गर्भवती या नवप्रसूता महिलायें उचित स्वास्थ्य सेवा व सुश्रुषा की अनुपलब्धता में दम तोड़ देती हैं,और आप यह भी पढ़ते हैं कि यह आपका भावी सुपरपावर देश आज दुनिया का सबसे बड़ा भुखमरी के शिकार व मर रहे बीमार,लाचार लोगों का देश है, तो आपका अपने देश के लिये यह सुंदर स्वप्न भंग हो सकता है,  मानों आप अपने घर की सुखसुविधाओं के बीच अपने वातानकुलित कमरे में अपने मुलायम बिस्तर पर  सोते-सोते सुंदर मीठे स्वप्न देख रहे हों और अचानक एक छिपकली आपके मुख पर गिर जाये और आपका स्वप्न भंग हो जाये,या अच्छी खासी दावत में आपके खाने की सजी प्लेट में मरा काक्रोच निकल जाय और आपके खाने का सारा मजा खराब हो जाये। तो फिर भी क्या आप मौज से गाना जारी रखते डांसपोडियम पर थिरकते रह सकेंगे कि 'ऑल इज वेल ,भैया ऑल इज वेल' ?

जी यह रिपोर्ट है International Food Policy Research Institute कीजो हाल ही में किये गये अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित है।इसके अनुसार भारत कुपोषण,शिशुमृत्यु दर में विश्व के सबसे खराब अस्सी देशों में सड़सठवें नम्बर पर है। विश्व के 82 करोड़ भूखी आबादी का एक चौथाई  से ज्यादा हिस्सा हमारे देश में निवास करता है,और सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि,जैसा आँकड़े बता रहे हैं, इसमें कोई सुधार होने के बजाय, यह बुरी स्थिति दिन पर दिन बदतर हो रही है।

संस्थान के सर्वेक्षण आँकड़े बताते हैं कि विश्व भुखमरी सूचकांक (Global Hunger Index) के आधार पर भारत की स्थिति पड़ोसी देशों पाकिस्तान,नेपाल व बांग्लादेश और  यहाँ तक कि विश्व में मानव विकास में अति पिछड़े अन्य देशों जैसे सूडान व उत्तर कोरिया से भी बदतर है।भारत की बेहतर स्थिति केवल कांगो,चाड,इथियोपिया या बुरुंडी जैसे कुछ देशों से ही है, जिसके आधार पर स्वयं को कतई दिलासा देना हास्यास्पद होगा।

संयोगवश कुछ दिन पूर्व मेरे मित्र श्रीप्रवीण पांडेय जी से कुछ इसी तरह के विषय पर हमारी आपसी चर्चा में उन्होने एक बड़ी तथ्यपूर्ण बात कही कि-'अंग्रेजों द्वारा  लगभग तीन सौ वर्ष पहले भारत के कोलोनाइजेसन के पूर्व चाहे इस देश में जो भी औद्योगिक पिछड़ापन रहा हो किंतु यहाँ कोई भूख से नहीं मरता था,सबको भोजन के लिये अन्न अवश्य मिल जाता था।

वैसे कुछ तर्क व तथ्य इसके विरुद्ध दिये जा सकते हैं कि तब जब भी अकाल या सूखा पड़ता तो देश के उस क्षेत्र के हजारों लाखों लोग अन्न के अभाव में मर जाते थे, और आज कम से कम समय-समय पर देश में होने वाले इन भयंकर अकालों पर नियंत्रण हुआ है।

किंतु हमें समझना चाहिये कि उन दिनों अन्न को एक स्थान से दूसरे स्थान,एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के परिवहन व लाजिस्टिक सुविधायें सीमित व बाधापूर्ण थीं,वरना सामान्य स्थिति में आम आदमी को अपनी क्षुधापूर्ति हेतु दो मुट्ठी अन्न की उपलब्धता सहजता से हो जाती थी, कम से कम कोई अन्न के अभाव में भूखा नहीं मरता था। यह कोई भावनात्मक दलील नहीं अपितु ऐतिहासिक साक्ष्यों व तथ्यों पर आधारित है।

आज तो परिवहन व वितरण  के कितने आधुनिक संसाधन व प्रणाली उपलब्ध हैं, फिर भी हमारे देश की चौथाई आबादी भूखे पेट रहती है,इससे बड़ी चिंताजनक व शर्म की बात हमारे लिये क्या हो सकती है।

जब हम अपनी समस्यायों के आइने के सामने खड़े होते हैं तो इनकी समीक्षा में अनेक तर्क-कुतर्क भी शुरू हो जाते हैं जैसे- देश की बढ़ती और भारी आबादी,सरकारी तंत्र व अन्न वितरण योजनाओं की जनसमस्याओं के समाधान में भारी अक्षमता व इनके अनुपालन व शासनतंत्र में व्याप्त घोर भ्रष्टाचार,आमनागरिकों की जनसुविधाओं व जनयोजनाओं के प्रति उदासीनता व असहयोग इत्यादि।

मैं इस वर्तमान चिंताजनक स्थिति के अंतर्निहित कारणों पर टिप्पड़ी या समीक्षा करने की कोई योग्यता तो नहीं रखता और मेरा मानना है कि इन जटिल समस्याओं के कारण व कारक भी कई व अति जटिल होते हैं,अत: इनका कोई कारण विशेष बताना,किसी एक को दोषी ठहराना और इसी तरह इन समस्याओं का कोई एकांगी विशेष समाधान सुझाना सर्वथा अनुचित  व अन्यायसंगत  है।

किंतु इस रिपोर्ट द्वारा दी गयी  हमारे देश की इस निराशा व चिंताजनक स्थिति की जानकारी से मन दु:खी व द्रवित हो जाता है,और मन में यह प्रश्न बार-बार उमड़ता है ­–कि ' इज ऑल वेल ? इज आल रियली वेल ? '

Saturday, January 14, 2012

बलवानं एव शोभते क्षमा......


यह भी एक अद्भुत तथ्य है कि दो विपरीत ध्रुव पर स्थित चीजें आश्चर्यजनक रूप से समानगुणधर्म प्रदर्शित करती हैं।उदाहरणार्थ- अल्पतरंगगति की प्रकाश किरणें, जिन्हें इन्फ्रारेड किरण कहते हैं, उच्चतरंगगति की प्रकाशकिरणें, जिन्हे अल्ट्रावायलट किरण कहते हैं, दोनों ही मानवदृष्टिक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।इसी तरह उच्चतरंगगति की ध्वनितरंगें और अल्पतरंगगति की ध्वनि तरंगों दोनों ही मानवश्रवणक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।

प्रकाश की शून्यता यानी अंधेरा व प्रकाश की अतिरेकता दोनों ही अदृश्यता की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं,ध्वनि की अनुपस्थिति अथवा ध्वनि की अतिरेकता दोनों ही सुनने की अमर्थता की समान परिस्थिति उत्पन्न करते हैं।

है न यह अद्भुत विरोधाभासी समतागुण कि एक निर्बल, कमजोर व असहाय है व दूसरा अतिरेक बलशाली व शक्तिसंपन्न किंतु दोनों ही अपने विरोधी व शत्रु के प्रति नि:प्रतिरोध व्यवहार का समान गुणधर्म दर्शाते हैं।एक के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी लाचारी व असहायता,इसलिये नहीं कि  वह प्रतिरोध करना ही नहीं चाहता, जबकि दूसरे के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी जागृत अंतर्चेतना कि उसके अतिरेक शक्ति से किया गया कोई भी प्रतिरोध उसके विरोधी हेतु महाविनाश व संहार का कारण बन सकता है।

इसीलिये शास्त्रों के मत से यदि कोई कमजोर व लाचार अपने विरोधी के प्रति हिंसक प्रतिरोध भी करता है तो यह पाप नहीं क्योंकि उसके नि:प्रतिरोध से भी उसको कोई लाभ या समाधान नहीं मिलने  वाला,जबकि जो अति बलशाली व शक्तिसंपन्न है उसका नाजायज हिंसक प्रतिरोध घोर पाप होता है।

महात्मा बुद्ध ने निर्वाणज्ञान की प्राप्ति हेतु अपने राजसिंहासन का ही त्याग कर दिया और भिक्षु बन गये,यह वास्तविक त्याग है,जबकि एक भिक्षुक द्वारा , जिसके पास त्याग करने को कुछ है ही नहीं, किसी त्याग करने की बात का भला क्या अर्थ है?

इसीलिये जब भी हम नि:प्रतिरोध,अहिंसा व प्रेम की बात करते हैं तो हमें पहले यह स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर प्रतिरोध करने की पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य है भी या नहीं?यदि शक्तिसंपन्न व सामर्थ्यवान बनकर हम नि:प्रतिरोध,प्रेम,अहिंसा की बात करते हैं तो यह अवश्य हमें शोभा देता है व हमारी महानता में वृद्धि करता है,अन्यथा तो यह पाखंड व मिथ्याचार ही है।

कुरुक्षेत्र में शत्रुसेना के सन्मुख खड़े हो जब अर्जुन ने सामने खड़ी महारथियों से सजी अति बलशाली सेना देखी तो अपने परिजनों के प्रति उमड़ते प्रेम का पाखंड करते व अपने राजा के प्रति व अपना क्षात्र धर्म भूल अहिंसा व युद्ध न करने की बात करने लगे, तो श्रीकृष्ण ने उनकी कायरता पर उन्हे लताड़ते हुये कहा-

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।
अशोच्यानन्वशोचत्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् हे अर्जुन ! कायरता की बात मत करो,यह तुम्हे शोभा नहीं देता। तू न शोक करने योग्य लोगों के लिये शोक करता है,और बड़े ज्ञानी पंडित की तरह बात करता है,किंतु जो जीवित हैं अथवा जो जीवित नहीं है,ज्ञानीजन किसी के लिये शोक नहीं करते।इसलिये हे परंतप! अपने हृदय की दुर्बलता छोड़ युद्ध के लिये खड़े हो जा।

यही वास्तविक कर्मयोग है कि हमसर्वशक्ति सम्पन्न बनकर,सबकुछ धारण कर भी अहिंसा धर्म व प्रेम का आचरण करें,शक्तिसम्पन्न व सामर्थ्यवान होकर भी नि:प्रतिरोध व अहिंसा का पालन ही वास्तविक शक्तिसम्पन्नता होती है।किंतु इस आदर्श व शक्ति के शिखर की स्थिति पर पहुँचने के पूर्व हमें पूरी शक्ति के साथ निरंतर श्रम,संघर्ष व विरोधी पर सीधे प्रहार करने की आवश्यकता होती है कि जब तक हमें पूर्ण सामर्थ्य व अपने विरोधी शक्तियों पर विजय न प्राप्त हो जाय।

इसतरह सर्वशक्तिसंपन्न व समर्थवान बनकर ही हमें अहिंसा व प्रेम एक सद्गुण की तरह शोभा देता है।इसलिये निष्कृयता का सदैव त्याग होना चाहिये। सकृयता का प्राय: अर्थ होता है संघर्ष व प्रतिरोध-सभी मानसिक व शारीरिक दुर्गुणों व दोषों का निरंतर प्रतिरोध और इन प्रतिरोधों द्वारा सभी दोषों के दमन की सफलता के उपरांत ही शांति व संतोष स्थापित होता है।

इस तरह प्रथम इस संसार व सांसारिकता के महासमुद्र को सफलतापूर्वक तैर कर पार करना होता है, तत्पश्चात् ही इसके त्याग व संतोष की सार्थक उपलब्धि संभव है,अन्यथा बिना इस संसार का विजय किये ही इसके त्याग,नि:प्रतिरोध,शांति व समर्पण की बात मात्र मिथ्याचार व निस्फल है।

हालाँकि त्याग व शांति के यह सद्विचारपूर्ण ज्ञान हजारों वर्षों से हमें उपलब्ध हैं, किंतु कुछ विरले महानपुरुष ही इस परम स्थिति को सिद्ध कर पाये हैं।