Wednesday, November 30, 2011

मनपक्षी तू नभ में उड़ ले...... ।


 मनपक्षी तू नभ में उड़ ले, ले दिशा नयी।
सूरज है नया,नव किरणें, है सुबह नयी।
है दिन का नया उजाला ,अब रात गयी।
फूलों का रस पीने को तितलीं बेताब हुयीं।1।

है गगन खुला यह सारा, मन चाहे जिधर तू उड़ ले।
हैं चलती मस्त हवायें ,उनके संग तू भी बढ़ ले।
जो गीत तुझे मन भाये,भर तान उन्हे तू गा ले।
जो भी हैं मचलें अरमान,भरपूर उन्हें तू जी ले।2।

तू वेगमयी हो उड़ना रविरथ से लेकर बाजी।
रजतपंख पर शोभित हैं स्वर्णकिरण अभिराजीं।
संगीत पवनध्वनि बनतीं हैं राग नये हो साजीं।
मानो ही प्रयोजन तेरे रण भेरी विजय की बाजीं।3।

पर ध्यान रहे  भी तुमको अवसान दिवस का।
वापस रस्ते है आना,अपने ही नीड़-बसर का।
तब पंख तो होंगे थकते, और झोंका तेज हवा का।
बच्चे भी रस्ता देखें, घर तेरे तब आने का।4।

बेसक तुम भ्रमण करो यह भूमंडल जग सारा ।
तेरी उड़ान में शामिल यह व्योमाकाश प्रसारा,
बाहो को निज फैलाये,तुझपे निज तनमन वारा।
पर वापस अपने ही घर में आना हर बार दुबारा।5।

वैसे तो प्रतिदिन ही होता नियमों से साँझसवेरा।
तू चक्रगति में जीता,जगता,उड़ता फिर निद्रा ।
पर एक सत्य जो जागृत,सार्थक जीवन यह तेरा,
अंतर्स्थित परम चेतना, ही है अंतिम नीड़बसेरा।6।

......यह पिस रहा वर्तमान क्यों है ?


जूझता संघर्ष से यह,
नियति के प्रतिकर्ष से भी,
हो रहा अपकर्ष जग का,
क्या यहीं उत्कर्ष मेरा ?1?

साक्षी बने सब कृत्य के तुम,
किंतु रहते मौन साधे।
कह न सकते सच-असच क्या,
पर मानते अच्छी नियति है?2?

नींद मे तुम स्वप्न देखे,
जग रहे जो होश कब थी?
भूत-भव के सिल तले,
यह पिस रहा वर्तमान क्यों है?3?

उच्च तल पर सूर्य जलता,
भूतल सुलगती यह धरा।
सूरज-धरा के बीच विस्त्रित,
नीलमय यह शून्य क्या है?4?

जो दिख गया वह पाप होता,
है छिपा तो धर्म कहते।
पाप-धर्म के मध्य में यह,
करता मनुज अपकृत्य क्या है?5?

कर रहे निर्माण जो तुम
गर्भ में पलती प्रलय है।
सृष्टि-प्रलय अंतराल में यह
हो रहा उत्थान क्या है?6?

युद्ध में तलवार खिंचतीं,
संधि में प्रतिघात होते ।
युद्ध-संधि के बीच पलती,
स्याहमय यह शांति क्या है?7?

Tuesday, November 29, 2011

-देश की पुकार पर....



मै कभी भी जन्म लूँ ,बस अंक तेरा ही रहे,
मिट्टी तेरी ही बन लहू मेरी रगों में नित बहे।
सर्वस्व मेरा है समर्पित, हे देश! जब भी तू कहे,
तुम पुकारो तो मेरा यह शीश भी अर्पित तुम्हे।1

अप्रतिम सौन्दर्य है हिमताज वक्षस्थल तेरा,
जलकेलि करता वदन कंचन त्रिओर सागर से घिरा।
आँचल में है स्नेहोष्ण क्षीर गंगनद की चिरधारा।
रुप गुण बखान तेरी नित करें शारद-गिरा।2

आक्रमण कितने विदेशी, साक्षी बनी, देखी तूने,
संहार कितने हुये दिल पर, खून से लतपथ सने।
लाज की रक्षा किये शहीद हो तव लाल कितने,
दे दिया भी भेंट में हँसते हुये ही शीश अपने।3

माँ तेरा सौन्दर्यचीर सुंदर रहे बन चिर-समय ,
सज्जित रहे हर क्षेत्र तेरा शस्यश्यामल हरितमय,
अंकधारित अमृतनदियाँ बहती रहें बन वेगमय,
माँ तेरी महिमा अखंडित जीवित रहे अक्षुण समय।4

विश्व जब अज्ञानमय था गुरु बनी तू ज्ञान दे।
यज्ञ समिधा वेद सजते तू ऋचाओं की हवि दे।
कर्म की उत्कृष्टता स्थापित की गीता ज्ञान दे।
गणित को भी किया लाभित दशमलव व शून्य दे।5

विश्व को तू धन्य करती शांति के नवदूत जनकर,
गौतम कभी, नानक कभी, कभी मोहनदास बनकर।
राह पर लाओ उन्हे, है त्रसित जिनसे जग भयंकर,
अशांतमन भटके जनों को प्रेम का वरदान देकर।6

Monday, November 28, 2011

....जीवन- मरुस्थल में मेरे अमृत गंगाजल बहा दो ।


प्रात: किरण प्रहार से विचलित  तिमिर,
भृकुटिबल दे धमकियाँ संध्यागमन की।
दिवस को चिरंजीवी हो! वरदान देकर,
तम की आशंका कोई जो तुम उसे निर्मूल कर दो।1।

राग-भ्रम-माया विनिर्मित  तल अनेकों ,
है मेरा निवास ऊँचे विशाल इस  अट्टालिका में।
कम्पनमयी जो पापजीवन के प्रलय भूकम्प से,
आधार तुम  बन अब स्वयं निष्कम्प कर दो।2।

मूर्छित है मेरी चेतना जन्मातरों से,
कलुष मन, कलुषित हृदय तम से भरा।
जीवंत जागृत कर उसे संजीवनी दे,
चिरप्रकाशित ज्ञान तुम दीपक जला दो।3।

भीड़मय जीवनसफर में मैं अकेला,
चल रहा अनजान सा अव्यक्त पथ पर।
एक तुम ही पूर्व-परिचित पथ-प्रदर्शक,
कल्याण और शुभ राह का संकेत दे दो।4।

निर्पत्र हो निर्जीव हूँ मैं हिमशिशिर का ताप सहते,
झेलता आतंक मैं झोंके पवन के तेज बहते
श्रीहीन हूँ उजड़े हुये उपवन में अपने,
रितुराज बन तुम पुष्प अगनित रंग भर दो।5।

प्यास बढ़ती ही गयी जो मधु-सुरस पीता गया,
बढ़ता रहा मनताप भी जो मन यह उन्मादित रहा
अतृप्त है यह आत्मा,प्यासी रही है कल्प तक, 
जीवन- मरुस्थल में मेरे अमृत गंगाजल बहा दो ।6।

Sunday, November 27, 2011

-कुन फायाकुन (वही है, बस वही है।)


विगत सप्ताह एक ट्रेनिंग कोर्स के सिलसिले में नाशिक जाना हुआ।पत्नी जी साथ में थी अत: कुछ समय-अवकाश लेकर कुछ पुराने व अति महत्वपूर्ण स्थानों का दुबारा भ्रमण का भी अवसर लाभ उठाया- शिरडी साईं बाबा का स्थान (शिरडी नाशिक से लगभग 80 किमी है,और वहाँ सड़क यातायात काफी सुगम व सहज है।),त्रयम्बकेश्वर शिवज्योतिर्लिंग मंदिर (नाशिक से लगभग 30 किमी दूर पहाड़ो के बीच अवस्थित सुंदर स्थान) और मुम्बई के समीप ही छोटे से समुद्री द्वीप पर एलिफैन्टा गुफाओं में अद्भुत व अलौकिक मूर्तिकला का प्रमाण महेश्वर मंदिर ।

पर इन स्थानों के भ्रमण के पूर्व एक साधारण व छोटी सी बात और हुई, जो शायद इतने महत्वपूर्ण स्थानों के समकक्ष चर्चा भी किये जाने की योग्यता भी नहीं रखतीकि हमने हाल में ही रिलीज हुई हिंदी फिल्म 'रॉकस्टार' देखी थी ।

फिल्म के बारे में- इसकी कहानी,इसके अच्छे या बुरे पहलू या कलाकारों के अभिनय पर बिना कोई चर्चा किये मैं सीधे मुद्दे पर आना चाहूँगा- फिल्म में एक खास सूफी गाना- कुन फाया कुन। हालाँकि फिल्म देखते समय मुझे इन शब्दों- जो खालिस अरबी हैं और कुरान की आयतों से हैं, के अर्थ नहीं मालूम थे किंतु गाने की सिचुएसन,जो हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर गाया जाता है,और गाने के आगे के बोल - 'जब कुछ नहीं था,भी नहीं था,बस वही था,वही था,वही था.... ' से यह आत्मसात तो हो रहा था यह उस परवरदिगार का इबादतगीत है,और गाने को सुनकर पूरा मन और शरीर उन लमहों में पिघलकर उस परमशक्ति के भावों में खो रहा था,जो सर्वव्यापी है।य़कीन मानें गाने को सुनकर मुझे एक अजीब सा रोमांच हो रहा था व आँखे अनायाश भर आयी थीं।

फिल्म समाप्त होने पर भी गाने का शुरूर बना रहा,और जब इंटरनेट में विकीपीडिया पर गाने के मुखड़े कुन फायाकुन के शब्दों के अर्थ  'वही है,बस वही है' जाना तो यह शुरूर और गहरा हो गया।

और जब इन पवित्र स्थानों  पर दर्शन हेतु गया व ईश्वर के इन विभिन्न दृश्यरूपों- शिरडी साईं बाबा,त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग और महेश्वरमंदिर में शिव की त्रिभाव मूर्ति,का सामने साक्षात्कार हो रहा था, तो अंतर्चेतन जागृत हो बस यही पुकार रहा था- कुन फाया कुन यानी वही है बस वही है।

हालाँकि सूफी दर्शन,और सच कहें तो किसी भी दर्शन या आध्यामिक सिद्धांत, का मेरा ज्ञान अति अल्प व सीमित है एवं इस विषय पर कुछ कहने या लिखने की मेरी कोई भी योग्यता नहीं, किंतु इस गाने को सुनकर जो मन,शरीर व आत्मा में रोमांच,स्फुरण व चेतना अनुभव हुई उसे साझा करने से अपने को नहीं रोक पा रहा हूँ।सूफी दर्शन हमारे वैदिक व आध्यात्मिक अद्वैत दर्शन के ही अति समानांतर है जिसमें आदि-अंत रहित,सर्वव्यापी,सर्वशक्तिमान परमपिता परमेश्वर ही सबकुछ है,प्रकृति सहित जो भी दृश्य या अदृश्य है,लौकिक या अलौकिक ,वह सब वही, बस वही है।

जैसा पहले ही चर्चा हो चुकी है,और जो विकीपीडिया में मैं जानकारी ढूँढ़ पाया- कुन फायाकुन अरबी शब्द है, कुन का अर्थ है- (ईश्वर) है, फाया का अर्थ है- हाँ है। फिर गाने के आगे के बोल इस प्रकार हैं-

या निजामुद्दीन औलिया, या निजामुद्दीन सल्का
कदम बढ़ा ले,हदों को मिटा ले
आजा खालीपन में पी का घर तेरा
तेरे बिन खाली आजा,खालीपन में...(2)

रंगरेजा, रंगरेजा, रंगरेजा,....
हो रंगरेजा.......


क़ुन फ़ाया क़ुन
क़ुन फ़ाया क़ुन

फ़ाया क़ुन, फ़ाया क़ुन, फ़ाया क़ुन.....(2)


जब कहीं पे कुछ नहीं था

भी नहीं ता,

वहीं था वहीं था
वहीं था वहीं था

वो जो मुझमें समाया
वो जो तुझमें समाया
मौला वाही वाही माया....(2)

क़ुन फ़ाया क़ुन..(2)
स़दाक़ुल्लाहुल-अलीउल़-अजीम़

रंगरेजा रंग मेरा तन मेरा मन
ले ले रंगायी चाहे तन चाहे मन....(2)
स़जऱा सवेरा मेरे तन बरसे,
कज़रा अँधेरा तेरी जल़ती लौ

कतरा मिला जो तेरे दर पर से
ओ मौला...
मौला.....आ...

क़ुन फ़ाया क़ुन
क़ुन फ़ाया क़ुन
फ़ाया क़ुन, फ़ाया क़ुन, फ़ाया क़ुन.....(2)


इस गाने को लिखा है इरस़ाद कमील जी ने व इस गाने को फिल्म के लिये गाया है ए.आर.रहमान,जावेद अली और मोहित चौहान ने ।इस फिल्म को बनाया है अप्रतिम प्रतिभाशील फिल्मनिर्देशक इम्तियाज अली जो इसी तरह की विलक्षण फिल्में- बनाने के लिये जाने जाते रहे हैं।


इस गाने के बोल मुझे ऋग्वेद की निम्न ऋचा का स्मरण कराते हैं-

नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत |
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम ||
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत ।
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥

अर्थात् सृष्टि से पहले सत ,असत कुछ  भी नहीं,अंतरिक्ष और आकाश भी नहीं था, तो यह छिपा था क्या, और इसे किसने ढका था, उस पल तो अगम अतल जल भी कहां था ।
वह था हिरण्य गर्भ जो सृष्टि से पहले विद्यमान था,वह तो सारे भूत जाति का महान स्वामी है, जो कि अस्तित्वमान धरती और आसमान धारण करता है । ऐसे किस देवता की हवि देकर हम उपासना करें ।

गीता में भी तो कृष्ण ने यही कहा है-
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
अर्थात्- मैं(यानि वासुदेव) ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेष्टायुक्त(क्रियाशील) है।
तो मन भी तभी से बार-बार यही दोहरा रहा है- कुन फायाकुन (वही है,बस वही है।)

Saturday, November 26, 2011

-गुफ्तगू गुलमोहर के पेड़ के साथ..






मेरे घर के पीछे, खिड़कियों के पार,
झील के किनारे गुलमोहर का पेड़,
आजकल मेरी उससे खूब छन रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।


होती है जब भी हवाओं की आहट
परदों से होती है सुर्ख सरसराहट,
मैं खिसक लेता हूँ ड्राइंग रूम से
किचन की लाँबी से देखता हूँ उसे
हवा में आँचल लहराते बल खाते
मस्त मस्त सी, हर अंग थिरकाते,
जैसे वह सालसा नृत्य कर रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू.............................

घर की छत पर गिरती हुई नभ से बूदें,
झमाझम बारिश तबले की तकधिन धुन दे,
मैं इस धुन को सुनते ही सजग होता हूँ।
भीगती लॉबी में भागता पहुँच जाता हूँ।
खुली बारिश में जो देखता हूँ उसे नहाते हुये,
उसके हरे पत्ते के गालों से मोती ढलकते हुये,
यूँकि कोई अप्सरा बादल के झरने के नीचे नहा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू......................................

मेरे बैठकखाने में एक खास चमक होती है,
बाहर जब भी चटकीली धूप खिलती है।
किचन की खिड़कियों से झाँकती हैं उजली किरनें,
बालकनी में धूप की चमक के मेले का न्यौता देने।
बेपरवाह सी पसर कर बैठी आँचल ढलकाये,
धूप से उसके वदन का हर कतरा यूँ खिल जाये,
गोया सद्यस्नाता अपने गीले बालों को धूप में सुखा रही है।
मेरी उससे गुफ्तगू आजकल रोज हो रही है।।

Friday, November 25, 2011

मौन,शांति और सत्य....


(मेरी यह छोटी सी भेंट उन महापुरुषों को समर्पित है जो सत्य बोलने का साहस रखते हैं व न्याय की स्थापना के लिये निरंतर संघर्षरत हैं।)


मौन शांति है,मौन सहमति,
यह तो प्राय: ही भ्रम होगा।
शांति-मौन या तटस्थ-मौन ?
पहले भेद समझना होगा।1

निर्भयता ही सत्यनिरूपित,
भयमन क्या सच कह पाता है?
सच तो है शिव भी सुंदर , पर
सत्य भयावह भी होता है।2

न्याय बिना, हर-जन-सुख के बिन,
शांति रही बेमानी ही है।
न्यायरहित यह शांति ढोंग है,
गलाघोटती बंधन ही है।3

अशांत मौन की होगी ही
ऊँची यह प्राचीर तोड़नी।
बहुधा सच के चित्कारों में,
बसती है शांति की जननी।4

बहुत रह लिये तटस्थ मौन तुम,
अब तो सच कहना ही होगा।
त्याग मखमली सुविधा पथ
यह,अंगारों पर चलना होगा।5

पर सावधान सच के संग ही,
हिंसात्याग निभाना होगा।
सत्य कहो पर उद्वेग-रहित हो,
अहं-त्याग भी करना होगा।6